पराये-पराये-से लगते हो तुम
कैसे उठते हो
बैठते हो
बोलते हो तुम,
हर दिन
पराये-पराये-से
लगते हो तुम।
कभी समय था
जब तुम्हारा हर बोल
मन को छू जाता था
तुम्हारी याद में
तन-मन
सिहर-सिहर जाता था।
कहाँ चली गई
वह मिठास
वह बातें, वह यादें
कैसे इतना
बदल सकते हो तुम।
चेहरा भी
अजनबी-सा लगता है
आवाज़
जैसे कहीं दूर से आती हुई
कानों से टकराकर
लौट जाती है
कैसे इतना बदल सकते हो तुम।
हर दिन
पराये-पराये-से लगते हो तुम।
मम्मी लेकर छतरी आई
मम्मी लेकर छतरी आई
मुझको वह तो बहुत है भाई।
रंग-बिरंगी, सुन्दर-सुन्दर।
चिड़िया उस पर बनी हुई थी
हंस-हंसकर सबको दिखलाई।
मोनू आया, सोनू आया
भागी-भागी मुन्नी आई।
बारिश आई, बारिश आई
सब छतरी के नीचे आये
कोई भागे, कोई दौड़े
थोड़ा-थोड़ा भीग रहे थे
पानी से हम खेल रहे थे
इतने में ही आंधी आई
छतरी हमारी ले उडाई
उसके पीछे-पीछे हम भागे
कभी इधर जाये
कभी उधर जाये
इतने में ही मम्मी आई
कान पकड़कर डांट लगाई।
कड़ी धूप हो या छाया
हालात कैसे भी रहें
हमें मुस्कुराना आता है।
तुम कुछ भी कहो
हमें ठहाके लगाना आता है।
गहरी उमस के बाद
बरसात होती है
धरा से उठती है मीठी सुगंध
मन में फिर भी उदासी छाती है।
जानते हैं
आंसुओं की कोई कीमत नहीं होती
इसलिए हमें
आंखों से भी मुस्कुराना आता है।
कदम-दर-कदम बढा़ती हूँ मैं
जान चुकी हूँ
कि राहों में नहीं कोई अपना मिलेगा
किसी से सहारा नहीं मांगती मैं
बिना सहारे अब चलना आता है।
उमस और बरसात तो आनी-जानी है
कड़ी धूप हो या छाया
सबका सामना करने का मन बन गया है
अब हमें
ज़िन्दगी के आरोपों से टकराना आता है।
कबीर जयन्ती के अवसर पर
क्यों होते हैं ऐसे लोग
अपना सारा जीवन
विरोध करते हैं
झूठी परम्पराओं का,
अंधविश्वासों का ।
खण्डन-मण्डन करते हैं
मूर्ति-पूजा, धर्मान्धता का।
जाति-पाति, धर्म-कर्म की
सच्चाई बताने के लिए
अर्पित कर देते हैं अपना जीवन।
हिन्दू-मुस्लिम की नहीं
केवल इंसान की बात करते हैं।
समाज में
ऊँच-नीच का भेद मिटाने के लिए
जी-जान से लड़ते हैं।
अपनी सशक्त वाणी से
वे केवल सत्य की बात करते हैं।
निडर होकर बोलते हैं।
झूठ, पाखण्ड को भगाने के लिए
किसी भी सीमा तक सहते हैं।
क्यों होते हैं हर काल में
ऐसे कुछ लोग।
क्यों होते हैं कुछ ऐसे लोग।
शायद
समाज को चाहिए ऐसे लोग।
किन्तु उनके जाने के बाद
हम उनके नाम से पंथ बना लेते हैं।
उनके मन्दिरों में
उनकी मूर्तियां स्थापित करते हैं।
पूजा-अर्चना करते हैं।
उनके नाम पर छुट्टियां मांगते हैं।
नगर-कीर्तन निकालते हैं।
अपने-आपको
किसी एक पंथ का घोषित कर
एक नई जाति की बात करते हैं।
सुविधाओं की मांग करते हैं।
पिछड़ेपन और निर्धनता के नाम पर
सुविधाओं की मांग करते हैं।
क्यों होते हैं ऐसे लोग।
पता नहीं समाज को चाहिए कैसे लोग।
हाय! मेरी चाय
जब-जब
चाय का कप उठाती हूं
कोई न कोई टोक ही देता है मुझे
कम पीया करो चाय।
कभी-कभी तो मन करता है
पूछ ही लूं
तुम्हारे पैसे से पी रही हूं क्या?
