अलगाव

द्वंद्व में फ़ंसी मै सोचती हूं,

मैं और तुम कितने एक हैं,

पर दो भी हैं।

शायद इसीलिए एक हैं।

नहीं ! शायद

एक होने के लिए दो हैं।

पहले एक हैं या पहले दो ?

एक ज़्यादा हैं या दो ?

या केवल एक ही हैं,

या केवल दो ही।

इस एक और दो के

द्वंद्व के बीच,

कहीं मैंने जाना,

कि हम

न एक रह गये हैं

न ही दो।

हम दोनों

एक-एक हो गये हैं।

 

अपनी ही प्रतिच्‍छाया को नकारते हैं हम

अपनी छाया को अक्‍सर नकार जाते हैं हम।

कभी ध्‍यान से देखें

तो बहुत कुछ कह जाती है।

डरते हैं हम अपने अकेलेपन से।

किन्‍तु साथ-साथ चलते-चलते

न जाने क्‍या-क्‍या बता जाती है।

अपनी अन्‍तरात्‍मा को तो

बहुत पुकारते हैं हम,

किन्‍तु अपनी ही प्रतिच्‍छाया को

नकारते हैं हम।

नि:शब्‍द साथ-साथ चलते,

बहुत कुछ समझा जाती है।

हम अक्‍सर समझ नहीं पाते,

किन्‍तु अपने आकार में छाया

बहुत कुछ बोल जाती है।

कदम-दर-कदम,

कभी आगे कभी पीछे,

जीवन के सब मोड़ समझाती है।

छोटी-बड़ी होती हुई ,

दिन-रात, प्रकाश-तम के साथ,

अपने आपको ढालती जाती है।

जीवन परिवर्तन का नाम है।

कभी सुख तो कभी दुख,

जीवन में आवागमन है।

समस्‍या बस इतनी सी

क‍ि हम अपना ही हाथ

नहीं पकड़ते

ज़माने भर का सहारा ढूंढने निकल पड़ते हैं।

 

न समझना हाथ चलते नहीं हैं

हाथों में मेंहदी लगी,

यह न समझना हाथ चलते नहीं हैं

केवल बेलन ही नहीं

छुरियां और कांटे भी

इन्हीं हाथों से सजते यहीं हैं

नमक-मिर्च लगाना भी आता है

और यदि किसी की दाल न गलती हो,

तो बड़ों-बड़ों की

दाल गलाना भी हमें आता है।

बिना गैस-तीली

आग लगाना भी हमें आता है।

अब आपसे क्या छुपाना

दिल तो बड़ों-बड़ों के जलाये हैं,

और  न जाने

कितने दिलजले तो  आज भी

आगे-पीछे घूम रहे हैं ,

और जलने वाले

आज भी जल रहे हैं।
तड़के की जैसी खुशबू हम रचते हैं,

बड़े-बड़े महारथी

हमारे आगे पानी भरते हैं।

मेंहदी तो इक बहाना है

आज घर का सारा काम

उनसे जो करवाना है।

 

 

कुछ सपने कुछ सच्चे कुछ झूठे

कागज़ की नाव में

जितने सपने थे

सब अपने थे।

छोटे-छोटे थे, पर मन के थे

न डूबने की चिन्ता

न सपनों के टूटने की चिन्ता।

तिरती थी, पलटती थी

टूट-फूट जाती थी, भंवर में अटकती थी।

रूक-रूक जाती थी।

एक जाती थी, एक और आ जाती थी।

पर सपने तो सपने थे,

सब अपने थे।

न टूटते थे न फूटते थे

जीवन की लय यूं ही बहती जाती थी

फिर एक दिन हम बड़े हो गये

सपने भारी-भारी हो गये

अपने ही नहीं, सबके हो गये

पता ही नहीं लगा

वह कागज़ की नाव कहां खो गई

कभी अनायास यूं ही

याद आ जाती है,

तो ढूंढने निकल पड़ते हैं

किन्तु भारी सपने कहां

पीछा छोड़ते हैं,

सपने सिर पर लादे घूम रहे हैं

अब नाव नहीं बनती।

मेरी कागज़ की नाव

न जाने कहां खो गई,

मिल जाये तो लौटा देना

 

