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जीवन में आगे-पीछे, ऊपर-नीचे तो चलता रहता है
जो पाया, अनायास न जाने कभी कहाँ खो जाता है
बहुत-बहुत की चाह में धक्का-मुक्की में लगे हैं हम
चाहतों की भूख से मानव कहाँ कभी पार पा पाता है।
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जीवन कोई विवाद नहीं
जीवन में डर का भाव
कभी-कभी ज़रूरी होता है,
शेर के पिंजरे के आगे
शान दिखाना तो ठीक है,
किन्तु खुले शेर को ललकारना
पता नहीं क्या होता है!
जीवन में दो कदम
पीछे लेना
सदा डर नहीं होता।
जीवन कोई विवाद नहीं
कि हम हर बात का मुद्दा बनाएं,
कभी-कभी उलझने से
बेहतर होता है
पीछे हट जाना,
चाहे कोई हमें डरपोक बताए।
जीवन कोई तर्क भी नहीं
कि हम सदा
वाद-विवाद में उलझे रहें
और जीवन
वितण्डावाद बनकर रह जाये।
शत्रु से बचकर मैदान छोड़ना
सदा डर नहीं होता,
जान बचाकर भागना
सदा कायरता नहीं होती,
नयी सोच के लिए,
राहें उन्मुक्त करने के लिए,
बचाना पड़ता है जीवन,
छोड़नी पड़ती हैं राहें,
किसी अपने के लिए,
किसी सपने के लिए,
किन्हीं चाहतों के लिए।
फिर आप इसे डर समझें,
या कायरता
आपकी समझ।
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जीवन का आनन्द ले
प्रकृति ने पुकारा मुझे,
खुली हवाओं ने
दिया सहारा मुझे,
चल बाहर आ
दिल बहला
न डर
जीवन का आनन्द ले
सुख के कुछ पल जी ले।
वृक्षों की लहराती लताएँ
मन बहलाती हैं
हरीतिमा मन के भावों को
सहला-सहला जाती है।
मन यूँ ही भावनाओं के
झूले झूलता है
कभी हँसता, कभी गुनगुनाता है।
गुनगुनी धूप
माथ सहला जाती है
एक मीठी खुमारी के साथ
मानों जीवन को गतिमान कर जाती है।
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नदिया से मैंने पूछा
नदिया से मैंने पूछा
कल-कल कर क्यों बहती हो।
बहते-बहते
कभी सिमट-सिमट कर
कभी बिखर-बिखर जाती हो।
कभी मधुर संगीत छेड़ती
कभी विकराल रूप दिखाती हो।
कभी सूखी,
कभी लहर-लहर लहराती हो।
नदिया बोली,
मुझसे क्या पूछ रहे
तुम भी तो ऐसे ही हो मानव।
पर मैं आज तुम्हें चेताती हूं।
इसीलिए,
कल-कल की बातें कहती हूं।
समझ सको तो, सम्हल सको तो
रूक कर, ठहर-ठहर कर
सोचो तुम।
बहते-बहते, सिमट-सिमट कर
अक्सर क्यों बिखर-बिखर जाती हूं ।
मधुर संगीत छेड़ती
क्यों विकराल रूप दिखाती हूं।
जब सूखी,
फिर कहां लहर-लहर लहराती हूं।
मैं आज तुम्हें चेताती हूं।
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जो रीत गया वह बीत गया
चेहरे की रेखाओं की गिनती मत करना यारो
जरा,अनुभव,पतझड़ की बातें मत करना यारो
यहां मदमस्त मौमस की मस्ती हम लूट रहे हैं
जो रीत गया उसका क्यों है दु:ख करना यारो
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जब आग लगती है
किसी आग में घर उजड़ते हैं ।
कहीं किसी के भाव जलते हैं ।
जब आग लगती है किसी वन में
मन के संताप उजड़ते हैं ।
शेर-चीतों को ले आये हम
अभयारण्य में ।
कोई बताये मुझे
क्या कहूं उस चिडि़या से,
किसी वृक्ष की शाख पर,