मेरे चेहरे पर नाराज़गी के भाव देखकर
सफ़ाई देने लगते हैं
अरे हम तो
तुम्हारी ही सेहत की सोचकर
बोल दिये थे,
वैसे, जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।
आहा, क्या बात कह दी
मेरा हित सोचते हो तुम।
पता नहीं क्या हो गया है मुझे
मीठी चाय की बात करने बैठी थी
और फिर कहीं से
कड़वाहट आ गई बीच में।
आज
चाय पर बहुत बातें हो रही हैं
सोचा, ज़रा-सा मैं भी कर लूं।
अभी कहीं पढ़ा
चाय से हमारे शरीर को
बहुत नुकसान होते हैं।
गल जाती हैं हड्डियां
बनती है गैस,
खाया-पीया पचता नहीं
चाय में कैफ़ीन के कारण
नींद नहीं आती रातों को।
चिड़चिड़े हो जाते हैं हम
हृदयगति बढ़ जाती है
दांत पीले होकर
सड़ जाते हैं
गुर्दे में पथरी और
शरीर में सूजन हो जाती है।
चीनी से शूगर बढ़ जाती है।
-
इतना सब पढ़ने के बाद
मैं लौट-लौटकर
देख रही हूं
अपने आपको
जिसके रक्त में बहती है चाय
पिछले 70 वर्षों से
अबाध।
और यह चाय-संचार
अभी भी जारी है।
मुझे विश्वास है
कि हमें तो जन्म-घुट्टी भी
चाय की ही मिली होगी।
-
चाय के साथ ही
उठना होता है
चाय के साथ ही खाना और सोना।
कुछ अच्छा लगे तो चाय
कुछ चुभे तो चाय
मूड खराब है तो चाय
कोई अच्छी खबर है तो चाय
कुछ काटे तो चाय
पढ़ना है तो चाय
सोने से पहले चाय ।
महफ़िल जमानी है तो चाय
लिखने बैठी हूं तो चाय ।
थके तो चाय।
कोई आए तो चाय
कोई जाए तो चैन की सांस और चाय,
जल्दी भगाना हो तो चाय।
सबसे बड़ी बात
चाय ज्यादा बन गई
फालतू पड़ी है पियेंगी।
आइए पी लीजिए।
.
हाय! मेरी चाय बनी रहे।
नज़र न लगे।
आग
हर आग में चिंगारियाँ नहीं होतीं।
हर आग में लपटें भी नहीं होतीं।
रंग-बिरंगी
सतरंगी-सी दिखती है कोई आग।
चुपचाप
राख में दबी होती है कोई आग।
नाराज़ होकर
कभी-कभी
भड़क भी उठती है कोई आग।
कहते हैं
बड़ी पवित्र होती है कोई-कोई आग।
जन्म से मरण तक
हमें अपने चारों ओर घुमाती है आग।
चाहकर भी बच नहीं पाते हम,
बाहर-भीतर धधकती है आग।
आग में ही ज़िन्दगियाँ पलती हैं
और आग में ही ज़िन्दगियाँ बुझती हैं।
जब तक है मेरे जीवन की कश्ती
न जल है, न थल है
बस भावनाओं का ज्वार है
जिसमें बहती रहती है
जीवन की कश्ती।
न खेवट की जानकारी
न पतवार का सहारा
बस हवाओं के सहारे ही
