दोराहों- चौराहों  को सुलझाने बैठी हूं

छोटे-छोटे कदमों से

जब चलना शुरू किया,

राहें उन्मुक्त हुईं।

ज़िन्दगी कभी ठहरी-सी

कभी भागती महसूस हुई।

अनगिन सपने थे,

कुछ अपने थे,

कुछ बस सपने थे।

हर सपना सच्चा लगता था।

हर सपना अच्छा लगता था।

मन की भटकन थी

राहों में अटकन थी।

हर दोराहे पर, हर चौराहे पर,

घूम-घूमकर जाते।

लौट-लौटकर आते।

जीवन में कहीं खो जाते।

समझ में ही थी तकरार

दुविधा रही अपार।

सब पाने की चाहत थी,

पर भटके कदमों की आहट थी।

क्या पाया, क्या खोया,

कभी कुछ समझ न आया।

अब भी दोराहों- चौराहों  को

सुलझाने बैठी हूं,

न जाने क्यों ,

अब तक इस में उलझी बैठी हूं।