जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं और दूसरे की ओर अंगुली उठाते हैं तो चार अंगुलियाँ स्वयंमेव ही अपनी ओर उठती हैं जिन्हें हम स्वयं ही नहीं देखते। यह पुरानी कहावत है।
वास्तव में हम सब भ्रष्टाचारी हैं। बात बस इतनी है कि जिसकी जितनी औकात है उतना वह भ्रष्टाचार कर लेता है। किसी की औकात 100 रुपये की है तो किसी की 100 करोड़ की। किन्तु 100 रुपये वाला स्वयं को ईमानदार कहता है। हम मंहगाई की बात करते हैं किन्तु सुविधाभेागी हो गये हैं। बिना कष्ट उठाये धन से हर कार्य करवा लेना चाहते हैं। हमें दूसरे का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार लगता है और अपना आवश्यकता, विवशता।
यदि हम अपनी ओर उठने वाली चार अंगुलियों के प्रश्न और उत्तर दे सकें तो शायद हम भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना योगदान दे सकते हैं:
पहली अंगुली मुझसे पूछती है: क्या मैं विश्वास से कह सकती हूँ कि मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूँ ।
दूसरी अंगुली कहती है: अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं तो क्या भ्रष्टाचार का विरोध करती हूँ ?
तीसरी अंगुली कहती है: कि अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं किन्तु भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करती तो मैं उनसे भी बड़े भ्रष्टाचारी हूँ ।
और अंत में चौथी अंगुली कहती है: अगर मैं भी भ्रष्टाचारी हूं तो सामने की अंगुली को भी अपनी ओर मोड़ लेना चाहिए और मुक्का बनाकर अपने पर वार करना चाहिए। दूसरों को दोष देने और सुधारने से पहले पहला कदम अपने प्रति उठाना होगा।
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सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी
साईकिल, हाथी, पंखा, छाता, लिए हाथ में खड़े रहे
जब से आया झाड़ूवाला सब इधर-उधर हैं दौड़ रहे
छूट न जाये,रूठ न जाये, सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी
देखेंगे गिनती के बाद कौन-कौन कहां-कहां हैं गढ़े रहे
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यह जीवन है
कुछ गांठें जीवन-भर
टीस देती हैं
और अन्त में
एक बड़ी गांठ बनकर
जीवन ले लेती हैं।
जीवन-भर
गांठों को उकेरते रहें
खोलते
या किसी से
खुलवाते रहें,
बेहिचक बांटते रहें
गांठों की रिक्तता,
या उनके भीतर
जमा मवाद उकेरते रहें,
तो बड़ी गांठें नहीं लेंगी जीवन
नहीं देंगी जीवन-भर का अवसाद।
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जीवन में सुख दुख शाश्वत है
सूर्य का गमन भी तो एक नया संदेश देता है
चांदनी छिटकती है, शीतलता का एहसास देता है
जीवन में सुख-दुख की अदला-बदली शाश्वत है
चंदा-सूरज के अविराम क्रम से हमें यह सीख देता है
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मन का इन्द्रधनुष
कौन समझ पाया है
मन के रंगों को
मन की तरंगों को।
अपना ही मन
अपने ही रंगों को
संवारता है
बिखेरता है
उलझता है
और कभी उलझाता है।
मन का इन्द्रधनुष
रंगों की आभा को
निरखता है,
निखारता है,
तूलिका से
किसी पटल पर उकेरता है।
एक रूप देने का प्रयास
करती हूं
भावों को, विचारों को।
मन विभोर होता है।
आनन्द लेती हूं
रंगों से मन सराबोर होता है।
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अपनी हिम्मत अपनी राहें
बाधाओं को तोड़कर राहें बनाने का मज़ा ही कुछ और है
धरा और पाषाण को भेदकर जीने का मज़ा ही कुछ और है
सिखा जाता है यह अंकुरण, सुविधाओं में तो सभी पनप लेते हैं
अपनी हिम्मत से अपनी राहें बनाने का मज़ा ही कुछ और है।
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कर्तव्य श्री
दृश्य एकः
श्री जी की पत्नी का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गई। माता-पिता बूढ़े थे, बच्चे छोटे-छोटे। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था बच्चे और घर कहां संभाल पाते। और श्री जी अपनी नौकरी देखें, बच्चे संभाले या बूढे़-बुढ़िया की सेवा करें।