घूमती रहती है जीवन की कश्ती।
कोई कहता है
ऊपरवाले के हाथ में है पतवार
तो कोई भाग्य की बात करता है
मैं नहीं जानती।
बस इतना जानती हूँ
जब डूबेगी
तो मैं बचा नहीं पाऊंगी
भंवर में फ़ंसेगी तो सम्हाल नहीं पाऊंगी ।
लेकिन
जब तक है, तब तक
लहरों में झूलती
मदमस्त हवाओं में लहराती
नित नई कहानियाँ बनातीं
दुख-सुख, धूप-छाँव में गहराती
आनन्द ले रही हूँ मैं
जब तक है मेरे जीवन की कश्ती ।
ये अल्हड़-सी बेटियां
ये अल्हड़-सी बेटियां
कब बड़ी हो जाती हैं
उन्हें स्वयं पता नहीं होता।
वे जानना भी नहीं चाहतीं
कि वे बड़ी हो रही हैं
या बड़ी हो गई हैं।
वे अपने-आपमें
खेलती-कूदती
हंसती-खिलखिलाती
तितलियों-सी उड़तीं
बागों को महकातीं
अपने मन से जीती
धीरे-धीरे
रोक-टोक के साये में जीने लगती हैं।
घर-बाहर, हर कोई
समझाने लगता है उन्हें
वे बड़ी हो गई हैं
उन्हें अब
कैसे चलना चाहिए
कैसे बात करनी चाहिए
क्या बोलना है
और क्या नहीं बोलना है
सब बताते हैं उन्हें।
पहनने-ओढ़ने का ज्ञान मिलता है
अपने मन से जीतीं
वे औरों के मन से जीने लगती हैं
औरों के मन का सोचने-समझने
खाने-पीने
पहनने-ओढ़ने और चलने लगती हैं।
खुले द्वार
धीरे-धीरे बन्द होने लगते हैं
चिटखनियां बड़ी हो जाती हैं
ताले बदल दिये जाते हैं
उड़ान कमरों में बन्द हो जाती है
हंसी कहीं खो जाती है।
नासमझ-सी
ये अल्हड़-सी बेटियां
नहीं समझ पातीं ये सब।
पर
कब बड़ी हो जाती हैं
उन्हें स्वयं ही पता नहीं होता।
विरासत
बस
समझ-समझ का फ़ेर है
किसी ने
लाखों तारों में
चाँद को भी तन्हा देखा
और किसी ने
डूबते वक्त
सूरज को भी तन्हा देखा।
मुझे लगता है
जब सूरज जाता है अस्ताचल में
तो अपनी विरासत,
रंगीनियाँ
छोड़ जाता है चाँद के लिए।
नीलाभ गगन में
चाँद
तारों को सौंप देता है
वह विरासत
प्रातः के लिए।
और भोर में
लौट आता है सूरज,
चाँद से मिलता है
मुदित मन से
रंगीनियाँ समेटता-बिखेरता।
यही ज़िन्दगी है।
पलाश के फूल और तुम
बहुत उंचे वृक्षों पर लगते हैं
पलाश के फूल
अक्सर पहुंच से दूर।
कहीं वन-कानन में।
लाल सुर्ख
आकर्षित करते हैं
मादक भाव से।
कैसी सुगंध, कैसे रंग।
खिलते हैं तो
सारा जहाँ खिल-खिल जाता है
मन मग्न हो जाता है
तुम्हारे रूप-सौन्दर्य में
कहीं खो-खो जाता है।
और तुम !