प्रेम की नवीन परिभाषा और कृष्ण

कभी सोचा नहीं मैंने

इस तरह तुम्हारे लिए।

ऐसा तो नहीं कि प्रेम-भाव,

श्रृंगार भाव नहीं मेरे मन में।

किन्तु तुम्हारी प्रेम-कथाओं का

युगों-युगों से

इतना पिष्ट-पेषण हुआ

कि भाव ही निष्ठुर हो गये।

स्त्रियां ही नहीं

पुरुष भी राधे-राधे बनकर

तुम्हारे प्रेम में वियोगी हो गये।

निःसंदेह, सौन्दर्य के रूप हो तुम।

तुम्हारी श्याम आभा,

मोर पंख के साथ

मन मोह ले जाती है।

राधा के साथ

तुम्हारा प्रेम, नेह,

यमुना के नील जल में

गोपियों के संग  रास-लीला,

आह ! मन बहक-बहक जाता है।

 

लेकिन, इस युग में

ढूंढती हूं तुम्हारा वह रूप,

अपने-परायों को

जीना सिखलाता था।

प्रेम की एक नवीन परिभाषा पढ़ाता था।

सत्य-असत्य को परिभाषित करता था,

अपराधी को दण्डित करता था,

करता था न्याय, बेधड़क।

चक्र घूमता था उसका,

उसकी एक अंगुली से परिभाषित

होता था यह जगत।

हर युग में रूप बदलकर

प्रेम की नवीन परिभाषा सिखाते थे तुम।

इस काल में कब आओगे,

आंखें बिछाये बैठे हैं हम।

 

 

कहां जानती है ज़िन्दगी

कदम-दर-कदम

बढ़ती है ज़िन्दगी।

कभी आकाश

तो कभी पाताल

नापती है ज़िन्दगी।

पंछी-सा

उड़ान भरता है कभी मन,

तो कभी

रंगीनियों में खेलता है।

कब उठेंगे बवंडर

और कब फंसेंगे भंवर में,

यह बात कहां जानती है ज़िन्दगी।

यूं तो

साहस बहुत रखते हैं

आकाश छूने का

किन्तु नहीं जानते

कब धरा पर

ला बिठा देगी ज़िन्दगी।

 

असम्भव

उस दिन मैंने

एक सुन्दर सी कली देखी।

उसमें जीवन था और ललक थी।

आशा थी,

और जिन्दगी का उल्लास,

यौवन से भरपूर,

पर अद्भुत आश्चर्य,

कि उसके आस पास

कितने ही लोग थे,

जो उसे देख रहे थे।

उनके हाथ लम्बे,

और कद उंचे।

और वह कली,

फिर भी डाली पर

सुरक्षित थी।

 

विज्ञापन

शहर के बीचों बीच,

चौराहे पर,

हनुमान जी की मूर्ति

खड़ी थी।

गदा

ज़मीन पर टिकाये।

दूसरा हाथ

तथास्तु की मुद्रा में।

साथ की दीवार लिखा था,

गुप्त रोगी मिलें,

हर मंगलवार,

बजरंगी औषधालय,

गली संकटमोचन,ऋषिकेश।

 

 

 

नये सिरे से

मां कहती थी

किसी जाते हुए को

पीठ पीछे पुकारना अपशगुन होता है।

और यदि कोई तुम्हें पुकार भी ले

तो अनसुना करके चले जाना,

पलटकर मत देखना, उत्तर मत देना।

लेकिन, मैं क्या करूं इन आवाजों का

जो मेरी पीठ पीछे

मुझे निरन्तर पुकारती हैं,

मैं मुड़कर नहीं देखती

अनसुना कर आगे बढ़ जाती हूं।

तब वे आवाजें

मेरे पीछे दौड़ने लगती हैं,

उनके कदमों की धमक

मुझे डराने लगती है।

मैं और तेज दौडने लगती हूं।

तब वे आवाजें

एक शोर का रूप लेकर

मेरे भीतर तक उतर जाती हैं,

मेरे दिल-दिमाग को झिंझोड़ते हुये।

मैं फिर भी नहीं रूकती।

किन्तु इन आवाजों की गति

मुझसे कहीं तेज है।

वे आकर

मेरी पीठ से टकराने लगती हैं,

भीतर तक गहराती हैं

बेधड़क मेरे शरीर में।

सामने आकर राह रोक लेती हैं मेरा।

पूछने लगती हैं मुझसे

वे सारे प्रश्न,

जिन्हें हल न कर पाई मैं जीवन-भर,

इसीलिए नकारती आई थी उन्हें,

छोड़ आई थी कहीं अनुत्तरित।

जीवन के इस मोड़ पर ,

अब क्या करूंगी इनका समाधान,

और क्या उपलब्धि प्राप्त कर लूंगी,

पूछती हूं अपने-आपसे ही।

किन्तु इन आवाजों को

मेरा यह पलायन का स्वर भाता नहीं।

अंधायुग में कृष्ण ने कहा था

“समय अब भी है, अब भी समय है

हर क्षण इतिहास बदलने का क्षण होता है”।

किन्तु

उस महाभारत में तो

कुरूक्षेत्र के रणक्षेत्र में

अट्ठारह अक्षौहिणी सेना थी।

 

