सागर की गहराईयों सा मन
सागर की गहराईयों सा मन।
सागर के सीने में
अनगिन मणि-रत्नम्
कौन ढूंढ पाया है आज तलक।
.
मन में रहते भाव-संगम
उलझे-उलझे, बिखरे-बिखरे,
कौन समझ पाया है
आज तलक।
.
लहरें आती हैं जाती हैं,
हिचकोले लेती नाव।
जग-जगत् में
मन भागम-भाग किया करता है,
कहां मिलता आराम।
.
खुले नयनों पर वश है अपना,
देखें या न देखें।
पर बन्द नयन
न जाने क्या-क्या दिखला जाते हैं,
अनजाने-अनचाहे भाव सुना जाते हैं,
जिनसे बचना चाहें,
वे सब रूप दिखा जाते हैं।
अगला-पिछला, अच्छा-बुरा
सब हाल बता जाते हैं,
अनचाहे मोड़ों पर खड़ा कर
कभी हंसी देकर,
तो कभी रूलाकर चले जाते हैं।
मैमोरैण्डम
हर डायरी के
प्रारम्भ और अन्त में
जड़े कुछ पृष्ठ पर
जिन पर लिखा होता है
‘मैमोरैण्डम’ अर्थात् स्मरणीय।
मैमोरी के लिए
स्मरण रखने के लिए है क्या ?
वे बीते क्षण
जो बीतकर
या तो बीत गये हैं
या बीतकर भी
अनबीते रह गये हैं।
अथवा वे आने वाले क्षण
जो या तो आये ही नहीं
या बिना आये ही चले गये हैं।
बीत गये क्षण: एक व्यर्थता -
बडे़-बड़े विद्वानों ने कहा है
भूत को मत देखो
भविष्य में जिओ।
भविष्य: एक अनबूझ पहेली
उपदेश मिलता है
आने वाले कल की
चिन्ता क्यों करते हो
आज को तो जी लो।
और आज !
आज तो आज है
उसे क्या याद करें।
तो फिर मैमोरैण्डम फाड़ डालें।
गगन पर बिखरी रंगीनिया
सूरज की किरणें देखो नित नया कुछ लाती है
भोर की आभा देखो नित नये रूप सजाती है
पत्ते-पत्ते पर खेल रही ओस की बूंदे झिलमिल
गगन पर बिखरी रंगीनिया देखो नित लुभाती है।
सरकारी कुर्सी
आज मैं
कुर्सी लेने बाज़ार गई।
विक्रेता से कुर्सी दिखाने के लिए कहा।
वह बोला,
कैसी कुर्सी चाहिए आपको ?
मेरा सीधा-सा उत्तर था ।
सुविधाजनक,
जिस पर बैठकर काम किया जा सके
जैसी कि सरकारी कार्यालयों में होती है।
उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कुराहट आ गई
तो ऐसे बोलिए न मैडम
आप घर में सरकारी कुर्सी जैसी
कुर्सी चाहती है।
लगता है किसी सरकारी दफ़्तर से
सेवानिवृत्त होकर आई हैं
कन्यादान -परम्परा या रूढ़ि
न तो मैं कोई वस्तु थी
न ही अन्न वस्त्र,
और न ही
घर के किसी कोने में पड़ा
कोई अवांछित, उपेक्षित पात्र
तो फिर हे पिता !
दान क्यों किया तुमने मेरा ?
