विवेक कहां अब नीर क्षीर का

हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, किससे आस लिये बैठे हैं

अंधे-गूंगे बहरे-नाकारों की बस्ती में विश्वास लिए बैठे हैं

अपने अपने मद में डूबे हम, औरों से क्या लेना देना

विवेक कहां अब नीर क्षीर का, सब ढाल लिए बैठे है।