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जब कुछ न लिखने को मिले तो कर लो नारी पर वार।
वाह-वाही भरपूर मिलेगी, वैसे समझते उसको लाचार।
कल तक माँ-माँ लिख नहीं अघाते थे सारे साहित्यकार
आज उसी में खोट दिखे, समझती देखो पति को दास
पत्नी भी माँ है क्यों कभी नहीं देख पाते हो तुम
यदि माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजा, किसका है यह दोष
परिवारों में निर्णय पर हावी होते सदा पुरुष के भाव
जब मन में आता है कर लेते नारी के चरित्र पर प्रहार।
लिखने से पहले मुड़ अपनी पत्नी पर दृष्टि डालें एक बार ।
अपने बच्चों की माँ के मान की भी सोच लिया करो कभी कभार
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अवसान एवं उदित
यह कैसा समय है,
अंधेरे उजालों को
डराने में लगे हैं,
अपने पंख फैलाने में लगे हैं।
दूर जा रही रोशनियां,
अंधेरे निकट आने में लगे हैं।
अक्सर मैंने पाया है,
अवसान एवं उदित में
ज़्यादा अन्तर नहीं होता।
दोनों ही तम-प्रकाश से
जूझते प्रतीत होते हैं मुझे।
एक रोशनी-रंगीनियां समेटकर
निकल लेता है,
किसी पथ पर,
किसी और को
रोशनी बांटने के लिए।
और दूसरा
बिखरी रोशनी-रंगीनियों को
एक धुरी में बांधकर
फिर बिखेरता है
धरा पर।
चलो, आज एक नई कोशिश करें,
दोनों में ही रंगीनियां-रोशनी ढूंढे।
अंधेरे सिमटने लगेंगें
रोशनियां बिखरने लगेंगी।
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चाहतों की भूख
जीवन में आगे-पीछे, ऊपर-नीचे तो चलता रहता है
जो पाया, अनायास न जाने कभी कहाँ खो जाता है
बहुत-बहुत की चाह में धक्का-मुक्की में लगे हैं हम
चाहतों की भूख से मानव कहाँ कभी पार पा पाता है।
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कितने बन्दर झूम रहे हैं
शेर की खाल ओढ़कर शहर में देखो गीदड़ घूम रहे हैं
टूटे ढोल-पोल की ताल पर देखो कितने बन्दर झूम रहे हैं
कौन दहाड़ रहा पता नहीं, और कौन कर रहा हुआं-हुंआ
कौन है असली, कौन है नकली, गली-गली में ढूंढ रहे है।
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हादसा
यह रचना मैंने उस समय लिखी थी जब 1987 में चौधरी चरण सिंह की मृत्यु हुई थी और उसी समय लालडू में दो बसों से उतारकर 43 और 47 सिखों को मौत के घाट उतार दिया था।)
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भूचाल, बाढ़, सूखा।
सामूहिक हत्याएं, साम्प्रदायिक दंगे।
दुर्घटनाएं और दुर्घटनाएं।
लाखों लोग दब गये, बह गये, मर गये।
बचे घायल, बेघर।
प्रशासन निर्दोष। प्राकृतिक प्रकोप।
खानदानी शत्रुता। शरारती तत्व।
विदेशी हाथ।
सरकार का कर्त्तव्य
आंकड़े और न्यायिक जांच।
पदयात्राएं, आयोग और सुझाव।
चोट और मौत के अनुसार राहत।
विपक्षी दल
बन्द का आह्वान।
फिर दंगे, फिर मौत।
सवा सौ करोड़ में
ऐसी रोज़मर्रा की घटनाएं
हादसा नहीं हुआ करतीं।
हादसा तब हुआ
जब एक नब्बे वर्षीय युवा,
राजनीति में सक्रिय
स्वतन्त्रता सेनानी
सच्चा देशभक्त
सर्वगुण सम्पन्न चरित्र
असमय, बेमौत चल बसा
अस्पताल में
दस वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद।
हादसा ! बस उसी दिन हुआ।
देश शोक संतप्त।
देश का एक कर्णधार कम हुआ।
हादसे का दर्द
बड़ा गहरा है
देश के दिल में।
क्षतिपूर्ति असम्भव।
और दवा -
सरकारी अवकाश,
राजकीय शोक, झुके झण्डे
घाट और समाधियां,
गीता, रामायण, बाईबल, कुरान, ग्रंथ साहिब
सब आकाशवाणी और दूरदर्शन पर।
अब हर वर्ष
इस हादसे का दर्द बोलेगा
देश के दिल में