जिसके बच्चे पलते हैं ।
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बहकती हैं पत्तियों पर ओस की बूंदें
छू मत देना इन मोतियों को टूट न जायें कहीं।
आनन्द का आन्तरिक स्त्रोत हैं छूट न जाये कहीं।
जब बहकती देखती हूं इन पत्तियों पर ओस की बूंदे ,
बोलती हूं, ठहर-ठहर देखो, ये फूट न जाये कहीं ।
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कितने सबक देती है ज़िन्दगी
भाग-दौड़ में लगी है ज़िन्दगी।
खेल-खेल में रमी है ज़िन्दगी।
धूल-मिट्टी में आनन्द देती
मज़े-मजे़ से बीतती है ज़िन्दगी।
तू हाथ बढ़ा, मैं हाथ थामूँ,
धक्का-मुक्की, उठन-उठाई
नाम तेरा यही है ज़िन्दगी।
आगे-पीछे देखकर चलना
बायें-दायें, सीधे-सीधे
या पलट-पलटकर,
सम्हल-सम्हलकर।
तब भी न जाने
कितने सबक देती है ज़िन्दगी।
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गरीबी हटाओ देश बढ़ाओ
पिछले बहत्तर साल से
देश में
योजनाओं की भरमार है
धन अपार है।
मन्दिर-मस्जिद की लड़ाई में
धन की भरमार है।
चुनावों में अरबों-खरबों लुट गये
वादों की, इरादों की ,
किस्से-कहानियों की दरकार है।
खेलों के मैदान पर
अरबों-खरबों का
खिलवाड़ है।
रोज़ पढ़ती हूं अखबार
देर-देर तक सुनती हूं समाचार।
गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी
सुनते-सुनते सालों निकल गये।
सुना है देश
विकासशील से विकसित देश
बनने जा रहा है।
किन्तु अब भी
गरीब और गरीबी के नाम पर
खूब बिकते हैं वादे।
वातानूकूलित भवनों में
बन्द बोतलों का पानी पीकर
काजू-मूंगफ़ली टूंगकर
गरीबी की बात करते हैं।
किसकी गरीबी,
किसके लिए योजनाएं
और किसे घर
आज तक पता नहीं लग पाया।
किसके खुले खाते
और किसे मिली सहायता
आज तक कोई बता नहीं पाया।
फिर वे
अपनी गरीबी का प्रचार करते हैं।
हम उनकी फ़कीरी से प्रभावित
बस उनकी ही बात करते हैं।
और इस चित्र को देखकर
आहें भरते हैं।
क्योंकि न वे कुछ करते हैं।
और न हम कुछ करते हैं।
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हरपल बदले अर्थ यहाँ
शब्दों के अब अर्थ कहाँ, सब कुछ लगता व्यर्थ यहाँ
कहते कुछ हैं, करते कुछ है, हरपल बदले अर्थ यहाँ
भाव खो गये, नेह नहीं, अपनेपन की बात नहीं अब
किसको मानें, किसे मनायें, इतनी अब सामर्थ्य कहाँ
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हमारे भीतर ही बसता है वह
कहां रूपाकार पहचान पाते हैं हम
कहां समझ पाते हैं
उसका नाम,
नहीं पहचानते,
कब आ जाता है सामने
बेनाम।
उपासना करते रह जाते हैं
मन्दिरों की घंटियां
घनघनाते रह जाते हैं
नवाते हैं सिर
करते हैं दण्डवत प्रणाम।
हर दिन
किसी नये रूप को आकार देते हैं
नये-नये नाम देते हैं,
पुकारते हैं
आह्वान करते हैं,
पर नहीं मिलता,
नहीं देता दिखाई।
पर हम ही
समझ नहीं पाये आज तक
कि वह
सुनता है सबकी,
बिना किसी आडम्बर के।
घूमता है हमारे आस-पास
अनेक रूपों में, चेहरों में
अपने-परायों में।
थाम रखा है हाथ
बस हम ही समझ नहीं पाते
कि कहीं
हमारे भीतर ही बसता है वह।