धर्म, संस्कृति, परम्परा, रीति रिवाज़
सब बदल लिए तुमने अपने हित में।
किन्तु मेरे नाम पर
युगों युगों की परम्परा निभाते रहे हो तुम।
मुझे व्यक्तित्व से वस्तु बनाते रहे हो तुम।
दान करके
सभी दायित्वों से मुक्ति पाते रहे थे तुम।
और इस तरह, मुझे
किसी की निजी सम्पत्ति बनाते रहे तुम।
मेरे नाम से पुण्य कमाते रहे थे तुम ।
अपने लिए स्वर्गारोहण का मार्ग बनाते रहे तुम।
तभी तो मेरे लिए पहले से ही
सृजित कर लिये कुछ मुहावरे
“इस घर से डोली उठेगी उस घर से अर्थी”।
पढ़ा है पुस्तकों में मैंने
बड़े वीर हुआ करते थे हमारे पूर्वज
बड़े बड़े युद्ध जीते उन्होंनें
बस बेटियों की ही रक्षा नहीं कर पाते थे।
जौहर करना पड़ता था उन्हें
और तुम उनके उत्तराधिकारी।
युग बदल गये, तुम बदल गये
लेकिन नहीं बदला तो बस
मुझे देखने का तुम्हारा नज़रिया।
कभी बेटी मानकर तो देखो,
मुझे पहचानकर तो देखो।
खुला आकाश दो, स्वाधीनता का भास दो।
अपनेपन का एहसास दो,
विश्वास का आभास दो।
अधिकार का सन्मार्ग दो,
कर्त्तव्य का भार दो ।
सौंपों मत किसी को।
किसी का मेरे हाथ में हाथ दो,
जीवन भर का साथ दो।
अपनेपन का भान दो।
बस थोड़ा सा मान दो
बस दान मत दो। दान मत दो।
एकान्त के स्वर
मन के भाव रेखाओं में ढलते हैं।
कलश को नेह-नीर से भरते हैं।
रंगों में जीवन की गति रहती है,
एकान्त के स्वर गीत मधुर रचते हैं।
कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल
कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल बना रहे हैं राजाजी
हरदम केतली चढ़ा अपनी वीरता दिखा रहे हैं राजाजी
पानी खौल गया, आग बुझी, कभी भड़क गई देखो ज़रा
फीकी, बासी चाय पिला-पिलाकर बहका रहे हैं राजाजी
कोविड वातावरण के कारण अस्त-व्यस्त मन की बातें
आजकल कुछ लिखने के लिए मन करता है पर लिखना हो नहीं पाता। क्यों? पता नहीं। वैसे भी मैं जल्दी कुछ लिख नहीं पाती और लेखन में भटकाव आ जाता है। इस समय भी कुछ विचार एक साथ उलझे पड़े हैं जैसे कोरोना, विस्थापित होते मज़दूर, हमारी चिकित्सीय व्यवस्थाएं, वेतन एवं वसूली, धार्मिक स्थल, मदिरालय एवं हमारे समाचार वाहक।
इस कारण एक अटपटा, उलझा-सा आलेख।
एक ओर तो कोरोना से घर में बैठे हैं, टी. वी. पर चलने वाले समाचार, समाचार कम, एक तीसरी श्रेणी का धारावाहिक अधिक प्रतीत होते हैं। वास्तविकता से हम कोसों दूर हैं। अब समाचार पत्र भी मिलने लगे हैं क्योंकि हम रैड ज़ोन से औरेंज ज़ोन में प्रवेश कर गये हैं।
विस्थापित मज़दूरों को पैदल चलते, जिनमें बच्चे, वृद्ध, रोगी सब हैं, सिर पर सामान उठाये, देखकर ही मन भयाक्रातं है। एक सरकार कहती है हम भेज रहे हैं, दूसरी कहती है हमारे पास इनको रखने के लिए जगह नहीं है। किसकी गलती है, कौन क्या कर रहा है, सब उलझा पड़़ा है। कल किसके साथ क्या होगा, पता नहीं। जो कल तक दैनिक मजदूर थे, परिश्रमी थे, आज भिक्षुक बनकर रह गये।
क्या करते थे ये सब। कहां रहते थे, अचानक सड़क पर आ गये, छतविहीन, भोजन रहित। दो-चार नहीं , लाखों की संख्या में। अनेक शहरों में , अनेक राज्यों में। कोई इनकी यूनियन तो थी नहीं कि पूरे देश में वाट्सएप किया और निकल लिए। जिस राज्य में रह रहे थे वहां न छत मिल रही थी न भोजन। जहां भी कार्य कर रहे थे, सब बन्द हो गये। रोज़गार जाने के साथ ही निवास भी चले गये और भोजन की व्यवस्था भी। अब क्या करें? जहां जाना चाहते थे, मार्ग नहीं था, सुविधा नहीं थी, धन नहीं था, व्यवस्था नहीं थी। किन्तु रहें कहां। जब कुछ नहीं मिला तो पैदल ही चल दिये, किसी ने राह में भोजन दे दिया तो ठीक, नहीं तो चले जा रहे हैं मुंह पर कपड़ा लपेटे। सड़कों पर भटक रहे हैं, पुलिस रोक रही है, मत जाओ, लेकिन कहां रहें ये तो वह भी नहीं बता सकती। केवल रास्ते खाली करवा सकती है। किसी की समझ ने यह काम किया कि गाड़ी जिस राह जाती है वही राह वे पैदल चलेंगें तो अपने घर पहुंच जायेंगे, चल दिये रेल लाईन पर पैदल। ज़िन्दगी और मौत के बीच एक रेल लाईन भी होती है, किसे पता था।