बड़ी समस्या हुई। कभी भूखे पेट सोते, कभी बाहर से गुज़ारा करते। श्री जी से सबकी सहानुभूति थी। कभी सासजी आकर घर संभालती, कभी सालियांजी, कभी भाभियांजी और कभी बहनेंजी। पर आखिर ऐसे कितने दिन चलता। आदमी आप तो कहीं भी मुंह मार ले पर ये बूढ़े-बुढ़िया और बच्चे।
अन्ततः सबने समझाया और श्री जी की भी समझ में आया। रोटी बनाने वाली, बच्चों कोे सम्हालने वाली, घर की देखभाल करने वाली और बूढ़े-बुढ़िया की देखभाल करने वाली कोई तो होनी ही चाहिए। भला, आदमी के वश का कहां है ये सब। वह नौकरी करे या ये सब देखे। सो मज़बूर होकर महीने भर में ही लानी पड़ी।
और इस तरह श्री जी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।
‘अथ सर्वशक्तिमान पुरुष’
दृश्य दोः
श्रीमती जी के पति का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गये। सास-ससुर बूढ़े थे। बच्चे छोटे-छोटे। श्रीमती जी स्वयं अभी बच्चा-सी दिखतीं। दसवीं की नहीं कि माता-पिता पर भारी हो गई। शहर में लड़का मिल गया सरकारी नौकर, घर ठीक-ठाक-सा। बस झटपट शादी कर दी। अब यह पहाड़ टूट पड़ा। कभी दहलीज न लांघी थी, सिर से पल्लू न हटा था। पर अब कमाकर खिलाने वाला कोई न रहा। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था, करते-कमाते क्या ? भूखांे मरने की नौबत दिखने लगी।
अब नाते-रिश्तेदार भी क्या करें ? सबका अपना-अपना घर, बाल-बच्चे, काम और नौकरियां, आखिर कौन कितने दिन तक साथ देता। सब एक-दूसरे से पहले खिसक जाना चाहते थे। कहीं ये बूढ़े-बुढ़िया, श्रीमतीजी या बच्चे किसी का पल्लू न पकड़ लें।
अन्ततः श्रीमती जी स्वयं उठीं। पल्लू सिर से उतारकर कमर में कसा। पति के कार्यालय जाकर खड़ी हो गईं नौकरी पाने के लिए।
अभी महीना भी न बीता था कि श्रीमतीजी लगी दफ्तर में कलम चलाने। प्रातः पांच बजे उठकर घर संवारतीं, बूढ़े-बुढ़िया की आवश्यकताएं पूरी करती। बच्चों को स्कूल भेजतीं। खाना-वाना बनाकर दस बजे दफ््तर पहुंच जाती, दिन-भर वहां कलम घिसतीं। शाम को बच्चों का पढ़ातीं। घर-बाहर देखतीं, राशन-पानी जुटाती, दुनियादारी निभातीं। खाती-खिलाती औेर सो जातीं।
और इस तरह श्रीमतीजी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।
‘बेचारी कमज़ोर औरत’
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विचारों का झंझावात
अजब है
विचारों का झंझावात भी
पलट-पलट कर कहता है
हर बार नई बात जी।
राहें, चौराहे कट रहे हैं
कदम भटक रहे हैं
कहाँ से लाऊँ
पत्थरों से अडिग भाव जी।
जब धार आती है तीखी
तब कट जाते हैं
पत्थरों के अविचल भराव भी,
नदियों के किनारों में भी
आते हैं कटाव जी।
और ये भाव तो हवाएँ हैं
कब कहाँ रुख बदल जायेगा
नहीं पता हमें
मूड बदल जाये
तो दुनिया तहस-नहस कर दें
हमारी क्या बात जी।
तो कुछ
आप ही समझाएँ जनाब जी।
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शब्दों से जलाने वाले
आग लगाने वाले यहां बहुत हैं
बिना आग सुलगाने वाले बहुत हैं
बुझाने की बात तो करना ही मत
शब्दों से जलाने वाले यहां बहुत हैं
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अपने पर विश्वास बनाये रखना
ढाल नहीं, तलवार की धार बनाये रखना
माॅंगना मत सुरक्षा, हाथ में तलवार रखना
आॅंख खुली रहे, भरोसा अपने आप पर हो
हारना नहीं, अपने पर विश्वास बनाये रखना
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मेरी ज़िन्दगी की हकीकत
क्या करोगे
मेरी ज़िन्दगी की हकीकत जानकर।
कोई कहानी,
कोई उपन्यास लिखना चाहोगे।
नहीं लिख पाओगे
बहुत उलझ जाओगे
इतने कथानक, इतनी घटनाएॅं
न जाने कितने जन्मों के किस्से
कहाॅं तक पढ़ पाओगे।
एक के ऊपर एक शब्द
एक के ऊपर एक कथा
नहीं जोड़-तोड़ पाओगे।
कभी देखा है
जब कलम की स्याही
चुक जाती है
तो हम बार-बार
घसीटते हैं उसे,
शायद लिख ले, लिख ले,
कोरा पृष्ठ फटने लगता है
उस घसीटने से,
फिर अचानक ही
कलम से ढेर-सी स्याही छूट जाती है,
सब काला,नीला, हरा, लाल
हो जाता है
और मेरी कहानी पूरी हो जाती है।
ओ नादान!
न समझ पाओगे तुम
इन किस्सों को।
न उलझो मुझसे।
इसलिए
रहने दो मेरी ज़िन्दगी की हकीकत
मेरे ही पास।