नारों, भाषणों, श्रद्धांजलियों
और शोक संदेशों के साथ।
ईश्वर उनकी दिवंगत आत्मा को
शांति देना।
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चंदा को जब देखो मनमर्ज़ी करता है
चंदा को मैंने थाम लिया, जब देखो अपनी मनमर्ज़ी करता है
रोज़ रूप बदलता अपने, जब देखो इधर-उधर घूमा करता है
जब मन हो गायब हो जाता है, कभी पूरा, कभी आधा भी
यूं तो दिन में भी आ जायेगा, ईद-चौथ पर तरसाया करता है
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उनकी तरह बोलना ना सीख जायें
कभी गांधी जी के
तीन बन्दरों ने संदेश दिया था
बुरा मत बोलो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो।
सुना है मैंने
ऐसा ही कुछ संदेश
जैन, बौद्ध, सिक्ख, हिन्दू
मतावलम्बियों ने भी दिये थे,
कुछ मर्यादाओं, नैतिकता, गरिमा
की बात करते थे वे।
पुस्तकों में भी छपता था यही सब।
बच्चों को आज भी पढ़ाते हैं हम यह पाठ।
किन्तु अब ज्ञात हुआ
कि यह सब कथन
आम आदमी के लिए होते हैं
बड़े लोग इन सबसे उपर होते हैं।
वे जो आज देश के कर्णधार
कहलाते हैं
भारत के महिमामयी गणतन्त्र को
आजमाने बैठे हैं
राजनीति के मोर्चे पर हाथ
चलाने बैठे हैं
उनको मत सुनना, उनको मत देखना
उनसे मत बोलना
क्योंकि
भारत का महिमामयी लोकतन्त्र,
अब राजनीति का
अखाड़ा हो गया
दल अब दलदल में धंसे
मर्यादाओं की बस्ती
उजड़ गई
भाषा की नेकी बिखर गई
शब्दों की महिमा
गलित हुई
संसद की गरिमा भंग हुई
किसने किसको क्या कह डाला
सुनने में डर लगता है
प्रेम-प्यार-अपनापन कहीं छिटक गया
घृणा, विद्वेष, विभाजन की आंधी
सब निगल गई
कभी इनके पदचिन्हों के
अनुसरण की बात करते थे,
अब हम बस इतनी चिन्ता करते हैं
हम अपनी मर्यादा में रह पायें
सब देखें, सब सुनें,
मगर,उनकी तरह
बोलना ना सीख जायें
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अमूल्य धन
कुछ हँसती, खिलखिलाती, गुनगुनाती स्मृतियाँ अनायास मानस पटल पर आयें, अच्छा लगता है। इन सिक्कों को देखकर सालों-साल पुरानी एक घटना मानस-पटल पर उभर आई।
वर्ष 1974
एम.ए. का प्रथम वर्ष।
उस समय इन सिक्कों का कितना महत्व होता था यह तो आप भी जानते ही होंगे। रुपये खर्च करना तो बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। जेब-खर्च के लिए भी पचास पैसे, ज़्यादा से ज़्यादा एक रुपया जो बहुत बड़ी बात हुआ करती थी, लेकर घर से निकलते थे। पांच रुपये में तीन महीने का लोकल पास बनता था, शिमला रेलवे स्टेशन से समरहिल का, जहाँ हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय है।
मैं हिन्दी में एम. ए. और कर रही थी और मेरी एक सखी संस्कृत में। हमें ज्ञात हुआ कि बी.ए. के विषयानुसार विश्वविद्यालय में अधिकतम अंक प्राप्त होने के कारण हम दोनों को 150 रूपये मासिक छात्रवृत्ति मिलेगी।
हमारे लिए तो जैसे यह कुबेर का खजाना था। 6-6 महीने की राशि एकसाथ मिलनी थी। हमें कार्यालय से 900-900 रुपये के चैक मिले। पहले तो वे ही हमारे लिए एक अद्भुत अमूल्य पत्र थे, जिसे हम ऐसे देख और सम्हाल रहे थे मानों कहीं हाथ लगने से भी गल न जायें।
उपरान्त हम दोनों विश्वविद्याय परिसर में ही स्थित भारतीय स्टेट बैंक की शाखा में डरते-डरते गईं।
वहाँ के कर्मचारियों का शायद हम जैसे विद्यार्थियों से सामना होता ही होगा। हम दोनों कांउटर पर डरते-डरते गईं और कहा कि पैसे लेने हैं। हम दोनों ने चैक उनके सामने रख दिये।
कर्मचारी हमारी उत्तेजना और उत्सुकता भांप गया और पूछा कौन से पैसे चाहिए आपको?
