प्रकृति के प्रपंच

प्रकृति भी न जाने कहां-कहां क्या-क्या प्रपंच रचा करती है

पत्थरों को जलधार से तराश कर दिल बना दिया करती है

कितना भी सजा संवार लो इस दिल को रंगीनियों से तुम

बिगड़ेगा जब मिज़ाज उसका, पल में सब मिटा दिया करती है