समय आत्ममंथन का

पता नहीं यह कैसे हो गया ?

मुझे, अपने पैरों के नीचे की ज़मीन की

फ़िसलन का पता ही न लगा

और आकाश की उंचाई का अनुमान।

बस एक कल्पना भर थी

एक आकांक्षा, एक चाहत।

और मैंने छलांग लगा दी ।

आकाश कुछ ज़्यादा ही उंचा निकला

और ज़मीन कुछ ज़्यादा ही चिकनी।

मैं थी बेखबर, आकाश पकड़ न सकी

और पैर ज़मीन पर टिके नहीं।

 

दु:ख गिरने का नहीं

क्षोभ चोट लगने का नहीं।

पीड़ा हारने की नहीं।

ये सब तो सहज परिणाम हैं,

अनुभव की खान हैं

किसी की हिम्मत के।

समय आत्ममंथन का।

कितना कठिन होता है

अपने आप से पूछना।

और कितना सहज होता है

किसी को गिरते देखना

उस पर खिलखिलाना

और ताली बजाना।

 

कितना आसान होता है

चारों ओर भीड़ का मजमा लगाना।

ढोल बजा बजा कर दुनिया को बताना।

जख़्मों को कुरेद कुरेद कर दिखाना।

 

और कितना मुश्किल होता है

किसी के जख़्मों की तह तक जाना

उसकी राह में पड़े पत्थरों को हटाना

और सही मौके पर सही राह बताना।