क्या था मेरा सपना

हा हा !!

वे सपने ही क्या

जो पूरे हो जायें।

कुछ सपने हम

जागते में देखते हैं

और कुछ सोते हुए।

जागते हुए देखे सपने

सुबह-शाम

अपना रूप बदलते रहते हैं

और हम उलझ कर रह जाते हैं

क्या यही था मेरा सपना 

और जब तक उस राह पर

बढ़ने लगते हैं

सपना फिर बदल जाता है।

सोचती हूं

इससे तो

न ही देखा होता सपना।

सच्चाई की कंकरीट पर

चल लेती चाहे नंगे पांव ही]

पर बार-बार

सपने बदलने की

तकलीफ़ से तो न गुज़रना पड़ता।

 

और सोते हुए देखे सपने !!

यूं ही आधे-अधूरे होते हैं

कभी नींद टूटती है,

कभी प्यास लगती है,

कभी डरकर उठ बैठते हैं,

फिर टुकड़ों में आती है नींद

और अपने साथ

सपनों के भी टुकड़े

करने लगती है,

दिन बिखर जाता है

उन अधूरे सपनों को जोड़ने की

नाकाम कोशिश में।