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बूंद-बूंद से घट भरे, बूंद-बूंद से न घटे सागर
जल की महिमा वो जाने, जिसके पास न गागर
पानी की बरबादी चुभती है, खड़़े पानी में कीट
अंजुरी-भर पानी ले, सोचिए कैसे रखें पानी बचाकर
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शिकायतों का पुलिंदा
शिकायतों का
पुलिंदा है मेरे पास।
है तो सबके पास
बस सच बोलने का
मेरा ही ठेका है।
काश!
कि शिकायतें
आपसे होतीं
किसी और से होतीं,
इससे-उससे होतीं,
तब मैं कितनी प्रसन्न होती,
बिखेर देती
सारे जहाँ में।
इसकी, उसकी
बुराईयाँ कर-कर मन भरती।
किन्तु
क्या करुँ
सारी शिकायतें
अपने-आपसे ही हैं।
जहाँ बोलना चाहिए
वहाँ चुप्पी साध लेती हूँ
जहाँ मौन रहना चाहिए
वहाँ बक-झक कर जाती हूँ।
हँसते-हँसते
रोने लग जाती हूँ,
रोते-रोते हँस लेती हूँ।
न खड़े होने का सलीका
न बैठने का
न बात करने का,
बहक-बहक जाती हूँँ
मन कहीं टिकता नहीं
बस
उलझी-उलझी रह जाती हूँ।
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मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे
कल तक
एक घर मेरा था।
आज अचानक
सब बदल गया।
-
यह रूप-श्रृंगार
यह स्वर्ण-माल
मेरे
अगले जीवन का आधार
एक नया परिवार।
-
मात्र, एक पल लगा
मुझे एक से
दूसरे में बदलने में।
नाम-धाम सब सिमटने में।
-
नये सम्बन्ध, नये भाव
नये कर्तव्य और
पता नहीं कितने अधिकार।
सुना करती थी
बचपन से
पराया धन ! पराया धन !!
आज समझ पाई।
-
यह एक पल
न काम आती है
शिक्षा, न ज्ञान, न अभिमान
बस जीवन-परिवर्तन।
नहीं जानती
क्या मिला, क्या पाया, क्या खोया।
-
एक परिवार था मेरे पास
उसे मैं अपने जीवन के
पच्चीस वर्षों में न समझ पाई
किन्तु
एक नये परिवार को समझने के लिए
मुझे नहीं मिलेंगे
पच्चीस मिनट भी।
शायद पच्चीस पल में ही
मुझे सम्हालने होंगे
सारे नये सम्बन्ध
नये भाव, नया घर, नये लोग,
नई आशाएँ, आकांक्षाएँ।
-
मस्तिष्क एक डायरी बन गया।
-
पिछला क्या-क्या भूल जाना है मुझे
तिलांजलि देनी है
कौन-से सम्बन्धों को
और नया
क्या-क्या याद रखना है मुझे,
कितने कदम पीछे हटना है मुझे
कितने कदम आगे बढ़ना है मुझे।
ड्योढ़ी से अन्दर कदम रखते ही
ज्ञात हो जाना चाहिए सब मुझे।
रिश्तों के नये ताने-बाने को
संवारना है मुझे
सबकी भूख-प्यास का हिसाब
रखना है मुझे
अपने मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे।
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नेताजी का आसन
नेताजी ने कुर्सी त्याग दी
और भूमि पर आसन बिछाकर बैठ गये।
हमने पूछा, ऐसा क्यों किया आपने।
वैसे तो हमें पता है,
कि आपकी औकात ज़मीन की ही है,
किन्तु
कुर्सी त्यागना तो बहुत महानता की बात है,
कैसे किया आपने यह साहस।
नेताजी मुस्कुराये, बोले,
क्या तुम्हें भी बताना पड़ेगा,
कि कुर्सी की चार टांगे होती हैं
और इंसान की दो।
कोई भी, कभी भी पकड़कर
कोई-सी भी टांग खींच देता था।
अब हम भूमि पर, आसन जमाकर
पालथी मारकर बैठ गये हैं,
कोई दिखाये हमारी टांग खींचकर।
समझदारी की बात यह
कि कुर्सी के पीछे
तो लोग भागते-छीनते दिखाई देते हैं,
कभी आपने देखा है किसी को
आसन छीनते।
अब गांधी जी भी तो
भूमि पर आसन जमाकर ही बैठते थे,
कोई चला उनकी राह पर
आज तक मांगा उनका आसन किसी ने क्या।
नहीं न !