ये वे श्रमिक हैं जो वर्षों से अथवा जन्म से ही इस देश के लिए काम कर रहे हैं, छोटे-छोटे कार्यों से लेकर बड़े कामों तक। इनके काम का कोई नाम नहीं है, श्रम का कोई मूल्य नहीं है, कोई महत्व नहीं है, किन्तु इनके श्रम के बिना देश की अर्थव्यवस्था भी नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था में इनका कितना प्रतिशत योगदान है कभी किसी अर्थशास्त्री ने गणना की, मुझे नहीं पता।
वे छात्र किस श्रेणी के थे जिन्हें ए सी बसों में भेजा गया, निश्चित रूप से किसी श्रमिक के बच्चे तो रहे नहीं होंगे, नहीं तो वे भी पैदल ही जाते रेल-लाईन पर।
हां, अब मुझे यह पता लगा कि हमारे देश में जन्म लेकर यहां से पढ़लिखकर लोग विदेश जा बसे, वहां अपने श्रम का योगदान देने लगे, उनकी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने लगे। अपने देश का अमूल्य धन विदेशों में लगाने लगे। पता नहीं कितने वर्षोे से। किन्तु इस समय उन्हें अपने देश की याद आई और वे लौटना चाहते हैं।
उनके लिए विमान सजे, तीन-तारा और पंचतारा होटलों में उनके एकान्तवास की व्यवस्था हो रही है। सरकारी ए सी बसों से उन्हें पहुंचाया जा रहा है।
और देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रेलवे लाईन पर सो रही है, पैदल चल रही है, एक सरकार कहती है जाना है तो जाओ, दूसरी कहती है मत आओ, तुम्हारे लिए हमारे पास जगह नहीं है।
आज हम अपने-आपको घर के भीतर राशन जमाकर सुरक्षित अनुभव कर रहे हैं। किन्तु कल क्या होगा, पता नहीं।
बात तो पुरानी हो गई किन्तु लिखने का मन आज बना तो क्या करेे, अब बासी रोटी ही सही, कुछ न कुछ पेट तो भरेगा ही।
कुछ चैनल चार-पांच लोगों को, जिन्हें वे बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक, राजनीतिज्ञ, समाजसेवी , धार्मिक नेता आदि-आदि कहते हैं, उनके बीच शब्द-युद्ध में मग्न समय काट रहे हैं। इस धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म की कितनी महत्ता है, यह टीवी पर प्रसारित होने वाले वाक्-युद्ध से हम समझ सकते हैं।
कहीं भी समाचारों से ज्ञात नहीं हो पा रहा कि लाखों की फ़ीस लेने वाले निजी अस्पताल इस विकराल समस्या में अपना क्या योगदान दे रहे हैं। ज़रूर दे रहे होंगे, किन्तु जानकारी नहीं मिली। समाचारों में एक भी बार नहीं सुना कि फौर्टीज़, मैक्स, एल-कैमिस्ट जैसे बड़े-बड़े निजी अस्पताल इस समय क्या कर रहे हैं। गली-गली में बैठे निजी चिकित्सालय खोले एक विज़िट के 500 से 1000 तक की फ़ीस लेने वाले चिकित्सक इस समय कहां हैं? उलझी पड़ी हूं मैं।
उधर सुनने में आया है कि पड़ोसी देश सीमा पर गोलीबारी कर रहा है और हमारे पांच सैनिक शहीद हुए हैं। उनकी शहादत की कथा हम पिछले कई दिन से टी. वी. पर देख रहे हैं। समाचार पत्रों में भी कई पृष्ठ उन्हें ही समर्पित हैं। किन्तु उससे ही अगले दिन बार्डर सिक्योरिटी फ़ोर्स के तीन जवान शहीद हुए उनके बारे में बस इतना ही समाचार मिला। समाचार पत्र में भी एक ही पंक्ति। क्या कैटेगरी अलग होने से शहादत का भाव भी बदल जाता है?
