क्यों न कहे
आंखें देखती हैं,
कान सुनते हैं,
दिल जलता है,
माथा तपता है,
सब चुपचाप चलता है।
.
किन्तु यह जिह्वा
सह नहीं पाती,
सब कह बैठती है।
आंखों देखी दुनिया
कथा है
कि मिट्टी खाने पर
यशोदा ने कृष्ण को
मुँह खोलकर
दिखाने के लिए कहा था
और यशोदा ने
कृष्ण के मुँह में
ब्रह्माण्ड के दर्शन किये थे।
कुछ ऐसा ही ब्रह्माण्ड
हमारी आंखों के भीतर भी है
जिसे हम देख नहीं पाते,
किसी और को क्या दिखाना
हम स्वयं ही
समझ भी नहीं पाते।
बड़ी प्रचलित कहावत है
आंखों देखी दुनिया।
किन्तु आश्चर्य कि
हम दुनिया को
कभी भी खुली आंखों से
देख नहीं पाते।
जब भी दुनिया को समझना होता है
हम आंखें बन्द कर लेते हैं
और शिकायत करते हैं
हमारी समझ से बाहर है यह दुनिया।
आवरण है जब तक आसानियां बहुत हैं
परेशानियां बहुत हैं, हैरानियां बहुत हैं
कमज़ोरियां बहुत हैं, खामियां बहुत हैं
न अपना-सा है यहां कोई, न पराया
आवरण है जब तक आसानियां बहुत हैं
नेह के बोल
जल लाती हूँ पीकर जाना,
धूप बहुत है सांझ ढले जाना
नेह की छाँव तले बैठो तुम
सब आते होंगे, मिलकर जाना
दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी
शून्य से शतक तक की दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी
इससे आगे और क्या इस सोच में बह रही है जिन्दगी
और–और मिलने की चाह में डर डर कर जीते हैं हम
एक से निन्यानवे तक भी आनन्द ले, कह रही है जिन्दगी
एक बेला ऐसी भी है
एक बेला ऐसी भी है
जब दिन-रात का
अन्तर मिट जाता है
उभरते प्रकाश
एवं आशंकित तिमिर के बीच
मन उलझकर रह जाता है।
फिर वह दूर गगन हो
अथवा
अतल तक की गहरी जलराशि।
मन न जाने
कहां-कहां बहक जाता है।
सब एक संकेत देते हैं
प्रकाश से तिमिर का
तिमिर से प्रकाश का
बस
इनके ही समाधान में
जीवन बहक जाता है।
हिम्मत लेकर जायेगी शिखर तक
किसी के कदमों के छूटे निशान न कभी देखना
अपने कदम बढ़ाना अपनी राह आप ही देखना
शिखर तक पहुंचने के लिए बस चाहत ज़रूरी है
अपनी हिम्मत लेकर जायेगी शिखर तक देखना
योग दिवस पर एक रचना
उदित होते सूर्य की रश्मियां
मन को आह्लादित करती हैं।
विविध रंग
मन को आह्लादमयी सांत्वना
प्रदान करते हैं।
शांत चित्त, एकान्त चिन्तन
सांसारिक विषमताओं से
मुक्त करता है।
सांसारिकता से जूझते-जूझते
जब मन उचाट होता है,
तब पल भर का ध्यान
मन-मस्तिष्क को
संतुलित करता है।
आधुनिकता की तीव्र गति
प्राय: निढाल कर जाती है।
किन्तु एक दीर्घ उच्छवास
सारी थकान लूट ले जाता है।
जब मन एकाग्र होता है
तब अधिकांश चिन्ताएं
कहीं गह्वर में चली जाती हैं
और स्वस्थ मन-मस्तिष्क
सारे हल ढूंढ लाता है।
इन व्यस्तताओं में
कुछ पल तो निकाल
बस अपने लिये।
एक संस्मरण पर्पल पैन कवि सम्मेलन दिल्ली
कल का दिन बहुत अच्छा बीता। एक नया अनुभव, फ़ेसबुक के वे मित्र जिनसे वर्षों से कविताओं एवं प्रतिक्रियाओं के माध्यम से मिलते थे, ऑनलाईन कवि सम्मेलन में मिलते थे एवं कभी फ़ोन पर भी बात होती थी, उनसे मिलना और एक सुन्दर, भव्य कवि सम्मेलन का हिस्सा बनना।
फ़ेसबुक का पर्पल पैन साहित्यिक मंच एवं मंच की संस्थापक/संचालक वसुधा कनुप्रिया जी का दूर से ही मिलने वाला नेह मुझे कल दिल्ली ले गया।
इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनने के लिए मैंने कल पंचकूला से दिल्ली तक की आने-जाने की टैक्सी की और लगभग दस घंटे की यात्रा की। प्रातः सात बजे जब घर से निकली तो मूसलाधार वर्षा, सड़कों पर बने तालाब, रुकता-चलता ट्रैफ़िक प्रतीक्षा कर रहा था। मेरी अधिक यात्रा तो सोते ही बीतती है। करनाल से पहले से मौसम ठीक होने लगा था। वसुधा जी से और घर में भी निरन्तर बात अथवा वाट्सएप संदेश चल रहे थे। उन्होंने मुझे लोकेशन, निकटवर्ती स्थल आदि की सूचना भी भेज दी। करनाल में अल्पाहार कर जब दिल्ली की सीमा के निकट पहुँचे तो मोबाईल ने कुछ पूछा, हाँ अथवा कैंसल। मैं ऐसे मामलों में अपना दिमाग़ कदापि नहीं लगाती, बेटे से पूछा, शायद मैं उसे कुछ ठीक बता नहीं पाई और रोमिंग बंद। वाट्सएप बन्द। मैं समझाने पर भी नहीं समझ पाई। इस बीच हम कार्यक्रम स्थल तक पहुँच चुके थे। फिर वसुधा जी का सहारा लिया। भाग्य रहा कि निकट ही एक छोटी सी दुकान मिल गई और उन्होंने रोमिंग चला दी। सांस में सांस आई।
वसुधा जी की चिन्ता मन को छू जाती है। उनका प्रातः भी फ़ोन आया कि मौसम देखकर निकलिएगा। वे इस बात की भी चिन्ता कर रही थीं कि मैं दोपहर में एक-दो बजे पहुँचूंगी तो भूख लगी होगी। वे मेरे लिए और मेरे टैक्सी चालक के लिए विशेष रूप ढोकला लेकर आईं। वसुधा जी एवं डॉ इन्दिरा शर्मा, मीनाक्षी भटनागर, रजनी रामदेव, गीता भाटिया, वंदना मोदी गोयल, वीणा तँवर, शारदा मदरा, रामकिशोर उपाध्याय, एवं एक-दो मित्र-परिचित और जिनके मैं नाम भूल रही हूँ, लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं। एक अपनत्व की धारा थी। अन्य कवि भी प्रथम परिचय में आत्मीय भाव से मिले। वसुधा जी की मम्मी से मिलना भी बहुत सुखद रहा।
मधुश्री जी की पुस्तक का विमोचन भी हुआ।
कवि सम्मेलन का अनुभव बहुत अच्छा रहा। एक नयापन, विविधात्मक रचनाएँ, एवं सहज वातावरण, सुव्यवस्थित कार्यक्रम एवं आयोजन मन आनन्दित कर गया।
आयोजन की अध्यक्षता मशहूर उस्ताद शायर श्री सीमाब सुल्तानपुरी ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में विधि भारती परिषद् की संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री संतोष खन्ना, विष्णु प्रभाकर संस्थान के संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार श्री अतुल प्रभाकर और विख्यात शायर श्री मलिकज़ादा जावेद की गरिमामयी उपस्थिति एवं उनका काव्य पाठ सुनना अत्यन्त सुखद अनुभव रहे।
दोपहर में दिल्ली में वर्षा के कारण कार्यक्रम कुछ विलम्ब से आरम्भ हो पाया और समाप्त होते-होते साढ़े सात बज गये। अब भूख तो लग ही रही थी। रात्रि किसी ढाबे में भोजन के लिए रुकना बनता ही नहीं था। इस कारण विलम्ब होते हुए भी मैं समोसे और चने खाने से अपने-आपको रोक नहीं पाई।
रात्रि आठ बजकर दस मिनट में दिल्ली से निकले और रात्रि 12.15 पर पंचकूला पहुंची। इस बीच घर तो बात चल ही रही थी, वसुधा जी का भी दो बार कुशलता जानने के लिए फ़ोन आया। अपनी सारी व्यस्तताओं के बीच वे सबकी जानकारी ले रही थीं। ऐसे मित्र और ऐसा नेह कठिनाई से मिलता है, नेह बना रहे।
स्वप्न हों साकार
तुम बरसो, मैं थाम लूं मेह की रफ्तार
न कहीं सूखा हो न धरती बहे धार धार
नदी, कूप, सर,निर्झर सब हों अमृतमय
शस्यश्यामला धरा पर स्वप्न हों साकार
विध्वंस की आशंका
विध्वंस की आशंका से
आज ही
नवनिर्माण में जुटे हैं
इसलिए
अपने-आप ही
तोड़- फ़ोड़ में लगे है।
हमारे भीतर ही बसता है वह
