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हंसते-हंसते जी लेना
खुशियों के घूंट पी लेना
क्या होता है जग में
हमको क्या लेना-देना
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अब कोई हमसफ़र नहीं होता
प्रार्थनाओं का अब कोई असर नहीं होता।
कामनाओं का अब कोई
सफ़र नहीं होता।
सबकी अपनी-अपनी मंज़िलें हैं ,
और अपने हैं रास्ते।
सरे राह चलते
अब कोई हमसफ़र नहीं होता।
देखते-परखते निकल जाती है
ज़िन्दगी सारी,
साथ-साथ रहकर भी ,
अब कोई बसर नहीं होता।
भरोसे की तो हम
अब बात ही नहीं करते,
अपने और परायों में
अब कुछ अलग महसूस नहीं होता।
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औरत होती है एक किताब
औरत होती है एक किताब।
सबको चाहिए
पुरानी, नई, जैसी भी।
अपनी-अपनी ज़रूरत
अपनी-अपनी पसन्द।
उस एक किताब की
अपने अनुसार
बनवा लेते हैं
कई प्रतियाँ,
नामकरण करते हैं
बड़े सम्मान से।
सबका अपना-अपना अधिकार
उपयोग का
अपना-अपना तरीका
अदला-बदली भी चलती है।
कुछ पृष्ठ कोरे रखे जाते है
इस किताब में
अपनी मनमर्ज़ी का
लिखने के लिए।
और जब चाहे
फाड़ दिये जाते हैं कुछ पृष्ठ।
सब मालिकाना हक़
जताते हैं इस किताब पर,
किन्तु कीमत के नाम पर
सब चुप्पी साध जाते हैं।
सबसे बड़ा आश्चर्य यह
कि पढ़ता कोई नहीं
इस किताब को
दावा सब करते हैं।
उपयोगी-अनुपयोगी की
बहस चलती रहती है
दिन-रात।
वैसे कोई रैसिपी की
किताब तो नहीं होती यह
किन्तु सबसे ज़्यादा
काम यहीं आती है।
अपने-आप में
एक पूरा युग जीती है
यह किताब
हर पन्ने पर
लिखा होता है
युगों का हिसाब।
अद्भुत है यह किताब
अपने-आपको ही पढ़ती है
समझने की कोशिश करती है
पर कहाँ समझ पाती है।
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नेह-जलधार हो
जीवन में
कुछ पल तो ऐसे हों
जो केवल
मेरे और तुम्हारे हों।
जलधि-सी अटूट
नेह-जलधार हो
रेत-सी उड़ती दूरियों की
दीवार हो।
जीवन में
कुछ पल तो ऐसे हों
जो केवल
मेरे और तुम्हा़रे हों।
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पाप-पुण्य के लेखे में फंसे
इहलोक-परलोक यहीं,स्वर्ग-नरकलोक यहीं,जीवन-मरण भी यहीं
ज़िन्दगी से पहले और बाद कौन जाने कोई लोक है भी या नहीं
पाप-पुण्य के लेखे में फंसे, गणनाएं करते रहे, मरते रहे हर दिन
कल के,काल के डर से,आज ही तो मर-मर कर जी रहे हैं हम यहीं
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तब विचार अच्छे बनते हैं
बीमारी एक बड़ी है आई
साफ़ सफ़ाई रखना भाई
कूड़ा-करकट न फै़लाना
सुंदर-सुंदर पौधे लाना
बगिया अपनी खूब खिलाना
हाथों को साफ़ है रखना
बार-बार है धोना
मुंह, नाक, आंख न छूना
घर में रहना सुन लो ताई
मुंह को रखना ढककर तुम
हाथों की दूरी है रखनी
दूर से सबसे बात है करनी
प्लास्टिक का उपयोग न करना
घर में बैठकर रोज़ है पढ़ना
जब साफ़-सफ़ाई रखते हैं
तब विचार अच्छे बनते हैं
स्वच्छ अभियान बढ़ायेंगें
देश का नाम चमकाएंगें।
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अब हर पत्थर के भीतर एक आग है।
मैंने तो सिर्फ कहा था "शब्द"
पता नहीं कब
वह शब्द नहीं रहे
चेतावनी हो गये।
मैंने तो सिर्फ कहा था "पत्थर"
तुम पता नहीं क्यों तुम
उसे अहिल्या समझ बैठे।
मैंने तो सिर्फ कहा था "नाम"
और तुम
अपने आप ही राम बन बैठे।
और मैंने तो सिर्फ कहा था
"अन्त"
पता नहीं कैसे
तुम उसे मौत समझ बैठे।
और यहीं से
ज़िन्दगी की नई शुरूआत हुई।
मौत, जो हुई नहीं
समझ ली गई।
पत्थर, जो अहिल्या नहीं
छू लिया गया।
और तुम राम नहीं।
और पत्थर भी अहिल्या नहीं।
जो शताब्दियों से
सड़क के किनारे पड़ा हो
किसी राम की प्रतीक्षा में
कि वह आयेगा
और उसे अपने चरणों से छूकर
प्राणदान दे जायेगा।
किन्तु पत्थर
जो अहिल्या नहीं
छू लिया गया
और तुम राम नहीं।
जब तक तुम्हें
सही स्थिति का पता लगता
मौत ज़िन्दगी हो गई
और पत्थर आग।
वैसे भी
अब तब मौमस बहुत बदल चुका है।
जब तक तुम्हें
सही स्थिति का पता लगता
मौत ज़िन्दगी हो गई
और पत्थर आग।
एक पत्थर से
दूसरे पत्थर तक
होती हुई यह आग।
अब हर पत्थर के भीतर एक आग है।
जिसे तुम देख नहीं सकते।
आज दबी है
कल चिंगारी हो जायेगी।
अहिल्या तो पता नहीं
कब की मर चुकी है
और तुम
अब भी ठहरे हो
संसार से वन्दित होने के लिए।
सुनो ! चेतावनी देती हूं !