अब मैं नेताजी को क्या समझाती,
गांधी जी का आसन तो उनके साथ ही चला गया।
और नेताजी आपका आसन ,
आधुनिक भारतीय राजनीति का आसन है,
आप पालथी मारे यूं ही बैठे रह जायेंगे,
और जनता कब आपके नीचे से
आपका आसन खींचकर चलती बनेगी,
आपको पता भी नहीं चलेगा।
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इंसानों की बस्ती
इंसानों की बस्ती में चाल चलने से पहले मात की बात होती है
इंसानों की बस्ती में मुहब्बत से पहले घृणा-भाव की जांच होती है
कोई नहीं पहचानता किसी को, कोई नहीं जानता किसी को यहाँ
इंसानों की बस्ती में अपनेपन से ज़्यादा घात लगाने की बात होती है।
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अपने-आपको परखना
कभी-कभी अच्छा लगता है,
अपने-आप से बतियाना,
अपने-आपको समझना-समझाना।
डांटना-फ़टकारना।
अपनी निगाहों से
अपने-आपको परखना।
अपने दिये गये उत्तर पर
प्रश्न तलाशना।
अपने आस-पास घूम रहे
प्रश्नों के उत्तर तलाशना।
मुर्झाए पौधों में
कलियों को तलाशना।
बिखरे कांच में
जानबूझकर अंगुली घुमाना।
उफ़नते दूध को
गैस पर गिरते देखना।
और
धार-धार बहते पानी को
एक अंगुली से
रोकने की कोशिश करना।
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छोड़ के देख घूंट
कभी शाम ढले घर लौट, पर छोड़ के लालच के दो घूंट
द्वार पर टिकी निहारती दो आंखें हर पल पीती हैं दो घूंट
डरते हैं, रोते भी हैं पर महकते भी हैं तेरी बगिया में फूल।
जिन्दगी सुहानी है हाथ की तेरे बात है बस छोड़ के देख घूंट।
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मैं उपवास नहीं करती
मैं उपवास नहीं करती।
वह वाला
उपवास नहीं करती
जिसमें बन्धन हो।
मैंने देखा है
जो उपवास करते हैं
सारा दिन
ध्यान रहता है
अरे कुछ नहीं खाना
कुछ नहीं पीना।
अथवा
यह खाना और
यह पीना।
विशेष प्रकार का भोजन
स्वाद
कभी नमक रहित
कभी मिष्ठान्न सहित।
किस समय, किस रूप में,
यही चर्चा रहती है
दो दिन।
फिर
विशेष पूजा-पाठ,
सामग्री,
चाहे-अनचाहे
सबको उलझाना।
मैं बस मस्ती में जीती हूँ,
अपने कर्मों का
ध्यान करती हूँ,
अपनी ही
भूल-चूक पर
स्वयँ प्रायश्चित कर लेती हूँ
और अपने-आपको
स्वयँ क्षमा करती हूँ।
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यह दिल की बात है
कभी दिल है
कभी दिलदार होगा ।
बादलों में
यूं हमारा नाम होगा ।
कभी होती है झड़ी
कभी चांद का रोब-दाब होगा ।
देखो , झांकती है रोशनी ।
कहती है दिलदार से
दीदार होगा ।
कभी टूटते हैं
कभी जुड़ते हैं दिल ।
इस बात का भी
कोई तो जवाबदार होगा ।
ज़रा-सी आह से
पिघल जाते हैं,
ऐसे दिल से दिल लगाकर,
कौन-सा सरोकार होगा ।
बदलते मौसम के आसार हैं ये ।
न दिल लगा
नहीं तो बुरा हाल होगा ।
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सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी।
कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे
आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।
तरल-तरल भाव सी
बहकती है ज़िन्दगी।
राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी।
चलें हिल-मिल
कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी।
किसी और से क्या लेना,
जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी।
आज भीग ले अन्तर्मन,
कदम-दर-कदम
मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी।
राहें सूनी हैं तो क्या,
तुम साथ हो
तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
आगे बढ़ते रहें
तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी।
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फहराता है तिरंगा
प्रकृति के प्रांगण में लहराता है तिरंगा
धरा से गगन तक फहराता है तिरंगा
हरीतिमा भी गौरवान्वित है यहां देखो
भारत का मानचित्र सजाता है तिरंगा