कहां रूपाकार पहचान पाते हैं हम
कहां समझ पाते हैं
उसका नाम,
नहीं पहचानते,
कब आ जाता है सामने
बेनाम।
उपासना करते रह जाते हैं
मन्दिरों की घंटियां
घनघनाते रह जाते हैं
नवाते हैं सिर
करते हैं दण्डवत प्रणाम।
हर दिन
किसी नये रूप को आकार देते हैं
नये-नये नाम देते हैं,
पुकारते हैं
आह्वान करते हैं,
पर नहीं मिलता,
नहीं देता दिखाई।
पर हम ही
समझ नहीं पाये आज तक
कि वह
सुनता है सबकी,
बिना किसी आडम्बर के।
घूमता है हमारे आस-पास
अनेक रूपों में, चेहरों में
अपने-परायों में।
थाम रखा है हाथ
बस हम ही समझ नहीं पाते
कि कहीं
हमारे भीतर ही बसता है वह।
स्मृतियों के धुंधलके से
कुछ स्मृतियों को
जीवन्त रखने के लिए
दीवारों पर
टांग देते हैं कुछ चित्र।
धीरे-धीरे
चेहरे धुंधलाने लगते हैं
यादें स्याह होने लगती हैं।
कभी जाले लग जाते हैं।
भूलवश
कभी छू देते है हाथ से
तब मिट्टी झरने लगती है,
तब अजब सी स्थितियां हो जाती हैं।
कभी तो चेहरे ही गायब !
कभी बदल कर
आगे-पीछे हो चुके होते हैं
कुछ चित्रों से बाहर निकलकर
गले मिलना चाहते हैं
आंसू बहाते हैं
और कुछ एकाएक भागने लगते हैं
मानों पीछा छुड़ाकर।
और कुछ अजनबी से चेहरे
बहुत बोलते हैं, यादें दिलाते हैं
प्रश्न करते हैं, कुछ पूछते हैं
कुछ कहते हैं, कुछ सुनाते हैं
अक्सर आवाजें नहीं छूती हमें
असली चेहरे
हमारी पहचान में आते नहीं
अनुमान हम लगा पाते नहीं ।
तब हम उन धुंधलाते चित्रों को
दीवार से उतारकर
कोने में
सहेज देते हैं
फिर धीरे-धीरे वे
दरवाजे से बाहर होने लगते हैं]
और हम परेशान रहते हैं
चित्र के स्थान पर पड़े निशान को
कैसे ढंकें।
पछताते लोग
झूठी शान जताते लोग
बातें खूब बनाते लोग
खुलती पोल सिर झुकता
तब देखो पछताते लोग
मरना बड़ा जरूरी है
जब-जब
जीने का प्रयास किया मैंने,
तब-तब
मुझे बता दिया गया,
कि ज़िन्दगी में
मरना बड़ा जरूरी है।
यह ज़रूरी नहीं कि
आप ज़िन्दगी में
एक ही बार मरें,
ज़िन्दा रहते हुए भी
बार-बार
मरने के अनेक रास्ते हैं ।
ज़िंदा रहते हुए भी
मरना ही तो
असली मौत है ।
जिसे हम स्वयं भोगते हैं।
वह मौत क्या
जिसे और लोग भुगतें।
आत्मस्वीकृति
कौन कहता है
कि हमें ईमानदारी से जीना नहीं आता
अभी तो जीना सीखा है हमने।
दुकानदार जब सब्जी तोलता है
तो दो चार मटर, एक दो टमाटर
और कुछ छोटी मोटी
हरी पत्तियां तो चखी ही जा सकती हैं।
वैसे भी तो वह ज्यादा भाव बताकर
हमें लूट ही रहा था।
राशन की दुकान पर
और कुछ नहीं तो
चीनी तो मीठी ही है।
फिर फल वाले का यह कर्त्तव्य है
कि जब तक हम
फलों को जांचे परखें, मोल भाव करें
वह साथ आये बच्चे को
दो चार दाने अंगूर के तो दे।
और फल चखकर ही तो पता लगेगा
कि सामान लेने लायक है या नहीं
और बाज़ार से मंहगा है।
किसे फ़ुर्सत है देखने की
कि सिग्रेट जलाती समय
दुकानदार की माचिस ने
जेब में जगह बना ली है।
और अगर बर्तनों की दुकान पर
एक दो चम्मच या गिलास
टोकरी में गिर गये हैं
तो इन छोटी छोटी चीज़ों में
क्या रखा है
इन्हें महत्व मत दो
इन छोटी छोटी वारदातों को
चोरी नहीं ज़रूरत कहते हैं
ये तो ऐसे ही चलता है।
कौन परवाह करता है
कि दफ्तर के कितने पैन, कागज़ और रजिस्टर
घर की शोभा बढ़ा रहे हैं
बच्चे उनसे तितलियां बना रहे हैं
हवाई जहाज़ उड़ा रहे हैं
और उन कागज़ों पर
काले चोर की तस्वीर बनाकर
तुम्हें ही डरा रहे हैं।
लेकिन तुम क्यों डरते हो ?
