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घर के आलों में
दीवारों में,
कहीं कोनों में,
पुरानी अलमारियों में,
पुराने कपड़ों की तहों में
छिपाकर रखती रही हूं
न जाने कितने एहसास,
तह-दर-तह
समेटकर रखे थे मैंने
बेमतलब, बेवजह।
सर्दी-गर्मी,
होली-दीपावली पर
जब साफ़-सफ़ाई
होती है घर में,
सबसे पहले,
सब, एक होकर
उनकी ही छंटाई में लग जाते हैं,
कितना बेकार कचरा जमा कर रखा है घर में।
कितनी जगह रूकी है
इनकी वजह से,
कब काम आता है ये सब,
पूछते हैं सब मुझसे।
मेरे पास कोई उत्तर नहीं होता कभी भी।
इसे मेरा समर्पण मानकर
मुझसे पूछे बिना
छंटाई हो जाती है।
घर में जगह बन जाती है।
मैं अपने भीतर भी
एक खालीपन का एहसास करती हूं
पर वहां कुछ नया जमा नहीं पाती।
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और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवा
समझ नहीं पाते हैं
कि धरा पर
ये कैसे प्राणी रहते हैं
ज़रा-सा पास-पास बैठे देखा नहीं
कि इश्क, मुहब्ब्त, प्यार के
चर्चे होने लगते हैं।
तोता-मैना
की कहानियां बनाने लगते हैं।
अरे !
क्या तुम्हारे पास नहीं हैं
जिन्दगी के और भी मसले
जिन्हें सुलझाने के लिए
कंधे से कंधा मिलाकर चलना पड़ता है,
सोचना-समझना पड़ता है।
देखो तो,
मौसम बदल रहा है
निकाल रहे हो न तुम
गर्म कपड़े, रजाईयां-कम्बल,
हमें भी तो नया घोंसला बनाना है,
तिनका-तिनका जमाना है,
सर्दी भर के लिए भोजन जुटाना है।
बच्चों को उड़ना सिखाना है,
शिकारियों से बचना बताना है।
अब
हमारी जिन्दगी के सारे फ़लसफ़े तो
तुम्हारी समझ में आने से रहे।
गालिब ने कहा था
ज़माने में
और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवा
और
इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
बस इतना ही समझाना है !!!!
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पूछती है मुझसे मेरी कलम
राष्ट्र भक्ति के गीत लिखने के लिए कलम उठाती हूं जब जब
पूछती है मुझसे मेरी कलम, देश हित में तूने क्या किया अब तक
भ्रष्ट्राचार, झूठ, रिश्वतखोरी,अनैतकिता के विरूद्ध क्या लड़ी कभी
गीत लिखकर महान बनने की कोशिश करोगे कवि तुम कब तक
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मन बहक-बहक जाये
इन फूलों को देखकर
अकारण ही मन मुस्काए।
न जाने
किस की याद आये।
तब, यहां
गुनगुनाती थी चिड़ियां।
तितलियां पास आकर पूछती थीं,
क्यों मन ही मन शरमाये।
उलझी-उलझी सी डालियां,
मानों गलबहियां डाले,
फूलों की ओट में छुप जायें।
हवाओं का रूख भी
अजीब हुआ करता था,
फूलों संग लाड़ करती
शरारती-सी
महक-महक जाये।
खिली-खिली-सी धूप,
बादलों संग करती अठखेलियां,
न जाने क्या कह जाये।
झरते फूलों को
अंजुरि में समेट
मन बहक-बहक जाये।
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इशारों में ही बात हो गई
मेरे हाथ आज लगे
जिन्न और चिराग।
पूछा मैंने
क्या करोगे तुम मेरे
सारे काम-काज।
बोले, खोपड़ी तेरी
क्या घूम गई है
जो हमसे करते बात।
ज्ञात हो चुकी हमको
तुम्हारी सारी घात।
बहुत कर चुके रगड़ाई हमारी।
बहुत लगाये ढक्कन।
किन्तु अब हम
बुद्धिमान हो गये।
बोतल बड़ी-बड़ी हो गई,
लेन-देन की बात हो गई,
न रगड़ाई और न ढक्कन।
बस देता जा और लेता जा।
लाता जा और पाता जा।
भर दे बोतल, काम करा ले।
काम करा ले बोतल भर दे।
इशारों में ही बात हो गई
समझ आ गई तो ठीक
नहीं आई तो
जाकर अपना माथा पीट।
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रसते–बसते घरों में खुशियां
रसते–बसते घरों में खुशियां चकले-बेलने की ताल पर बजती हैं।
मां रोटी पकाती है, घर महकता है, थाली-कटोरी सजती है।
देर शाम घर लौटकर सब साथ-साथ बैठते, हंसते-बतियाते,
निमन्त्रण है तुम्हें, देखना घर की दीवारें भी गुनगुनाने लगती हैं।
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भावनाएं पत्थर हो गईं
सड़कों पर आदमी भूख से मरता रहा।
मंदिरों में स्वर्ण, रजत, हीरा चढ़ता रहा।
भावनाएं पत्थर हो गईं, कौन समझा यहां
बेबस इंसान भगवान की मूतियां गढ़ता रहा।
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जीवन चलता तोल-मोल से
सड़कों पर बाज़ार बिछा है
रोज़ सजाते, रोज़ हटाते।
आज हरी हैं
कल बासी हो जायेंगी।
आस लिए बैठे रहते हैं
देखें कब तक बिक जायेंगी
ग्राहक आते-जाते
कभी ख़रीदें, कभी सुनाते।
धरा से उगती
धरा पर सजती
धरा पर बिकती।
धूप-छांव में ढलता जीवन
सांझ-सवेरे कब हो जाती।
तोल-मोल से काम चले
और जीवन चलता तोल-मोल से
यूँ ही दिन ढलते रहते हैं
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हमारी राहें ये संवारते हैं
यह उन लोगों का
स्वच्छता अभियान है
जो नहीं जानते
कि राजनीति क्या है
क्या है नारे
कहां हैं पोस्टर
जहां उनकी तस्वीर नहीं छपती
छपती है उन लोगों की छवि
जिनकी
छवि ही नहीं होती
कुछ सफ़ेदपोश
साफ़ सड़कों पर
साफ़ झाड़ू लगाते देखे जाते रहे
और ये लोग उनका मैला ढोते रहे।
प्रकृति भी इनकी परीक्षा लेती है,
तरू अरू पल्लव झरते हैं
एक नये की आस में
हम आगे बढ़ते हैं
हमारी राहें ये
संवारते हैं
और हम इन्हीं को नकारते हैं।
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अन्तस में हैं सारी बातें
पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं
जो दुनिया तो जाने थी पर मन था छुपाए
पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें
न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं
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जल लेने जाते कुएँ-ताल
बाईसवीं सदी के
मुहाने पर खड़े हम,
चाँद पर जल ढूँढ लाये
पर इस धरा पर
अभी भी
कुएँ, बावड़ियों की बात
बड़े गुरूर से करते हैं
कितना सरल लगता है
कह देना
चली गोरी
ले गागर नीर भरन को।
रसपान करते हैं
महिलाओं के सौन्दर्य का
उनकी कमनीय चाल का
घट भरकर लातीं
प्रेमरस में भिगोती
सखियों संग मदमाती
कहीं पिया की आस
कहीं राधा की प्यास।
नहीं दिखती हमें
आकाश से बरसती आग
बीहड़ वन-कानन
समस्याओं का जंजाल
कभी पुरुषों को नहीं देखा
सुबह-दोपहर-शाम
जल लेने जाते कुएँ-ताल।