आजकल हम बहुत धार्मिक हो रहे हैं। वैसे तो सदा से ही हैं किन्तु इधर परेशानी बढ़ गई है।
धार्मिक स्थल, मन्दिर तो नहीं खुले, मदिरालय खोल दिये गये।
कपाट खोलने ज़रूरी हो गये हैं। अब यह सरकार की मर्ज़ी कि कौन से कपाट खोले। कौन से कपाट खोलने पर सरकार की तिज़ोरी सीधे-सीधे भरेगी, यह सरकार ही समझती है, मेरी आपकी समझ ऐसी कहां।मदिरालय खोलने का निर्णय सरकार का गलत हो सकता है किन्तु मन्दिर खोलने से क्या हो जायेगा मैं यह नहीं समझ पा रही हूं, ऐसे विषयों पर मंद बुद्धि हूं।
क्या किसी ने मांग की थी कि मदिरालय खोले जायें? शायद नहीं ! सरकार की राजस्व की आवश्यकता थी। कोरोना के नाम पर अरबों-खरबों से सरकार की तिजोरी भरी, कितनी, नहीं पता।
किन्तु मदिरा आम आदमी की कितनी आवश्यकता है यह ठेकों के सामने लगी दो-दो किलोमीटर लम्बी लाईन से पता लगा। ओले-बारिश में भी लोग जमे रहे।
मदिरा ठेकों पर बोतलों में मिलती है, हर प्रकार की, जहां से खरीद कर आप उसे घर ले जा सकते हैं। ठेके रात 12 और 2 बजे तक खुले रहते हैं। साथ आहाते होते हैं जहां आप बैठकर पी भी सकते हैं और खा भी सकते हैं। इसके बाद अनेक होटल, रैस्टोरैंट, पब में भी मिलती है, जिसे आपको वहीं खरीद कर, वहीं बैठकर पीना होता है, आप घर नहीं ला सकते, जहां उसका मूल्य कई गुणा बढ़़ जाता है। इसकी होम डिलीवरी भी नहीं है। किसी माॅल में, बिग बाज़ार में अथवा जनरल आपूर्ति की दुकानों पर भी नहीं मिलेगी। लेकिन क्यों, इसी बात को समझने का प्रयास कर रही थी।
मदिरालय के ठेके करोड़ों-करोड़ों में बिकते हैं, बोली लगती है।
यदि मदिरा एवं धूम्रपान सरकार की एवं आम आदमी की इतनी बड़ी आवश्यकता है तो खुले आम क्यों नहीं।
हमारे देश में मदिरा एवं धूम्रपान को लेकर एक अलग-सा दृष्टिकोण है। पीने वालों को बुरा समझा जाता है। मान लिया जाता है कि इनका चरित्र 50 प्रतिशत तो गिरा हुआ ही होगा, परिवार के प्रति आर्थिक अपराधी हैं, अथवा ये बहुत बड़े आदमी हैं। महिलाओं के लिए तो बात करना भी अपराध है। सरकार का कौन सा दृष्टिकोण है समझ से बाहर है। मतलब यह कि जिसने पीनी है, उसके लिए सरकार प्रबन्ध करके ही रहेगी, तो छिपना-छिपाना क्यों, खुलकर पिलाईये, बेचिए, बांटिए।