कौन पहचानता है इस तस्वीर को
क्योंकि हम सभी का चेहरा
किसी न किसी कोण से
इस तस्वीर के पीछे छिपा है
यह और बात है कि
मुझे तुम्हारा और तुम्हें मेरा दिखा है।
इसलिए बेहतर है दोस्त
हाथ मिला लें
और इस चित्र को
बच्चे की हरकत कह कर जला दें।
वास्तविकता में नहीं जीते हम
मैं जानती हूं
मेरी सोच कुछ टेढ़ी है।
पर जैसी है
वैसा ही तो लिखूंगी।
* * * *
नारी के
इस तरह के चित्र देखकर
आप सब
नारीत्व के गुण गायेंगे,
ममता, त्याग, तपस्या
की मूर्ति बतायेंगे।
महानता की
सीढ़ी पर चढ़ायेंगे।
बच्चों को गोद में
उठाये चल रही है,
बच्चों को
कष्ट नहीं देना चाहती,
नमन है तेरे साहस को।
अब पीछे
भारत का मानचित्र दिखता है,
तब हम समझायेंगे
कि पूरे भारत की नारियां
ऐसी ही हुआ करती हैं।
अपना सर्वस्व खोकर
बच्चों का पालन-पोषण करती हैं।
फिर हमें याद आ जायेंगी
दुर्गा, सती-सीता, सावित्री,
पद्मिनी, लक्ष्मी बाई।
हमें नहीं याद आयेंगी
कोई महिला वैज्ञानिक, खिलाड़ी
प्रधानमंत्री, राष्ट््रपति,
अथवा कोई न्यायिक अधिकारी
पुलिस, सेना अधिकारी।
समय मिला
तो मीडिया वाले
साक्षात्कार लेकर बतायेंगे
यह नारी
न न, नारी नहीं,
मां है मां ! भारत की मां !
मेहनत-मज़दूरी करके
बच्चों को पाल रही है।
डाक्टर-इंजीनियर बनाना चाहती है।
चाहती है वे पुलिस अफ़सर बनें,
बड़े होकर मां का नाम रोशन करें,
वगैरह, वगैरह।
* * * *
लेकिन इस चित्र में
बस एक बात खलती है।
आंसुओं की धार
और अच्छी बहती,
गर‘ मां के साथ
लड़कियां दिखाते,
तो कविता लिखने में
और ज़्यादा आनन्द पाते।
* * * *
वास्तव में
जीवन की
वास्तविकता में नहीं जीते हम,
बस थोथी भावुकता परोसने में
टसुए बहाने में
आंसू टपकाने में,
मज़ा लेते हैं हम।
* * * *
ओहो !
