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इतिहास हमारा स्वर्णिम था, या था समस्याओं का काल
किसने देखा, किसने जाना, बस पढ़ा-सुना कुछ हाल
गल्प कथाओं से भरा, सत्य है या कल्पना कौन कहे
यूँ ही लड़ते-फिरते हैं, निकाल रहे बस बाल की खाल
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मतदान मेरा कर्त्तव्य भी है
मतदान मेरा अधिकार है
पर किसने कह दिया
कि ज़िम्मेदारी भी है।
हां, अधिकार है मेरा मतदान।
पर कौन समझायेगा
कि अधिकार ही नहीं
कर्त्तव्य भी है।
जिस दिन दोनों के बीच की
समानान्तर रेखा मिट जायेगी
उस दिन मतदान सार्थक होगा।
किन्तु
इतना तो आप भी जानते ही होंगें
कि समानान्तर रेखाएं
कभी मिला नहीं करतीं।
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एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में
एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में
मेरे दिमाग में।
आपसे आज साझा करना चाहती हूं।
असमंजस में रहती हूं।
बात कुछ और चल रही होती है
और मैं कुछ और अर्थ निकाल लेती हूं।
अब आज की ही बात लीजिए।
नवरात्रों में
मां की चुनरी की बात हो रही थी
और मुझे होलिका की याद हो आई।
अब आप इसे मेरे दिमाग की भटकन ही तो कहेंगे।
लेकिन मैं क्या कर सकती हूं।
जब भी चुनरी की बात उठती है
मुझे होलिका जलती हुई दिखाई देती है,
और दिखाई देती है उसकी उड़ती हुई चुनरी।
कथाओं में पढ़ा है
उसके पास एक वरदान की चुनरी थी ।
शायद वैसी ही कोई चुनरी
जो हम कन्याओं का पूजन करके
उन्हें उढ़ाते हैं और आशीष देते हैं।
किन्तु कभी देखा है आपने
कि इन कन्याओं की चुनरी कब, कहां
और कैसे कैसे उड़ जाती है।
शायद नहीं।
क्योंकि ये सब किस्से कहानियां
इतने आम हो चुके हैं
कि हमें इसमें कुछ भी अनहोनी नहीं लगती।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
बात तो माता की चुनरी और
होलिका की चुनरी की कर रही थी
और मैं कहां कन्या पूजन की बात कर बैठी।
फिर लौटती हूं अपनी बात की आेर,
पता नहीं होलिका मां थी या नहीं।
किन्तु एक भाई की बहिन तो थी ही
और एक कन्या
जिसने भाई की आज्ञा का पालन किया था।
उसके पास एक वरदानमयी चुनरी थी।
और था एक अत्याचारी भाई।
शायद वह जानती भी नहीं थी
भाई के अत्याचारों, अन्याय को
अथवा प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति को।
और अपने वरदान या श्राप को।
लेकिन उसने एक बुरी औरत बनकर
बुरे भाई की आज्ञा का पालन किया।
अग्नि देवता आगे आये थे
प्रह्लाद की रक्षा के लिए।
किन्तु होलिका की चुनरी न बचा पाये,
और होलिका जल मरी।
वैसे भी चुनरी की आेर
किसी का ध्यान ही कहां जाता है
हर पल तो उड़ रही हैं चुनरियां।
और हम !
हमारे लिए एक पर्व हो जाता है
एक औरत जलती है
उसकी चुनरी उड़ती है और हम
आग जलाकर खुशियां मनाते हैं।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
अब आग तो बस आग होती है
जलाती है
और जिसे बचाना हो बचा भी लेती है।
अब देखिए न, अग्नि देव ले आये थे
सीता को ले आये थे सुरक्षित बाहर,
पवित्र बताया था उसे।
और राम ने अपनाया था।
किन्तु कहां बच पाई थी उसकी भी चुनरी
घर से बेघर हुई थी अपमानित होकर
फिर मांगा गया था उससे पवित्रता का प्रमाण।
और वह समा गई थी धरा में
एक आग लिए।
कहते हैं धरा के भीतर भी आग है।
आग मेरे भीतर भी धधकती है।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
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आनन्द उठाने चल रही ज़िन्दगी
रंगों के बीच कदम उठाकर चल रही है ज़िन्दगी।
चांद की मद्धम रोशनी में पल रही है ज़िन्दगी।
धरा और आकाश में भावों का ज्वार उठ रहा,
एकाकीपन का आनन्द उठाने चल रही है ज़िन्दगी।
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अपने कदम बढ़ाना
किसी के कदमों के छूटे निशान न कभी देखना