और यहां अकेली मैं।

मेरे भीतर ही हैं सब कौरव-पांडव,

सारे चक्र-कुचक्र और चक्रव्यूह,

अट्ठारह दिन का युद्ध,

अकेली ही लड़ रही हूं।

 

तो क्या मुझे

मां की सीख को अनसुना कर,

पीछे मुड़कर

इन आवाजों को,

फिर से,

नये सिरे से भोगना होगा,

अपने जीवन का वह हर पल,

जिससे भाग रही थी मैं

जिन्हें मैंने इतिहास की वस्तु समझकर

अपने जीवन का गुमशुदा हिस्सा मान लिया था।

मां ! तू अब है नहीं

कौन बतायेगा मुझे !!!

 

ज़िन्दगी क्यों हारती है

अपने मन के भावों को

परखने के लिए

हम औरों की नज़र

मांगते हैं,

इसीलिए

ज़िन्दगी हारती है।

 

दीवारें एक नाम है पूरे जीवन का

दीवारें

एक नाम है

पूरे जीवन का ।

हमारे साथ

जीती हैं पूरा जीवन।

सुख-दुख, अपना-पराया

हंसी-खुशी या आंसू,

सब सहेजती रहती हैं

ये दीवारें।

सब सुनती हैं,

देखती हैं, सहती हैं,

पर कहती नहीं किसी से।

कुछ अर्थहीन रेखाएं

अंगुलियों से उकेरती हूं

इन दीवारों पर।

पर दीवारें

समझती हैं मेरे भाव,

मिट्टी दरकने लगती है।

कभी गीली तो कभी सूखी।

दरकती मिट्टी के साथ

कुछ आकृतियां

रूप लेने लगती हैं।

समझाती हैं मुझे,

सहलाती हैं मेरा सर,

बहते आंसुओं को सोख लेती हैं।

कभी कुछ निशान रह जाते हैं,

लोग समझते हैं,

कोई कलाकृति है मेरी।

 

गीत मधुर हम गायेंगे

गीत मधुर हम गायेंगे 

गई थी मैं दाना लाने

क्यों बैठी है मुख को ताने।

दो चींटी, दो पतंगे,

तितली तीन लाई हूं।

अच्छे से खाकर

फिर तुझको उड़ना

सिखलाउंगी।

पानी पीकर

फिर सो जाना,

इधर-उधर नहीं है जाना।

आंधी-बारिश आती है,

सब उजाड़ ले जाती है।

नीड़ से बाहर नहीं है आना।

मैं अम्मां के घर लेकर जाउंगी।

देती है वो चावल-रोटी

कभी-कभी देर तक सोती।

कई दिन से देखा न उसको,

द्वार उसका खटखटाउंगी,

हाल-चाल पूछकर उसका

जल्दी ही लौटकर आउंगी।

फिर मिलकर खिचड़ी खायेंगे,

गीत मधुर हम गायेंगे।

    

 

 

ये चिड़िया

मां मुझको बतलाना

ये चिड़िया

क्या स्कूल नहीं जाती ?

सारा दिन  बैठी-बैठी,

दाना खाती, पानी पीती,

चीं-चीं करती शोर मचाती।

क्या इसकी टीचर

इसको नहीं डराती।

इसकी मम्मी कहां जाती ,

होमवर्क नहीं करवाती।

सारा दिन गाना गाती,

जब देखो तब उड़ती फिरती।

कब पढ़ती है,

कब लिखती है,

कब करती है पाठ याद

इसको क्यों नहीं कुछ भी कहती।

 

अपने-आप से मिलना

 

मन के भीतर

एक संसार है

जो केवल मेरा है।

उससे मिलने के लिए

मुझे

अपने-आप से मिलना होता है

बुरा मत मानना

तुमसे विलग होना होता है।

 