जैसे पलाश हो मेरे जीवन में।
कभी समझ ही नहीं पाई
तुम्हारी नज़दीकियाँ और दूरियाँ।
कभी अपने-से लगते हो
कभी सपने-से लगते हो
कभी खिले-खिले
कभी बुझे-बुझे
मौसम के साथ बदलते हो।
खोजने निकलती हूँ तुम्हें
किसी वन-कानन में
सुदूर,
लौट आती हूँ उदास।
प्रतीक्षा करती हूँ
मौसम के बदलने का
कभी तो खिलोगे
बस मेरे लिए।
वास्वविकता और छल
हमारे आस-घूमते हैं
बहुत सारे शब्द घूमते हैं
जीवन को साधते हैं
सत्य वास्वविकता और छल
जीवन में साथ-साथ चलते हैं
अक्सर पर्यायवाची-से लगते हैं।
जो हमारे हित में हो
वह सत्य और वास्तविकता
कहलाता है
जहां हम छले जायें
चाहे वह जीवन की
वास्तविकता और सत्य ही
क्यों न हो
हमारे लिए छल ही होता है।
चल मौज मनायें
पढ़ने-लिखने में क्या रखा है, चल ढोल बजायें
कहते हैं जीवन छोटा है, फिर चल मौज मनायें
न कोई पुस्तक, न परीक्षा, न कोई अध्यापक
ताल-सुर में क्या रखा है, बस अपना मन बहलायें
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जिन्दगी किसी धार से कम नहीं
जिन्दगी
यूँ भी किसी धार से कम नहीं
ये कटार, छुरी तलवार क्या करेंगे।
कांटों भरी रही हैं राहें
ये कुछ हथियार क्या करेंगे।
न देखना मेरा चेहरा
न पूछना मुझसे कुछ
अब इस हाल में
किसी से हिसाब-किताब करके क्या करेंगे।
किसने मारा, किसने लगाये थे निशाने
अब आप जानकर क्या करेंगे।
रक्त की धार मत देखना
न देखना जख़्मों की गहराई
बस हाल-चाल पूछ लेना
इससे ज़्यादा जानकर क्या करेंगे।
काश ! होता कोई ऐसा !!!
कोई है क्या ऐसा
जीवन में
जिसे हम भूलना चाहें
किन्तु भूल नहीं पाते।
.
कोई है क्या ऐसा
जिसकी याद तो आती है
किन्तु आधी-अधूरी।
स्मृतियों के पृष्ठ पलटते हैं
किन्तु तस्वीर नज़र नहीं आती।
.
कोई है क्या ऐसा
जो मन की दीवारों से टकराता है
रोज़ द्वार खटखटाता है
किन्तु नाम याद नहीं आता।
.
कोई है क्या ऐसा
जिसे रोज़ पीटने को मन करता है
किन्तु जब दिखता है
तो प्यार हो आता है।
.
कोई है क्या ऐसा
जो बार-बार रास्ता काटता है
किन्तु नज़र नहीं आता।
.
कोई है क्या ऐसा
जो अच्छा भी है बुरा भी
सांस भी है, आस भी
विरक्ति भी है , आसक्ति भी,
आवाज़ भी है, शून्यता भी
आंसू भी है और हास भी।
.
काश ! होता कोई ऐसा !!!
हाइकु पल्लव
पल्लव झड़े
धरा के आंचल में
विंहस दिये
-
तितली बैठी
पल्लव मुस्कुराये
हवा महकी
-
पतझड़ में
पल्लव उड़ रहे
मन विहंसा
ज़िन्दगी जीना भूल जाते हैं
ज़िन्दगी में
तप, उपासना, साधना
ज्ञान, ध्यान, स्नान
किसी काम नहीं आतीं।
जीवन भर करते रहिए
मरते रहिए
कब उपलब्धियाँ
कैसे हाथ से
सरक जायेंगी
पता ही नहीं लगता।
ज़िन्दगी जीने से ज़्यादा
हम न जाने क्यों
लगे रहते हैं
तप, उपासना, साधना में
और ज़िन्दगी जीना भूल जाते हैं
वह सब पाने के पीछे भागने लगते हैं
जिसका अस्तित्व ही नहीं।
आभासी दुनिया में जीने लगते हैं,
पारलौकिकता को ढूँढने में
लगे रहते हैं
और लौकिक संसार के
असीम सुखों से
मुँह मोड़ बैठते हैं
न जीवन जीते हैं
और न जीने देते हैं।
और अपने जीवन के
अमूल्य दिन खो देते हैं
वह सब पाने के लिए
जिसका अस्तित्व ही नहीं।
तेरा विश्वास
तेरा विश्वास
जब-जब किया
तब-तब ज़िन्दगी ने
पाठ पढ़ाया।
उस ईश्वर ने कहा
तुझे भी तो दिया था
एक दिमाग़
उसमें कचरा नहीं था,
बहुत कुछ था।
किन्तु
जब प्रयोग नहीं किया
तो वह
कचरा ही बन गया
अब दोष मुझे देते हो
कि
ऐसा साथ क्यों दिया।
समय यूँ ही बीत जाता है
एकान्त
कभी-कभी अच्छा लगता है।
सूनापन
मन में रमता है।
जल, धरा, गगन
मानों परस्पर बातें करते हैं,
जीवन छलकता है।
नाव रुकी, ठहरी-ठहरी-सी
परख रही हवाएँ
जीवन यूँ ही चलता है।
न अंधेरा, न रोशनी,
जीवन में धुंधलापन
बहकता है।
हाथों में डोरी
कुछ सवाल बुनती है
कभी उधेड़ती है
कभी समेटती है
समय यूँ ही बीत जाता है।
अंधेरे के बाद सवेरा
अंधेरे के बाद सवेरा !