बस इतना है कि हमारे फ़ेसबुकीय कवियों को एक और नया विषय मिल चुका है] मन्दिर या मदिरालय] वाह ! बढ़िया तुकबन्दी बन गई।।
मैं भी प्रयासरत हूं इस विषय पर एक अच्छी कविता के लिए
घाट-घाट का पानी
शहर में
चूहे बिल्लियों को सुला रहे हैं
कानों में लोरी सुना रहे हैं।
उधर जंगल में गीदड़ दहाड़ रहे हैं।
शेर-चीते पिंजरों में बन्द
हमारा मन बहला रहे हैं।
पढ़ाते थे हमें
शेर-बकरी
कभी एक घाट पानी नहीं पीते,
पर आज
एक ही मंच पर
सब अपनी-अपनी बीन बजा रहे हैं।
यह भी पता नहीं लगता
कब कौन सो जायेगा]
और कौन लोरी सुनाएगा।
अब जहां देखो
दोस्ती के नाम पर
नये -नये नज़ारे दिखा रहे हैं।
कल तक जो खोदते थे कुंए
आज साथ--साथ
घाट-घाट का
पानी पीते नज़र आ रहे हैं।
बच कर चलना ऐसी मित्रता से
इधर बातों ही बातों में
हमारे भी कान काटे जा रहे हैं।
दो घूंट
छोड़ के देख
एक बार
बस एक बार
दो घूंट
छोड़ के देख
दो घूंट का लालच।
शाम ढले घर लौट
पर छोड़ के
दो घूंट का लालच।
फिर देख,
पहली बार देख
महकते हैं
तेरी बगिया में फूल।
पर एक बार
बस एक बार
छोड़ के देख
दो घूंट का लालच।
देख
फिर देख
जिन्दगी उदास है।
द्वार पर टिकी
एक मूरत।
निहारती है
सूनी सड़क।
रोज़
दो आंखें पीती हैं।
जिन्हें, देख नहीं पाता तू।
क्योंकि
पी के आता है
तू
दो घूंट।
डरते हैं,
रोते भी हैं
फूल।
और सहमकर
बेमौसम ही
मुरझा भी जाते हैं ये फूल।
कैसे जान पायेगा तू ये सब
पी के जो लौटता है
दो घूंट।
एक बार, बस एक बार
छोड़ के देख दो घूंट।
चेहरे पर उतर आयेगी
सुबह की सुहानी धूप।
बस उसी रोज़, बस उसी रोज़
जान पायेगा
कि महकते ही नहीं
चहकते भी हैं फूल।
जिन्दगी सुहानी है
हाथ की तेरे बात है
बस छोड़ दे, बस छोड़ दे
दो घूंट।
बस एक बार, छोड़ के देख
दो घूंट का लालच ।
ये दो दिन
कहते हैं
दुनिया
दो दिन का मेला,
कहाँ लगा
कबसे लगा,
मिला नहीं।
-
वैसे भी
69 वर्ष हो गये
ये दो दिन
बीत ही नहीं रहे।
निर्दोष
तुमने,
मुझसे उम्मीदें की।
मैंने,
तुम्हारे लिए
उम्मीदों के बीज बोये।
फिर, उन पर
डाल दिया पानी।
अब,
बीज नहीं उगे,
तो, मेरा दोष कहां !