अपने कदम बढ़ाना अपनी राह आप ही देखना
शिखर तक पहुंचने के लिए बस चाहत ज़रूरी है
अपनी हिम्मत लेकर जायेगी शिखर तक देखना
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आशाओं का सूरज
ये सूरज मेरी आशाओं का सूरज है
ये सूरज मेरे दु:साहस का सूरज है
सीढ़ी दर सीढ़ी कदम उठाती हूं मैं
ये सूरज तम पर मेरी विजय का सूरज है
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खुशियों की कोई उम्र नहीं होती
उम्र का तकाज़ा मत देना मुझे,
कि जी चुके अपनी ज़िन्दगी,
अब भगवान-भजन के दिन हैं।
जीते तो हैं हम,
पर वास्तव में
ज़िन्दगी शुरु कब होती है,
कहां समझ पाते हैं हम।
कर्म किये जा, कर्म किये जा,
बस कर्म किये जा।
जीवन के आनन्द, खुशियों को
एक झोले में समेटते रहते हैं,
जब समय मिलेगा
भोग लेंगे।
और किसी खूंटी पर टांग कर
अक्सर भूल जाते हैं।
और जब-जब झोले को
पलटना चाहते हैं,
पता लगता है,
खुशियों की भी
एक्सपायरी डेट होती है।
या फिर,
फिर कर्मों की सूची
और उम्र का तकाज़ा मिलता है।
पर खुशियों की कोई उम्र
नहीं होती,
बस जीने का सलीका आना चाहिए।
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अपने-आपको अपने साथ ही बांटिये अपने-आप से मिलिए
हम अक्सर सन्नाटे और
शांति को एक समझ बैठते हैं।
शांति भीतर होती है,
और सन्नाटा !!
बाहर का सन्नाटा
जब भीतर पसरता है
बाहर से भीतर तक घेरता है,
तब तोड़ता है।
अन्तर्मन झिंझोड़ता है।
सन्नाटे में अक्सर
कुछ अशांत ध्वनियां होती हैं।
हवाएं चीरती हैं
पत्ते खड़खड़ाते हैं,
चिलचिलाती धूप में
बेवजह सनसनाती आवाज़ें,
लम्बी सूनी सड़कें
डराती हैं,
आंधियां अक्सर भीतर तक
झकझोरती हैं,
बड़ी दूर से आती हैं
कुत्ते की रोने की आवाज़ें,
बिल्लियां रिरियाती है।
पक्षियों की सहज बोली
चीख-सी लगने लगती है,
चेहरे बदनुमा दिखने लगते हैं।
हम वजह-बेवजह
अन्दर ही अन्दर घुटते हैं,
सोच-समझ
कुंद होने लगती है,
तब शांति की तलाश में निकलते हैं
किन्तु भीतर का सन्नाटा छोड़ता नहीं।
कोई न मिले
तो अपने-आपको
अपने साथ ही बांटिये,
अपने-आप से मिलिए,
लड़िए, झगड़िए, रूठिए,मनाईये।
कुछ खट्टा-मीठा, मिर्चीनुमा बनाईये
खाईए, और सन्नाटे को तोड़ डालिए।
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सूर्यग्रहण के चित्र पर एक रचना
दूर कहीं गगन में
सूरज को मैंने देखा
चन्दा को मैंने देखा
तारे टिमटिम करते
जीवन में रंग भरते
लुका-छिपी ये खेला करते
कहते हैं दिन-रात हुई
कभी सूरज आता है
कभी चंदा जाता है
और तारे उनके आगे-पीछे
देखो कैसे भागा-भागी करते
कभी लाल-लाल
कभी काली रात डराती
फिर दिन आता
सूरज को ढूंढ रहे
कोहरे ने बाजी मारी
दिन में देखो रात हुई
चंदा ने बाजी मारी
तम की आहट से
दिन में देखो रात हुई
प्रकृति ने नवचित्र बनाया
रेखाओं की आभा ने मन मोहा
दिन-रात का यूं भाव टला
जीवन का यूं चक्र चला
कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे
कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते
बस, जीवन का यूं चक्र चला
कैसे समझा, किसने समझा
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जीवन की डोर पकड़
पुष्प-पल्लवविहीन वृक्षों का
अपना ही
एक सौन्दर्य होता है।
कुछ बिखरी
कुछ उलझी-सुलझी
किसी छत्रछाया-सी
बिना झुके,
मानों गगन को थामे
क्षितिज से रंगीनियाँ
सहेजकर छानतीं,
भोर की मुस्कान बाँटतीं
मानों कह रही
राही बढ़े चल
कुछ पल विश्राम कर
न डर, रह निडर
जीवन की डोर पकड़
राहों पर बढ़ता चल।
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विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था
जीवन में क्यों कोई हमारे हमराज़ नहीं था
यूं तो चैन था, हमें कोई एतराज़ नहीं था
मन चाहता है कि कोई मिले, पर क्या करें
विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था