कभी धरा कभी गगन को छू लें

चल री सखी

आज झूला झूलें,

कभी धरा

तो कभी

गगन को छू लें,

डोर हमारी अपने हाथ

जहां चाहे

वहां घूमें।

चिन्ताएं छूटीं

बाधाएं टूटीं

सखियों संग

हिल-मिल मन की

बातें हो लीं,

कुछ गीत रचें

कुछ नवगीत रचें,

मन के सब मेले खेंलें

अपने मन की खुशियां लें लें।

नव-श्रृंगार करें

मन से सज-संवर लें

कुछ हंसी-ठिठोली

कुछ रूसवाई

कभी मनवाई हो ली।

मेंहदी के रंग रचें

फूलों के संग चलें

कभी बरसे हैं घन

कभी तरसे है मन

आशाओं के दीप जलें

हर दिन यूं ही महक रहे

हर दिन यूं ही चहक रहे।

चल री सखी

आज झूला झूलें

कभी धरा

तो कभी

गगन को छू लें।