-
हंसी जिन्दगी जीने की बात करते हैं
न सोचते हैं न समझते हैं, बस बवाल करते हैं
न पूछते हैं न बताते हैं बस बेहाल बात करते हैं
ज़रा ठहर कर सोच-समझ कर कदम उठायें ‘गर
आईये बैठकर हंसी जिन्दगी जीने की बात करते हैं
गिरगिट की तरह
कितना अच्छा है
कि हम जानते हैं
कि गिरगिट रंग बदलते हैं।
इसलिए रंगों के बीच भी
उसे हम अक्सर पहचान लेते हैं।
आकर्षित करता है
उसका यह रंग बदलना,
क्योंकि प्रकृति से
सामंजस्य का भाव है उसमें।
पर उन लोगों का क्या करें
जो दिखते तो स्याह-सफ़ेद हैं
पर भीतर न जाने
कितने रंगों से सराबोर होते हैं
और अवसरानुकूल रंग बदलते रहते हैं।
और हम भी कहां पीछे हैं
रंगों में रंग बदलने लगे हैं
स्याह को सफ़ेद और
सफ़ेद को स्याह करने में लगे हैं।
काहे तू इठलाय
हाथों में कमान थाम, नयनों से तू तीर चलाय।
हिरणी-सी आंखें तेरी, बिन्दिया तेरी मन भाय।
प्रत्यंचा खींच, देखती इधर है, निशाना किधर है,
नाटक कंपनी की पोशाक पहन काहे तू इठलाय।
वक्त कब कहां मिटा देगा
वक्त कब क्यों बदलेगा कौन जाने
वक्त कब बदला लेगा कौन जाने
संभल संभल कर कदम रखना ज़रा
वक्त कब कहां मिटा देगा कौन जाने
अपने कर्मों पर रख पकड़
चाहे न याद कर किसी को
पर अपने कर्मों से डर
न कर पूजा किसी की
पर अपने कर्मों पर रख पकड़ ।
न आराधना के गीत गा किसी के
बस मन में शुद्ध भाव ला ।
हाथ जोड़ प्रणाम कर
सद्भाव दे,
मन में एक विश्वास
और आस दे।
धुआँ- धुआँ ज़िन्दगी
कुछ चेतावनियों के साथ
बेहिचक बिकता है
कोई भी, कहीं भी
पी ले
सुट्टा ले
हवा ले और हवाओं में ज़हर घोले
पूर्ण स्वतन्त्र हैं हम।
शानौ-शौकत का प्रतीक बन जाता है।
कहीं गम भुलाने के लिए
तो कहीं सर-दर्द मिटाने के लिए
कभी दोस्ती के लिए
तो कभी
देखकर मन ललचाता है
कुछ आधुनिक दिखने की चाहत
खींच ले जाती है
एकान्त में, छिपकर
फिर दिखाकर
और बाद में अकड़कर।
और जब तक समझ आता है
तब तक
धुआँ- धुआँ हो चुकी होती है ज़िन्दगी।
2008 में नयना देवी मन्दिर में हुआ हादसा
नैना देवी में हादसा हुआ। श्रावण मेला था। समाचारों की विश्वसनीयता के अनुसार वहां लगभग बीस हज़ार लोग उपस्थित थे। पहाड़ी स्थान। उबड़-खाबड़, टेढ़े-मेढ़े संकरे रास्ते। सावन का महीना। मूसलाधार बारिष। ऐसी परिस्थितियों में एक हादसा हुआ। क्यों हुआ कोई नहीं जानता। कभी जांच समिति की रिपोर्ट आयेगी तब भी किसी को पता नहीं लगेगा।
किन्तु जैसा कि कहा गया कि शायद कोई अफवाह फैली कि पत्थर खिसक रहे हैं अथवा रेलिंग टूटी। यह भी कहा गया कि कुछ लोगों ने रेंलिंग से मन्दिर की छत पर चढ़ने का प्रयास किया तब यह हादसा हुआ।
