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उल्लू बोला मिठू से
चल आज नाम बदल लें
तू उल्लू बन जा
और मैं बनता हूँ तोता,
फिर देखें जग में
क्या-क्या होता।
जो दिन में होता
गोरा-गोरा,
रात में होता काला।
मैं रातों में जागूँ
दिन में सोता
मैं निद्र्वंद्व जीव
न मुझको देखे कोई
न पकड़ सके कोई।
-
आजा नाम बदल लें।
-
फिर तुझको भी
न कोई पिंजरे में डालेगा,
और आप झूठ बोल-बोलकर
तुझको न बोलेगा कोई
हरि का नाम बोल।
-
चल आज नाम बदल लें
चल आज धाम बदल लें
कभी तू रातों को सोना
कभी मैं दिन में जागूँ
फिर छानेंगे दुनिया का
सच-झूठ का कोना-कोना।
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श्याम-पटल पर लिख रहे हम
जीवन में
दो गुणा दो चार होते हैं
किन्तु बहुत बाद में पता लगा
कि दो और दो भी चार ही होते हैं।
समस्या तब आती है
जब हम देखते हैं कि
दो गुणा तीन तो छ: होते ह ैं
किन्तु दो और तीन तो छ: नहीं होते।
और जीवन में
पन्द्र्ह और सोलह
कब और कैसे हो जाते हैं
समझ ही नहीं पाते ।
श्याम-पटल पर लिख रहे हम
श्वेताक्षर,
मिट जाते हैं,
किन्तु जीवन का गुणा-भाग
जीवन का स्याह-सफ़ेद
नहीं मिटता कभी
श्याम-पटल से जीवन-पटल की राहें
सुगम नहीं ,
पर इतनी दुर्गम भी नहीं
जब जीवन की पुस्तक में
साथ हो
एक गुरू का, शिक्षक का ।
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तिरंगे का एहसास
जब हम दोनों
साथ खड़े होते हैं
तब
तिरंगे का
एहसास होता है।
केसरिया
सफ़ेद और हरा
मानों
साथ-साथ चलते हैं
बाहों में बाहें डाले।
चलो, यूँ ही
आगे बढ़ते हैं
अपने इस मैत्री-भाव को
अमर करते हैं।
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जीवन संघर्ष
प्रदर्शन नहीं, जीवन संघर्ष की विवशता है यह
रोज़ी-रोटी और परवरिश का दायित्व है यह
धूप की माया हो, या हो आँधी-बारिश, शिशिर
कठोर धरा पर निडर पग बढ़ाना, जीवन है यह
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कशमकश में बीतता है जीवन
सुख-दुख तो जीवन की बाती है
कभी जलती, कभी बुझती जाती है
यूँ ही कशमकश में बीतता है जीवन
मन की भटकन कहाँ सम्हल पाती है।
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दिल आजमाने में लगे हैं
अब गुब्बारों में दिल सजाने लगे हैं
उनकी कीमत हम लगाने लगे हैं
पांच-सात रूपये में ले जाईये मनचाहे
फुलाईये, फोड़िए
या यूं ही समय बिताने में लगे हैं
मायूसे दिल की ओर तो कोई देखता ही नहीं
सोने चांदी के भाव अब लगाने लगे हैं
दिल कहां, दिलदार कहां अब
बातें करते बहुत
पर असल ज़िन्दगी में टांके लगाने लगे हैं
कुछ तुम दीजिए, कुछ हमसे लीजिए
पर न फोड़ना इस दिल को
न काटना इसे
असलियत निकल आयेगी
न खून बहेगा, न आस आहें भरेंगी
बस रोंआ-रोंआ बिखरेगा
सरकार ने प्लास्टिक बन्द कर दिया है
बस इतनी सी बात हम बताने में लगे हैं
समझ आया हो कुछ, तो ठीक
नहीं तो हम
कहीं और दिल आजमाने में लगे हैं।
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मदमस्त जिये जा
जीवन सरल सहज है बस मस्ती में जिये जा
सुख दुख तो आयेंगे ही घोल पताशा पिये जा
न बोल, बोल कड़वे, हर दिन अच्छा बीतेगा
अमृत गरल जो भी मिले हंस बोलकर लिये जा
कौन क्या कहता है भूलकर मदमस्त जिये जा
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धरा पर पांव टिकते नहीं
और चाहिये और चाहिए की भूख में छूट रहे हैं अवसर
धरा पर पांव टिकते नहीं, आकाश को छू पाते नहीं अक्सर
यह भी चाहिये, वह भी चाहिए, लगी है यहां बस भाग-दौड़
क्या छोड़ें, क्या लें लें, इसी उधेड़-बुन में रह जाते हैं अक्सर
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काश ! इंसान वट वृक्ष सा होता
कहते हैं
जड़ें ज़मीन में जितनी गहरी हों
वृक्ष उतने ही फलते-फूलते हैं।
अपनी मिट्टी की पकड़
उन्हें उर्वरा बनाये रखती है।
किन्तु वट-वृक्ष !
मैं नहीं जानती
कि ज़मीन के नीचे
इसकी कहां तक पैठ है।
किन्तु इतना समझती हूं
कि अपनी जड़ों को
यह धरा पर भी ले आया है।
डाल से डाल निकलती है
उलझती हैं,सुलझती हैं
बिखरती हैं, संवरती हैं,
वृक्ष से वृक्ष बनते हैं।
धरा से गगन,
और गगन से धरा की आेर
बार-बार लौटती हैं इसकी जड़ें
नव-सृजन के लिए।
-
बस
इंसान की हद का ही पता नहीं लगता
कि कितना ज़मीन के उपर है
और कितना ज़मीन के भीतर।
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मदमाता शरमाता अम्बर
रंगों की पोटली लेकर देखो आया मदमाता अम्बर ।
भोर के साथ रंगों की पोटली बिखरी, शरमाता अम्बर ।
रवि को देख श्वेताभा के अवगुंठन में छिपता, भागता।
सांझ ढले चांद-तारों संग अठखेलियां कर भरमाता अम्बर।
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अपनी पहचान की तलाश
नाम ढूँढती हूँ पहचान पूछती हूँ ।
मैं कौन हूँ बस अपनी आवाज ढूँढती हूँ ।
प्रमाणपत्र जाँचती हूँ
पहचान पत्र तलाशती हूँ
जन्मपत्री देखती हूँ
जन्म प्रमाणपत्र मांगती हूँ
बस अपना नाम मांगती हूँ।
परेशान घूमती हूँ
पूछती हूँ सब से
बस अपनी पहचान मांगती हूं।
खिलखिलाते हैं सब
अरे ! ये कमला की छुटकी
कमली हो गई है।
नाम ढूँढती है, पहचान ढूँढती है
अपनी आवाज ढूँढती है।
अरे ! सब जानते हैं
सब पहचानते हैं
नाम जानते हैं।
कमला की बिटिया, वकील की छोरी
विन्नी बिन्नी की बहना,
हेमू की पत्नी, देवकी की बहू,
और मिठू की अम्मा ।
इतने नाम इतनी पहचान।
फिर भी !
परेशान घूमती है, पहचान पूछती है
नाम मांगती है, आवाज़ मांगती है।
मैं पूछती हूं
फिर ये कविता कौन है
कौन है यह कविता ?
बौखलाई, बौराई घूमती हूं
नाम पूछती हूं, अपनी आवाज ढूँढती हूं
अपनी पहचान मांगती हूं
अपना नाम मांगती हूं।