सड़क के किनारे पड़े
किसी पत्थर को, यूं ही
छूने की कोशिश मत करना।
पता नहीं
कब सब आग हो जाये
तुम समझ भी न सको
सब आग हो जाये,एकाएक।।।।
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कोई हमें क्यों रोक रहा
आँख बन्द कर सोने में मज़ा आने लगता है।
बन्द आँख से झांकने में मज़ा आने लगता है।
पकी-पकाई मिलती रहे, मुँह में ग्रास आता रहे
कोई हमें क्यों रोक रहा, यही खलने लगता है
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छोटे-छोटे घर हैं छोटे-छोटे सपने
छोटे-छोटे घर हैं, छोटे-छोटे सपने
घर के भीतर रहते हैं यहां सब अपने
न ताला-चाबी, न द्वार, न चोर यहां
फूलों से सज्जित, ये घर सुन्दर कितने
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अमूल्य धन
कुछ हँसती, खिलखिलाती, गुनगुनाती स्मृतियाँ अनायास मानस पटल पर आयें, अच्छा लगता है। इन सिक्कों को देखकर सालों-साल पुरानी एक घटना मानस-पटल पर उभर आई।
वर्ष 1974
एम.ए. का प्रथम वर्ष।
उस समय इन सिक्कों का कितना महत्व होता था यह तो आप भी जानते ही होंगे। रुपये खर्च करना तो बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। जेब-खर्च के लिए भी पचास पैसे, ज़्यादा से ज़्यादा एक रुपया जो बहुत बड़ी बात हुआ करती थी, लेकर घर से निकलते थे। पांच रुपये में तीन महीने का लोकल पास बनता था, शिमला रेलवे स्टेशन से समरहिल का, जहाँ हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय है।
मैं हिन्दी में एम. ए. और कर रही थी और मेरी एक सखी संस्कृत में। हमें ज्ञात हुआ कि बी.ए. के विषयानुसार विश्वविद्यालय में अधिकतम अंक प्राप्त होने के कारण हम दोनों को 150 रूपये मासिक छात्रवृत्ति मिलेगी।
हमारे लिए तो जैसे यह कुबेर का खजाना था। 6-6 महीने की राशि एकसाथ मिलनी थी। हमें कार्यालय से 900-900 रुपये के चैक मिले। पहले तो वे ही हमारे लिए एक अद्भुत अमूल्य पत्र थे, जिसे हम ऐसे देख और सम्हाल रहे थे मानों कहीं हाथ लगने से भी गल न जायें।
उपरान्त हम दोनों विश्वविद्याय परिसर में ही स्थित भारतीय स्टेट बैंक की शाखा में डरते-डरते गईं।
वहाँ के कर्मचारियों का शायद हम जैसे विद्यार्थियों से सामना होता ही होगा। हम दोनों कांउटर पर डरते-डरते गईं और कहा कि पैसे लेने हैं। हम दोनों ने चैक उनके सामने रख दिये।
कर्मचारी हमारी उत्तेजना और उत्सुकता भांप गया और पूछा कौन से पैसे चाहिए आपको?
हम दोनों ही अचानक बोल बैठीं, रेज़गारी दे दीजिए।
रेज़गारी? 900 रुपये की?
और क्या, लेकर निकलेंगे तो किसी को पता तो लगेगा कि हमें छात्रवृत्ति मिली है, कोई तो पूछेगा कि आपके पास यह क्या है?
कर्मचारी हँसने लगा 1800 रुपये की रेज़गारी तो हमारे पास नहीं है, यदि यही चाहिए तो आप डिमांड दे जाईये, रिज़र्व बैंक से मंगवा देंगे।
नहीं, नहीं, आप नोट ही दे दीजिए।
और इस तरह हम 900-900 रूपये के नोट लेकर वहाँ से सीधे माल रोड आ गईं। उस समय नोट भी बड़े आकार के होते थे।
दो घंटे से भी ज़्यादा समय तक मालरोड के चक्कर काटे, कितने अपने मिले, लेकिन किसी ने हमारे मन की बात नहीं पूछी।
मालरोड पर जो भी परिचित मिले, हम यहीं सोचें कि यह ज़रूर पूछेंगे कि भई आपके बैग आज भारी लग रहे हैं क्या है इनमें।
लेकिन किसी ने नहीं पूछा। और हम घर लौट आईं, मायूस, उदास। छात्रवृत्ति मिलने का सारा आनन्द किरकिरा हो गया।