किन्तु कारण कोई भी रहा हो, हादसा तो हो ही गया। वैसे भी ऐसी परिस्थ्तिियों मंे हादसों की सम्भावनाएं बनी ही रहती हैं। किन्तु ऐसी ही परिस्थितियों में आम आदमी की क्या भूमिका हो सकती है अथवा होनी चाहिए। जैसा कि कहा गया वहां बीस हज़ार दर्शनार्थी थे। उनके अतिरिक्त स्थानीय निवासी, पंडित-पुजारी; मार्ग में दुकानें-घर एवं भंडारों आदि में भी सैंकड़ों लोग रहे होंगे। बीस हज़ार में से लगभग एक सौ पचास लोग कुचल कर मारे गये और लगभग दो सौ लोग घायल हुए। अर्थात् उसके बाद भी वहां सुरक्षित बच गये लगभग बीस हज़ार लोग थे। किन्तु जैसा कि ऐसी परिस्थितियों में सदैव होता आया है उन हताहत लोगों की व्यवस्था के लिए पुलिस नहीं आई, सरकार ने कुछ नहीं किया, व्यवस्था नहीं थी, चिकित्सा सुविधाएं नहीं थीं, सहायता नहीं मिली, जो भी हुआ बहुत देर से हुआ, पर्याप्त नहीं हुआ, यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ; आदि -इत्यादि शिकायतें समाचार चैनलों, समाचार-पत्रों एवं लोगों ने की।
किन्तु प्रश्न यह है कि हादसा क्यों हुआ और हादसे के बाद की परिस्थितियों के लिए कौन उत्तरदायी है ?
निश्चित रूप से इस हादसे के लिए वहां उपस्थित बीस हज़ार लोग ही उत्तरदायी हैं। यह कोई प्राकृतिक हादसा नहीं था, उन्हीं बीस हज़ार लोगों द्वारा उत्पे्ररित हादसा था यह। लोग मंदिरों में दर्शनों के लिए भक्ति-भाव के साथ जाते हैं। सत्य, ईमानदारी, प्रेम, सेवाभाव का पाठ पढ़ते हैं। ढेर सारे मंत्र, सूक्तियां, चालीसे, श्लोक कंठस्थ होते हैं। किन्तु ऐसी ही परिस्थितियों में सब भूल जाते हैं। ऐसे अवसरों पर सब जल्दी में रहते हैं। कोई भी कतार में, व्यवस्था में बना रहना नहीं चाहता। कतार तोड़कर, पैसे देकर, गलत रास्तों से हम लोग आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं। जहां दो हज़ार का स्थान है वहां हम बीस हज़ार या दो लाख एकत्र हो जाते हैं फिर कहते हैं हादसा हो गया। सरकार की गलती है, पुलिस नहीं थी, व्यवस्था नहीं थी। सड़कें ठीक नहीं थीं। अब सरकार को चाहिए कि नैना देवी जैसे पहाड़ी रास्तों पर राजपथ का निर्माण करवाये। किन्तु इस चर्चा से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि जो 150 लोग मारे गये और दो सौ घायल हुए उन्हें किसने मारा और किसके कारण ये लोग घायल हुए? निश्चय ही वहां उपस्थित बीस हज़ार लोग ही इन सबकी मौत के अपराधी हैं। उपरान्त हादसे के सब लोग एक-दूसरे को रौंदकर घर की ओर जान बचाकर भाग चले। किसी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा कि उन्होंने किसके सिर अथवा पीठ पर पैर रखकर अपनी जान बचाई है। सम्भव है अपने ही माता-पिता, भाई-बहन अथवा किसी अन्य परिचित को रौंदकर ही वे अपने घर सुरक्षित पहुंचे हों। जो गिर गये उन्हें किसी ने नहीं उठाया क्योंकि यह तो सरकार का, पुलिस का, स्वयंसेवकों का कार्य है आम आदमी का नहीं, हमारा-आपका नहीं। हम-आप जो वहां बीस हज़ार की भीड़ के रूप में उपस्थित थे किसी की जान बचाने का, घायल को उठाने का, मरे को मरघट पंहुचाने का हमारा दायित्व नहीं है। हम भीड़ बनकर किसी की जान तो ले सकते हेैं किन्तु किसी की जान नहीं बचा सकते। आग लगा सकते हैं, गाड़ियां जला सकते हैं, हत्या कर सकते हैं, बलात्कार ओैर लूट-पाट कर सकते हैं किन्तु उन व्यवस्थाओं एवं प्रबन्धनों में हाथ नहीं बंटा सकते जहां होम करते हाथ जलते हों। जहां कोई उपलब्धि नहीं हैं वहां कुछ क्यों किया जाये।