एक नाम और एक रूप हो

एक नाम और एक रूप हो

मन्दिर-मन्दिर घूम रही मैं।

भगवानों को ढूंढ रही मैं।

इसको, उसको, पूछ रही मैं।

कहां-कहां नहीं घूम रही मैं।

तू पालक, तू जगत-नियन्ता

तेरा राज्य ढूंढ रही मैं।

तू ही कर्ता, तू ही नियामक,

उलट-फेर न समझ रही मैं।

नामों की सूची है लम्बी,

किसको पूछूं, किसको पकड़ूं

दिन-भर कितना सोच रही मैं।

रूप हैं इतने, भाव हैं इतने,

किसको पूजूं, परख रही मैं।

सुनती हूं मैं, तू सुनता सबकी,

मेरी भी इक ले सुन,

एक नाम और एक रूप हो,

सबके मन में एक भाव हो,

दुनिया सारी तुझको पूजे,

न हो झगड़ा, न हो दंगा,

अपनी छोटी बुद्धि से

बस इतना ही सोच रही मैं।

 

 

दुनिया मेरी मुट्ठी में

बहुत बड़ा है जगत,

फिर भी कुछ सीढ़ियां चढ़कर

एक गुरूर में

अक्सर कह बैठते हैं हम

दुनिया मेरी मुट्ठी में।

सम्बन्ध रिस रहे हैं,

भाव बिखर रहे हैं,

सांसे थम रही हैं,

दूरियां बढ़ रही हैं।

अक्सर विपदाओं में

साथ खड़े होते हैं,

किन्तु यहां सब मुंह फेर पड़े हैं।

सच कहें तो लगता है,

न तेरे वश में, न मेरे वश में,

समझ से बाहर की बात हो गई है।

समय पर चेतते नहीं।

अब हाथ जोड़ें,

या प्रार्थनाएं करें,

बस देखते रहने भर की बात हो गई है।

एक किरण लेकर चला हूँ

रोशनियों को चुराकर चला हूँ,

सिर पर उठाकर चला हूँ

जब जहां अवसर मिलेगा

रोश्नियां बिखेरने का

वादा करके चला हूँ

अंधेरों की आदत बनने लगी है,

उनसे दो-दो हाथ करने चला हूँ

जानता हूं, है कठिन मार्ग

पर अकेल ही अकेले चला हूँ

दूर-दूर तक

न राहें हैं, न आसमां, न जमीं,

सब तलाशने चला हूं।

ठोकरों की तो आदत हो गई है,

राहों को समतल बनाने चला हूँ

कोई तो मिलेगा राहों में,

जो संग-संग चलेगा,

साथ उम्मीद की, हौंसलों की भी

एक किरण लेकर चला हूँ

ताउते एवं यास तूफ़ान के दृष्टिगत रचना

अपनी सीमाओं का

अतिक्रमण करते हुए

लहरें आज शहरों में प्रवेश कर गईं।

उठते बवंडर ने

सागर में कश्तियों से

अपनी नाराज़गी जताई।

हवाओं की गति ने

सब उलट-पलट दिया।

घटाएं यूं घिरीं, बरस रहीं

मानों कोई आतप दिया।

प्रकृति के सौन्दर्य से

मोहित इंसान

इस रौद्र रूप के सामने

बौना दिखाई दिया।

 

प्रकृति संकेत देती है,

आदेश देती है, निर्देश देती है।

अक्सर

सम्हलने का समय भी देती है।

किन्तु हम

सदा की तरह

आग लगने पर

कुंआ खोदने निकलते हैं।

दादाजी से  गुड़िया बोली

दादाजी से  गुड़िया बोली,

स्कूल चलो न, स्कूल चलो न।

दादाजी को गुड़िया बोली

मेरे संग पढ़ो न, मेरे संग पढ़ो न।

मां हंस हंस होती लोट-पोट,

भैया देखे मुझको।

दादाजी बोले,

स्कूल चलूंगा, स्कूल चलूंगा।

मुझको एक ड्र्ैस सिलवा दे न।

सुन्दर सा बस्ता,

काॅपी-पैन ला दे न।

अपनी क्लास में

मेरा नाम लिखवा दे न।

तू मुझको ए बी सी सिखलाना,

मैं तुझको अ आ इ ई सिखलाउंगा।

मेरी काम करेगी तू,

मैं तुझको टाॅफ़ी दिलवाउंगा।

मेरी रोटी भी बंधवा लेना

नहीं तो मैं तेरी खा जाउंगा।

गुड़िया बोली,

न न न न, दादाजी,

मैं अपनी रोटी न दूंगी,

आप अभी बहुत छोटे हैं,

थोड़े बड़े हो जाओ न।

अभी तो तुम

मेरे घोड़े ही बन जाओ न।

नया सूर्य उदित होगा ही

 

