काश ! हम कोई शिला होते

पत्थरों में प्यार तराशते हैं

और जिह्वा को कटार बनाये घूमते हैं।

छैनी जब रूप-आकार तराशती है

तब एक संसार आकार लेता है।

तूलिका जब रंग बिखेरती है

तब इन्द्रधनुष बिखरते हैं।

किन्तु जब हम

अन्तर्मन के भावों को

रूप-आकार, रंगों का संसार

देने लगते हैं,

सम्बन्धों को तराशने लगते हैं

तब न जाने कैसे

छैनी-हथौड़े

तीखी कटार बन जाते हैं,

रंग उड़ जाते हैं

सूख जाते हैं।

काश हम भी

वास्तव में ही कोई शिला होते

कोई तराशता हमें,

रूप-रंग-आकार देता

स्नेह उंडेलता

कोई तो कृति ढलती,

कोई तो आकृति सजती।

कौन जाने

फिर रंग भी रंगों में आ जाते

और छैनी-हथौड़ी भी

सम्हल जाते।