भंडारों में लाखों रुपये व्यय करके, देसी घी की रोटियां तो खिला सकते हैं, करोड़ों रुपयों की मूर्तियां-छत्र, सिंहासन दान कर सकते हैं किन्तु ऐसे भीड़ वाले स्थानों पर होने वाली आकस्मिक दुर्घटनाओं से निपटने के लिए आपदा-प्रबन्धन में अपना योगदान देने में हम कतरा जाते हैं। धर्म के नाम पर दान मांगने वाले प्रायः आपका द्वार खटखटाते होंगे, मंदिरों के निर्माण के लिए, भगवती जागरण, जगराता, भंडारा, राम-लीला के लिए रसीदें काट कर पैसा मांगने में युवा से लेकर वृद्धों तक को कभी कोई संकोच नहीं होता, किन्तु किसी अस्पताल के निर्माण के लिए, शिक्षा-संस्थानों हेतु, भीड़-भीड़ वाले स्थानों पर आपातकालीन सेवाओं की व्यवस्था हेतु एक आम आदमी का तो क्या किसी बड़ी से बड़ी धार्मिक संस्था को भी कभी अपना महत्त योगदान प्रदान करते कभी नहीं देखा गया। किसी भी मन्दिर की सीढ़ियां चढ़ते जाईये और उस सीढ़ी पर किसी की स्मृति में बनवाने वाले का तथा जिसके नाम पर सीढ़ी बनवाई गई है, का नाम पढ़ते जाईये। ऐसे ही कितने नाम आपको द्वारों, पंखों, मार्गों आदि पर उकेरित भी मिल जायेंगे। किन्तु मैंने आज तक किसी अस्पताल अथवा विद्यालय में इस तरह के दानी का नाम नहीं देखा।
हम भीड़ बनकर तमाशा बना कते हैं, तमाशा देख सकते हैं, तमाशे में किसी को झुलसता देखकर आंखें मूंद लेते हैं क्योंकि यह तो सरकार का काम है।
इन आंखों का क्या करूं
शब्दों को बदल देने की
कला जानती हूं,
अपनी अभिव्यक्ति को
अनभिव्यक्ति बनाने की
कला जानती हूं ।
पर इन आंखों का क्या करूं
जो सदैव
सही समय पर
धोखा दे जाती हैं।
रोकने पर भी
न जाने
क्या-क्या कह जाती हैं।
जहां चुप रहना चाहिए
वहां बोलने लगती हैं
और जहां बोलना चाहिए
वहां
उठती-गिरती, इधर-उधर
ताक-झांक करती
धोखा देकर ही रहती हैं।
और कुछ न सूझे तो
गंगा-यमुना बहने लगती है।
दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी
शून्य से शतक तक की दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी
इससे आगे और क्या इस सोच में बह रही है जिन्दगी
और–और मिलने की चाह में डर डर कर जीते हैं हम
एक से निन्यानवे तक भी आनन्द ले, कह रही है जिन्दगी
विश्वास का धागा
भाई-बहन का प्यार है राखी
रिश्तों की मधुर सौगात है राखी
विश्वास का एक धागा होता है
अनुपम रिश्तों का आधार है राखी
शाम
हाइकु
शाम सुहानी
चंद्रमा की चांदनी
मन बहका
-
शाम सुहानी
पुष्प महक उठे
रंग बिखरे
-
किससे कहूं
रंगीन हुआ मन
शाम सुहानी
-
शाम की बात
सूरज डूब रहा
मन में तारे