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जब हृदय की वादियों में
ग्रीष्म ऋतु हो
या हो पतझड़,
या उलझे बैठे हों
सूखे, सूनेपन की झाड़ियों में,
तब
प्रकृति के
अपरिमित सौन्दर्य से
आंखें दो-चार करना,
फिर देखना
बसन्त की मादक हवाएँ
सावन की झड़ी
भावों की लड़ी
मन भीग-भीग जायेगा
अनायास
बेमौसम फूल खिलेंगे
बहारें छायेंगी
जीवन संवर जायेगा।
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प्यार इकरार की बात होती है
सुना है
चांदनी रात में
इश्क-मुहब्बत की
बहुत बात होती है।
प्यार भरे दिलों के
इज़हार की बात होती है।
पर हमारे साथ तो
सदा ही बहुत बेइंसाफ़ी होती है।
क्या करें,
जब भी अपने मन में
प्यार-इकरार की बात होती है,
आकाश पर न जाने कहां से
बादलों के
गड़गड़ाने की आवाज़ होती है।
हमारी हर
चांदनी रात, सदा ही
यूं ही बरबाद होती है।
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भीड़ पर भीड़-तंत्र
एक लाठी के सहारे
चलते
छोटे कद के
एक आम आदमी ने
कभी बांध ली थी
सारी दुनिया
अपने पीछे
बिना पुकार के भी
उसके साथ
चले थे
लाखों -लाखों लोग
सम्मिलित थे
उसकी तपस्या में
निःस्वार्थ, निःशंक।
वह हमें दे गया
एक स्वर्णिम इतिहास।
आज वह न रहा
किन्तु
उसकी मूर्तियाँ
हैं हमारे पास
लाखों-लाखों।
कुछ लोग भी हैं
उन मूर्तियों के साथ
किन्तु उसके
विचारों की भीड़
उससे छिटक कर
आज की भीड़ में
कहीं खो गई है।
दीवारों पर
अलंकृत पोस्टरों में
लटक रही है
पुस्तकों के भीतर कहीं
दब गई है।
आज
उस भीड़ पर
भीड़-तंत्र हावी हो गया है।
.
अरे हाँ !
आज उस मूर्ति पर
माल्यार्पण अवश्य करना।
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बिना बड़े सपनों के जीता हूं
कंधों पर तुम्हारे भी
बोझ है मेरे भी।
तुम्हारा बोझ
तुम्हारे कल के लिए है
एक डर के साथ ।
मेरा बोझ मेरे आज के लिए है
निडर।
तुम अपनों के, सपनों के
बोझ के तले जी रहे हो।
मैं नि:शंक।
डर का घेरा बुना है
तुम्हारे चारों ओर
इस बोझ को सही से
न उठा पाये तो
कल क्या होगा।
कल, आज और कल
मैं नहीं जानता।
बस केवल
आज के लिए जीता हूं
अपनों के लिए जीता हूं।
नहीं जानता कौन ठीक है
कौन नहीं।
पर बिना बड़े सपनों के जीता हूं
इसलिए रोज़
आराम की नींद सोता हूं।
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मन के भाव देख प्रेयसी
रंग रूप की ऐसी तैसी
मन के भाव देख प्रेयसी
लीपा-पोती जितनी कर ले
दर्पण बोले दिखती कैसी
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मतदान मेरा कर्त्तव्य भी है
मतदान मेरा अधिकार है
पर किसने कह दिया
कि ज़िम्मेदारी भी है।
हां, अधिकार है मेरा मतदान।
पर कौन समझायेगा
कि अधिकार ही नहीं
कर्त्तव्य भी है।
जिस दिन दोनों के बीच की
समानान्तर रेखा मिट जायेगी
उस दिन मतदान सार्थक होगा।
किन्तु
इतना तो आप भी जानते ही होंगें
कि समानान्तर रेखाएं
कभी मिला नहीं करतीं।
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गलत और सही
कहते हैं
अन्त सही तो सब सही।
किन्तु मेरे गले ऐसे
बोध-भाव नहीं उतरते।
शायद जीवन की कड़वाहटें हैं
या कुछ और।
किन्तु यदि
प्रारम्भ सही न हो तो
अन्त कैसे हो सकता है सही।
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वे पिता ही थे
वे पिता ही थे
जिन्होंने थामा था हाथ मेरा।
राह दिखाई थी मुझे
अंधेरे से रोशनी तक
बिखेरी थी रंगीनियां मेरे जीवन में।
और समझाया था मुझे
एक दिन छूट जायेगा मेरा हाथ
और आगे की राह
मुझे स्वयं ही चुननी होगी।
मुझे स्वयं जूझना होगा
रोशनी और अंधेरों से।
और कहा था
प्रतीक्षा करूंगा तुम्हारी
तुम लौटकर आओगी
और थामोगी मेरा हाथ
मेरी लाठी छीनकर।
तब
फिर घूमेंगे हम
साथ-साथ
यूं ही हाथ पकड़कर।
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कोई तो आयेगा
भावनाओं का वेग
किसी त्वरित नदी की तरह
अविरल गति से
सीमाओं को तोड़ता
तीर से टकराता
कंकड़-पत्थर से जूझता
इक आस में
कोई तो आयेगा
थाम लेगा गति
सहज-सहज।
.
जीवन बीता जाता है
इसी प्रतीक्षा में
और कितनी प्रतीक्षा
और कितना धैर्य !!!!
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फूल तो फूल हैं
फूल तो फूल हैं
कहीं भी खिलते हैं।
कभी नयनों में द्युतिमान होते हैं
कभी गालों पर महकते हैं
कभी उपवन को सुरभित करते हैं,
तो कभी मन को
आनन्दित करते हैं,
मन के मधुर भावों को
साकार कर देते हैं
शब्द को भाव देते हैं
और भाव को अर्थ।
प्रेम-भाव का समर्पण हैं,
कभी किसी की याद में
गुलदानों में लगे-लगे
मुरझा जाते हैं।
यही फूल स्वागत भी करते हैं
और अन्तिम यात्रा भी।
और कभी किसी की
स्मृतियों में जीते हैं
ठहरते हैं उन पर आंसू
ओस की बूंदों से।
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नेह की पौध बीजिए
घृणा की खरपतवार से बचकर चलिए।
इस अनचाही खेती को उजाड़कर चलिए।
कब, कहां कैसे फैले, कहां समझें हैं हम,
नेह की पौध बीजिए, नेह से सींचते चलिए।