हम दोनों ही अचानक बोल बैठीं, रेज़गारी दे दीजिए।
रेज़गारी? 900 रुपये की?
और क्या, लेकर निकलेंगे तो किसी को पता तो लगेगा कि हमें छात्रवृत्ति मिली है, कोई तो पूछेगा कि आपके पास यह क्या है?
कर्मचारी हँसने लगा 1800 रुपये की रेज़गारी तो हमारे पास नहीं है, यदि यही चाहिए तो आप डिमांड दे जाईये, रिज़र्व बैंक से मंगवा देंगे।
नहीं, नहीं, आप नोट ही दे दीजिए।
और इस तरह हम 900-900 रूपये के नोट लेकर वहाँ से सीधे माल रोड आ गईं। उस समय नोट भी बड़े आकार के होते थे।
दो घंटे से भी ज़्यादा समय तक मालरोड के चक्कर काटे, कितने अपने मिले, लेकिन किसी ने हमारे मन की बात नहीं पूछी।
मालरोड पर जो भी परिचित मिले, हम यहीं सोचें कि यह ज़रूर पूछेंगे कि भई आपके बैग आज भारी लग रहे हैं क्या है इनमें।
लेकिन किसी ने नहीं पूछा। और हम घर लौट आईं, मायूस, उदास। छात्रवृत्ति मिलने का सारा आनन्द किरकिरा हो गया।
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बारिश की बूंदे अलमस्त सी
बारिश की बूंदे अलमस्त सी, बहकी-बहकी घूम रहीं
पत्तों-पत्तों पर सर-सर करतीं, इधर-उधर हैं झूम रहीं
मैंने रोका, हाथों पर रख, उनको अपने घर ले आई मैं
पता नहीं कब भागीं, कहां गईं, मैं घर-भर में ढूंढ रही
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गुम हो जाये चाबी स्कूल की
हाथ जोड़कर तुम क्या मांग रहे मुझको कुछ भी नहीं पता
बैठा था गर्मी की छुट्टी की आस में, क्या की थी मैंने खता
मैं तो बस मांगूं एक टी.वी.,एक पी.सी,एक आई फोन 6
और मांगू, गुम हो जाये चाबी स्कूल की, और मेरा बस्ता
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कहां गये वे नेता -वेत्ता
कहां गये वे नेता -वेत्ता
चूल्हे बांटा करते थे।
किसी मंच से हमारी रोटी
अपने हित में सेंका करते थे।
बड़े-बड़े बोल बोलकर
नोटों की गिनती करते थे।
झूठी आस दिलाकर
वोटों की गिनती करते थे।
उन गैसों को ढूंढ रहे हम
किसी आधार से निकले थे,
कोई सब्सिडी, कोई पैसा
चीख-चीख कर हमको
मंचों से बतलाया करते थे।
वे गैस कहां जल रहे
जो हमारे नाम से लूटे थे।
बात करें हैं गांव-गांव की
पर शहरों में ही जाया करते थे।
आग कहीं भीतर जलती है
चूल्हे में जलता है दिल
अब हमको भरमाने को
कला, संस्कृति, परम्परा,
मां की बातें करते हैं।
सबको चाहे नया-नया,
मेरे नाम पर लीपा-पोती।
पंचतारा में भोजन करते
मुझको कहते चूल्हे में जा।