आजकल रोशनियां

डराने लगी हैं,

अंधेरे गहराने लगे हैं।

विपदाओं की कड़ी

लम्बी हो रही है।

इंसान से इंसान

डरने लगा है।

ख़ौफ़ भीतर तक

पसरने लगा है।

राहें पथरीली होने लगी हैं,

पहचान मिटने लगी है।

ज़िन्दगी

बेनाम दिखने लगी है।

 

पर कब चला है इस तरह जीवन।

कब तक चलेगा इस तरह जीवन।

 

जानते हैं हम,

बादल घिरते हैं

तो बरस कर छंटते भी हैं।

बिजली चमकती है

तो रोशनी भी देती है।

 

अंधेरों को

परखने का समय आ गया है।

ख़ौफ़ के साये को

तोड़ने का समय आ गया है।

जीवन बस डर से नहीं चलता,

आशाओं को फिर से

सहेजने का समय आ गया है।

नया सूर्य उदित होने को है,

हाथ बढ़ाओ ज़रा,

हाथ से हाथ मिलाओ ज़रा,

सबको अपना बनाने का

समय आ गया है।

नया सूर्य उदित होगा ही,

अपने लिए तो सब जीते हैं,

औरों के दुख को

अपना बनाने का समय आ गया है।

सब ठीक है

ये आकाश

आज छोटा कैसे हो गया।

तारों का झुरमुट

क्यों आज द्युतिहीन हो गया।

चंदा की चांदना

धूमिल-सी दिखती है,

सूरज आज कैसे

थका-थका-सा हो गया।

.

शायद सब ठीक है,

मेरा ही मन व्यथित है।

 

खुशियों की कोई उम्र नहीं होती

उम्र का तकाज़ा मत देना मुझे,

कि जी चुके अपनी ज़िन्दगी,

अब भगवान-भजन के दिन हैं।

 

जीते तो हैं हम,

पर वास्तव में

ज़िन्दगी शुरु कब होती है,

कहां समझ पाते हैं हम।

कर्म किये जा, कर्म किये जा,

बस कर्म किये जा।

जीवन के आनन्द, खुशियों को

एक झोले में समेटते रहते हैं,

जब समय मिलेगा

भोग लेंगे।

और किसी खूंटी पर टांग कर

अक्सर भूल जाते हैं।

और जब-जब झोले को

पलटना चाहते हैं,

पता लगता है,

खुशियों की भी

एक्सपायरी डेट होती है।

 

या फिर,

फिर कर्मों की सूची

और उम्र का तकाज़ा मिलता है।

 

पर खुशियों की कोई उम्र

 नहीं होती,

बस जीने का सलीका आना चाहिए।

 

मौत की दस्तक

कितनी

सरल-सहज लगती थी ज़िन्दगी।

खुली हवाओं में सांस लेते,

जैसी भी मिली है

जी रहे थे ज़िन्दगी।

कभी ठहरी-सी,

कभी मदमाती, हंसाती,

छूकर, मस्ती में बहती,

कभी रुलाती,

हवाओं संग

लहराती, गाती, मुस्काती।

.

पर इधर

सांसें थमने लगी हैं।

हवाओं की

कीमत लगने लगी है।

आज हवाओं ने

सांसों की कीमत बताई है।

जिन्दगी पर

पहरा बैठा दिया है हवाओं ने।

मौत की दस्तक सुनाने लगी हैं।

रुकती हैं सांसें, बिंधती हैं सांसें,

कीमत मांगती हैं सांसें।

अपनों की सांसें  चलाने के लिए

हवाओं से जूझ रहे हैं अपने।

.