एक बात तो रह ही गई,
इसके पति, बच्चों के पिता की
कोई ख़बर मिले तो बताना।
देखो किसके कितने ठाठ
एक-दो-तीन-चार
पांच-छः-सात-आठ
देखो किसके कितने ठाठ
इसको रोटी, उसको दूध
किसी को पानी
किसी को भूख
किसकी कितनी हिम्मत
देखें आज
देखो तुम सब
हमरे ठाठ
किके्रट टीम तो बनी नहीं
किस खेल में होते आठ
अपनी टीम बनाएंगे
मौज खूब उड़ायेंगे
सस्ते में सब निपटायेंगे
पढ़ना-लिखना हुआ है मंहगा
बना ले घर में ही टीम
पढ़ोगे-लिखोगे होंगे खराब
खेलोगे-कूदोगे बनोगे नवाब
रिश्तों की अकुलाहट
बस कहने की ही तो बातें हैं कि अगला-पिछला छोड़ो रे
किरचों से चुभते हैं टूटे रिश्ते, कितना भी मन को मोड़ो रे
पत्थरों से बांध कर जल में तिरोहित करती रहती हूं बार-बार
फिर मन में क्यों तर आते हैं, क्यों कहते हैं, फिर से जोड़ो रे
अपनी ही प्रतिच्छाया को नकारते हैं हम
अपनी छाया को अक्सर नकार जाते हैं हम।
कभी ध्यान से देखें
तो बहुत कुछ कह जाती है।
डरते हैं हम अपने अकेलेपन से।
किन्तु साथ-साथ चलते-चलते
न जाने क्या-क्या बता जाती है।
अपनी अन्तरात्मा को तो
बहुत पुकारते हैं हम,
किन्तु अपनी ही प्रतिच्छाया को
नकारते हैं हम।
नि:शब्द साथ-साथ चलते,
बहुत कुछ समझा जाती है।
हम अक्सर समझ नहीं पाते,
किन्तु अपने आकार में छाया
बहुत कुछ बोल जाती है।
कदम-दर-कदम,
कभी आगे कभी पीछे,
जीवन के सब मोड़ समझाती है।
छोटी-बड़ी होती हुई ,
दिन-रात, प्रकाश-तम के साथ,
अपने आपको ढालती जाती है।
जीवन परिवर्तन का नाम है।
कभी सुख तो कभी दुख,
जीवन में आवागमन है।
समस्या बस इतनी सी
कि हम अपना ही हाथ
नहीं पकड़ते
ज़माने भर का सहारा ढूंढने निकल पड़ते हैं।
ज़िन्दगी लगती बेमानी है
जन्म की अजब कहानी है, मरण से जुड़ी रवानी है।
श्मशान घाट में जगह नहीं, खो चुके ज़िन्दगानी हैं।
पंक्तियों में लगे शवों का टोकन से होगा संस्कार,
फ़ुटपाथ पर लगी पंक्तियां, ज़िन्दगी लगती बेमानी है।
सत्य-पथ का अनुसरण करें
न विधि न विधान, बस मन में भक्ति-भाव रखते हैं
न धूप-दीप, न दान-दक्षिणा, समर्पण भाव रखते हैं
कोई हमें नास्तिक कहे, कोई कह हमें धर्म-विरोधी
सत्य-पथ का अनुसरण करें, बस यही भाव रखते है।
अन्तर्द्वन्द
हर औरत के भीतर
एक औरत है
और उसके भीतर
एक और औरत।
यह बात
स्वयं औरत भी नहीं जानती
कि उसके भीतर
कितनी लम्बी कड़ी है
इन औरतों की।
धुरी पर घूमती चरखी है वह
जिसके चारों ओर
आदमी ही आदमी हैं
और वह घूमती है
हर आदमी के रिश्ते में।
वह दिखती है केवल
एक औरत-सी,
शेष सब औरतें
उसके चारों ओर
टहलती रहती हैं,
उसके भीतर सुप्त रहती हैं।
कब कितनी
औरतें जाग उठती हैं
और कब कितनी मर जाती हैं
रोज़ पैदा होती हैं
कितनी नई औरतें
उसके भीतर
यह तो वह स्वयं भी नहीं जानती।
लेकिन
ये औरतें संगठित नहीं हैं
लड़ती-मरती हैं,
अपने-आप में ही
अपने ही अन्दर।
कुछ जन्म लेते ही
दम तोड़ देती हैं
और कुछ को
वह स्वयं ही, रोज़, हर रोज़
मारती है,
वह स्वयं यह भी नहीं जानती।
औरत के भीतर सुप्त रहें
भीतर ही भीतर
लड़ती-मरती रहें
जब तक ये औरतें,
सिलसिला सही रहता है।
इनका जागना, संगठित होना
खतरनाक होता है
समाज के लिए
और, खतरनाक होता है
आदमी के लिए।
जन्म से लेकर मरण तक
मरती-मारती औरतें
सुख से मरती हैं।