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इतिहास हमारा स्वर्णिम था, या था समस्याओं का काल
किसने देखा, किसने जाना, बस पढ़ा-सुना कुछ हाल
गल्प कथाओं से भरा, सत्य है या कल्पना कौन कहे
यूँ ही लड़ते-फिरते हैं, निकाल रहे बस बाल की खाल
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काहे तू इठलाय
हाथों में कमान थाम, नयनों से तू तीर चलाय।
हिरणी-सी आंखें तेरी, बिन्दिया तेरी मन भाय।
प्रत्यंचा खींच, देखती इधर है, निशाना किधर है,
नाटक कंपनी की पोशाक पहन काहे तू इठलाय।
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बहुत आनन्द आता है मुझे
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
सब ऊपर वाले की मर्ज़ी।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
कर्म कर, फल की चिन्ता मत कर।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
यह तो मेरे परिश्रम का फल है।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कर्मों का हिसाब करते हैं
और कहते हैं कि मुझे
कर्मानुसार मान नहीं मिला।
कहते हैं यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई।
कर्मों का लेखा-जोखा
अच्छा-बुरा सब लिखकर भेजा है।
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आपको नहीं लगता
हम अपनी ही बात में बात
बात में बात कर-करके
और अपनी ही बात
काट-काटकर
अकारण ही
परेशान होते रहते हैं।
-
लेकिन मुझे
बहुत आनन्द आता है।
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भाव तिरंगे के
बालमन भी समझ गये हैं भाव तिरंगे के
केशरी, श्वेत, हरे रंगों के भाव तिरंगे के
गर्व से शीश उठता है, देख तिरंगे को
शांति, सत्य, अहिंसा, प्रेम भाव तिरंगे के
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ढोल की थाप पर
संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।
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आशाओं का जाल
जो है वह नहीं,
जो नहीं है,
उसकी ही प्रतीक्षा में
विचलित रहता है मन।
शिशिर में ग्रीष्म ,
और ग्रीष्म में चाहिए झड़ी।
जी जलता है आशाओं के जाल में।
देता है जीवन दिल खोलकर,
बस हम पकड़ते ही नहीं।
पकड़ते नहीं जीवन के
लुभावने पलों को ।
एक मायावी संसार में जीते हैं,
और-और की आस में।
और इस और-और की आस में,
जो मिला है
उसे भी खो बैठते हैं।
आत्माओं का मिलन चाहते हैं,
और सम्बन्धों को संवारते नहीं।
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संस्मरण /यात्रा संस्मरण
रविवार 3 जुलाई का दिन बहुत अच्छा बीता। एक नया अनुभव, फ़ेसबुक के वे मित्र जिनसे वर्षों से कविताओं एवं प्रतिक्रियाओं के माध्यम से मिलते थे, ऑनलाईन कवि सम्मेलन में मिलते थे एवं कभी फ़ोन पर भी बात होती थी, उनसे मिलना और एक सुन्दर, भव्य कवि सम्मेलन का हिस्सा बनना।
फ़ेसबुक का पर्पल पैन साहित्यिक मंच एवं मंच की संस्थापक/संचालक वसुधा कनुप्रिया जी का दूर से ही मिलने वाला नेह मुझे कल दिल्ली ले गया।
इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनने के लिए मैंने कल पंचकूला से दिल्ली तक की आने-जाने की टैक्सी की और लगभग दस घंटे की यात्रा की। प्रातः सात बजे जब घर से निकली तो मूसलाधार वर्षा, सड़कों पर बने तालाब, रुकता-चलता ट्रैफ़िक प्रतीक्षा कर रहा था। मेरी अधिक यात्रा तो सोते ही बीतती है। करनाल से पहले से मौसम ठीक होने लगा था। वसुधा जी से और घर में भी निरन्तर बात अथवा वाट्सएप संदेष चल रहे थे। उन्होंने मुझे लोकेशन, निकटवर्ती स्थल आदि की सूचना भी भेज दी। करनाल में अल्पाहार कर जब दिल्ली की सीमा के निकट पहुँचे तो मोबाईल ने कुछ पूछा, हाँ अथवा कैंसल। मैं ऐसे मामलों में अपना दिमाग़ कदापि नहीं लगाती, बेटे से पूछा, शायद मैं उसे कुछ ठीक बता नहीं पाई और रोमिंग बंद। वाट्सएप बन्द। मैं समझाने पर भी नहीं समझ पाई। इस बीच हम कार्यक्रम स्थल तक पहुँच चुके थे। फिर वसुधा जी का सहारा लिया। भाग्य रहा कि निकट ही एक छोटी सी दुकान मिल गई और उन्होंने रोमिंग चला दी। सांस में सांस आई।
वसुधा जी की चिन्ता मन को छू जाती है। उनका प्रातः भी फ़ोन आया कि मौसम देखकर निकलिएगा। वे इस बात की भी चिन्ता कर रही थीं कि मैं दोपहर में एक-दो बजे पहुँचूंगी तो भूख लगी होगी। वे मेरे लिए और मेरे टैक्सी चालक के लिए विशेष रूप ढोकला लेकर आईं। वसुधा जी एवं डॉण् इन्दिरा शर्माए मीनाक्षी भटनागर ए रजनी रामदेवए गीता भाटियाए वंदना मोदी गोयलए वीणा तँवरए शारदा मदराए रामकिशोर उपाध्यायए एवं एक-दो मित्र-परिचित और जिनके मैं नाम भूल रही हूँ, लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं। एक अपनत्व की धारा थी। अन्य कवि भी प्रथम परिचय में आत्मीय भाव से मिले। वसुधा जी की मम्मी से मिलना भी बहुत सुखद रहा।