शायद हम ही

बदलती हवाओं का रुख

पहचान नहीं पाये,

इसीलिए हवाएं

आज

हमारी परीक्षा ले रही हैं।

 

युग प्रदर्शन का है

मैं आज तक

समझ नहीं पाई

कि मोर शहर में

क्यों नहीं नाचते।

जंगल में नाचते हैं

जहां कोई देखता नहीं।

 

सुना है

मोरनी को लुभाने के लिए

नृत्य करते हो तुम।

बादल-वर्षा की आहट से

इंसान का मन-मयूर नाच उठता है,

तो तुम्हारी तो बात ही क्या।

तुम्हारी पायल से मुग्ध यह संसार

वन-वन ढूंढता है तुम्हें।

अद्भुत सौन्दर्य का रूप हो तुम।

रंगों की निराली छटा

मनमोहक रूप हो तुम।

पर कहां

जंगल में छिपे बैठे तुम।

कृष्ण अपने मुकुट में

पंख तुम्हारा सजाये बैठे हैं,

और तुम वहां वन में

अपना सौन्दर्य छिपाये बैठे हो।

 

युग प्रदर्शन का है,

दिखावे और चढ़ावे का है,

काक और उलूव

मंचों पर कूकते हैं यहां,

गर्धभ और सियार

शहरों में घूमते हैं यहां।

मांग बड़ी है।

एक बार तो आओ,

एक सिंहासन तुम्हें भी

दिलवा देंगे।

राष्ट््र पक्षी तो हो

दो-चार पद और दिलवा देंगे।

 

बस जूझना पड़ता है

मछलियां गहरे पानी में मिलती हैं

किसी मछुआरे से पूछना।

माणिक-मोती पाने के लिए भी

गहरे सागर में

उतरना पड़ता है,

किसी ज्ञानी से बूझना।

किश्तियां भी

मझधार में ही डूबती हैं

किसी नाविक से पूछना।

तल-अतल की गहराईयों में

छिपा है ज्ञान का अपरिमित भंडार,

किसी वेद-ध्यानी से पूछना।

पाताल लोक से

चंद्र-मणि पाने के लिए

कौन-सी राह जाती है,

किसी अध्यवसायी से पूछना।

.

उपलब्धियों को पाने के लिए

गहरे पानी में 

उतरना ही पड़ता है।

जूझना पड़ता है,

सागर की लहरों से,

सहना पड़ता है

मझधार के वेग को,

और आकाश से पाताल

तक का सफ़र तय करना पड़ता है।

और इन कोशिशों के बीच

जीवन में विष मिलेगा

या अमृत,

यह कोई नहीं जानता।

बस जूझना पड़ता है।

 

खामोशी बोलती है

शोर को चीरकर एक खामोशी बोलती है।

मन आहत, घुटता है, भावों को तोलती है।

चुप्पी में शब्दों की आहट गहरी होती है,

पकड़ सको तो मन के सारे घाव खोलती है।

आस जीवन की

रात गई, प्रात आई, लालिमा झिलमिल,

आते होंगे संगी-साथी, उड़ेंगे हिलमिल,

डाली पर फूल खिलेंगे, आस जीवन की,

तान छेड़ेंगे, राग नये गायेंगे, घुलमिल।

जीवन की यह भागम-भागी

सांझ है या सुबह की लाली, जीवन की यह भागम-भागी।

चलते जाना, कहां ठिकाना, कौन समझे कैसी पीर लागी।

रेतीली धरती पर पैर जमे हैं, रोज़ ठिकाना बदल रहा,

घन घिरते, अब बरसेंगे, कब बरसेंगे, चलते रहना रागी।

सब साथ चलें बात बने

भवन ढह गये, खंडहर देखो अभी भी खड़ा है।

लड़खड़ाते कदमों से कौन पर्वत तक चढ़ा है।

जीवन यूं चलता है, सब साथ चलें, बात बने,

कठिन समय सहायक बनें, इंसान वही बड़ा है।

समझाने की बात नहीं

आजकल न जाने क्यों

यूं ही 

आंख में पानी भर आता है।

कहीं कुछ रिसता है,

जो न दिखता है,

न मन टिकता है।

कहीं कुछ जैसे

छूटता जा रहा है पीछे कहीं।

कुछ दूरियों का एहसास,

कुछ शब्दों का अभाव।

न कोई चोट, न घाव।

जैसे मिट्टी दरकने लगी है।

नींव सरकने लगी है।

कहां कमी रह गई,

कहां नमी रह गई।

कई कुछ बदल गया।

सब अपना,

अब पराया-सा लगता है।

समझाने की बात नहीं,

जब भीतर ही भीतर

कुछ टूटता है,

जो न सिमटता है

न दिखता है,

बस यूं ही बिखरता है।

एक एहसास है

न शब्द हैं, न अर्थ, न ध्वनि।