मधुश्री जी की पुस्तक का विमोचन भी हुआ।
कवि सम्मेलन का अनुभव बहुत अच्छा रहा। एक नयापन, विविधात्मक रचनाएँ, एवं सहज वातावरण, सुव्यवस्थित कार्यक्रम एवं आयोजन मन आनन्दित कर गया।
आयोजन की अध्यक्षता मशहूर उस्ताद शायर श्री सीमाब सुल्तानपुरी ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में विधि भारती परिषद् की संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री संतोष खन्ना, विष्णु प्रभाकर संस्थान के संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार श्री अतुल प्रभाकर और विख्यात शायर श्री मलिकज़ादा जावेद की गरिमामयी उपस्थिति एवं उनका काव्य पाठ सुनना अत्यन्त सुखद अनुभव रहे।
दोपहर में दिल्ली में वर्षा के कारण कार्यक्रम कुछ विलम्ब से आरम्भ हो पाया और समाप्त होते-होते साढ़े सात बज गये। अब भूख तो लग ही रही थी। रात्रि किसी ढाबे में भोजन के लिए रुकना बनता ही नहीं था। इस कारण विलम्ब होते हुए भी मैं समोसे और चने खाने से अपने-आपको रोक नहीं पाई। रात्रि आठ बजकर दस मिनट में दिल्ली से निकले और रात्रि 12.15 पर पंचकूला पहुंची।
किन्तु इस बीच दो दुर्घटनाएँ देखीं। एक कार पीछे से तेज़ गति से आ रही थी, चालक ने देख लिया और उसे रास्ता देने का प्रयास किया । वह तेज़ी से निकली किन्तु अनियन्त्रित हो चुकी थी। हमारी टैक्सी से बाईं ओर चल रहे ट्रक के सामने घूम गई, ट्रक चालक ने भी गति धीमी कर उसे बचाने का प्रयास किया किन्तु कार तेज़ी से घूमती हुई बाईं ओर बैरीकेड मोड़ से टकराई और तीन-चार बार पलटकर बड़े धुएँ के गुबार में खो गई। उसके बाद मेरी नींद उड़ गई। थोड़ी ही आगे जाने पर सड़क बीच में एक ट्रैक्टर ट्राली पलटी हुई थी। थकावट और टांगों में दर्द तो थी ही, मैंने जल्दी से पर्स से कांबीफ्लेम निकाली और खा ली, और फिर मैं सो गई।
इस बीच घर तो बात चल ही रही थी, वसुधा जी का भी दो बार कुशलता जानने के लिए फ़ोन आया। अपनी सारी व्यस्तताओं के बीच वे सबकी जानकारी ले रही थीं। ऐसे मित्र और ऐसा नेह कठिनाई से मिलता है, नेह बना रहे।
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ऐसा नहीं होता मेरे मालिक
कर्म न करना,
परिश्रम न करना,
धर्म न निभाना
बस राम-नाम जपना।
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आंखें बन्द कर लेने से
बिल्ली नहीं भाग जाती।
राम-नाम जपने से
समस्या हल नहीं हो जाती।
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कुछ चरित्र हमें राह दिखाते हैं।
सन्मार्ग पर चलाते हैं।
किन्तु उनका नाम लेकर
हाथ पर हाथ धरे
बैठने को नहीं कहते हैं।
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बुद्धि दी, समझ दी,
दी हमें निर्माण-विध्वंस की शक्ति।
दुरुपयोग-सदुपयोग हमारे हाथ में था।
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भूलें करें हम,
उलट-पुलट करें हम,
और जब हाथ से बाहर की बात हो,
तो हे राम ! हे राम!
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ऐसा नहीं होता मेरे मालिक।
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हरपल बदले अर्थ यहाँ
शब्दों के अब अर्थ कहाँ, सब कुछ लगता व्यर्थ यहाँ
कहते कुछ हैं, करते कुछ है, हरपल बदले अर्थ यहाँ
भाव खो गये, नेह नहीं, अपनेपन की बात नहीं अब
किसको मानें, किसे मनायें, इतनी अब सामर्थ्य कहाँ
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जब बजता था डमरू
कहलाते शिव भोले-भाले थे
पर गरल उन्होंने पिया था
नरमुण्डों की माला पहने,
विषधर उनके आभूषण थे
भूत-प्रेत-पिशाच संगी-साथी
त्रिशूल हाथ में लिया था
त्रिनेत्र खोल जब बजता था डमरू
तीनों लोकों के दुष्टों का
संहार उन्होंने किया था
चन्द्र विराज जटा पर,
भागीरथी को जटा में रोक
विश्व को गंगामयी किया था।
भांग-धतूरा सेवन करते
भभूत लगाये रहते थे।
जग से क्या लेना-देना
सुदूर पर्वत पर रहते थे।
* * * *
अद्भुत थे तुम शिव
नहीं जानती
कितनी कथाएं सत्य हैं
और कितनी कपोल-कल्पित
किन्तु जो भी हैं बांधती हैं मुझे।
* * * * *
तुम्हारी कथाओं से
बस
तुम्हारा त्रिनेत्र, डमरू
और त्रिशूल चाहिए मुझे
शेष मैं देख लूंगी ।
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कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल
कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल बना रहे हैं राजाजी
हरदम केतली चढ़ा अपनी वीरता दिखा रहे हैं राजाजी
पानी खौल गया, आग बुझी, कभी भड़क गई देखो ज़रा
फीकी, बासी चाय पिला-पिलाकर बहका रहे हैं राजाजी