ज़रूरी तो नहीं
रोशनी भी लेकर आये।
कभी-कभी
सवेरे भी अंधकारमय होते हैं।
सूरज बहका-बहका-सा
घूमता है।
किरणें कहीं खो जाती हैं।
भीतर ही भीतर
बौखला जाती हैं।
आंखें धुंधली हो जाती हैं,
दिखाई कुछ नहीं देता
किन्तु
हाथ बढ़ाने पर
अनदेखी रोशनियों से
हाथ जलने जाते हैं
अंधेरे और रोशनियों के बीच
ज़िन्दगी कहीं खो जाती है।
इच्छाओं का कोई अन्त नहीं
हमारी इच्छाओं का
कोई अन्त नहीं।
बालपन में
चिन्ताओं से दूर
मस्ती में जीते थे
किन्तु बड़ों को देखकर
आहें भरते थे।
कब बड़े होंगे हम।
बड़ों के स्वांग भर
खूब आनन्द लेते थे हम।
बड़े हुए
तो बालपन में
मन भटकने लगा
अक्सर कहते फ़िरते
आह! काश!
हम फिर बच्चे बन जायें।
और वृ़द्धावस्था क्या आई
सब कहने लगे
वृद्ध और बाल
तो समान ही होते हैं।
ऐसा नहीं होता रे
कोई मेरे मन से पूछे
इच्छाएँ कभी नहीं मरतीं
बालपन हो
युवावस्था अथवा वृद्धावस्था
चक्रव्यूह की भांति
जीवन भर उलझाये रखती हैं
जो मिला है,
वह भाता नहीं
जो नहीं मिला
वह जीवन-भर आता नहीं।
मन करता करूँ बात चाँद तारों से
मन करता करूँ बात चाँद तारों से।
न जाने कितने भाव
कितनी बातें
अनकही, सुलझी-अनसुलझी
भीतर-ही-भीतर
कचोटती हैं
बिलखती हैं
बहुत कुछ बोलती हैं।
किसी से कहते हुए
मन डरता है
कहीं कोई पूछ न ले
कोई बात की बात न हो जाये
कहीं पुराने ज़ख्म न खुल जायें
कहीं कोई अपनापन दिखाए
और हम शत्रुता का भाव पायें
न जाने किस बात का
कौन-सा अर्थ निकल आये
खुले गगन के नीचे
चाँद -तारों से बतियाती हूँ
मन की हर बात बताती हूँ ।
और गहरी नींद सो जाती हूँ ।
मृग-मरीचिका-सा जीवन
मृग-मरीचिका-सा जीवन
कभी धूप छलकती
कभी नदी बिखरती
कभी रेत संवरती।
कदम-दर-कदम
बढ़ते रहे।
जो मिला
ले लिया,
जो न मिला
उसी की आस में
चलते रहे, चलते रहे, चलते रहे
कभी बिखरते रहे
कभी कण-कण संवरते रहे।
नई आस नया विश्वास
एक चक्र घूमता है जीवन का।
उर्वरा धरा
जीवन विकसित करती है।
बीज से अंकुरण होता है
अंकुरण से
पौधे रूप लेने लगते हैं
जीवन की आहट मिलती है।
डालियाँ झूमती हैं
रंगीनियाँ बोलती हैं
गगन देखता है
मन इस आस में जीता है,
कुछ नया मिलेगा
जीवन आगे बढ़ेगा।
मानों धन-धान्य
बिखरता है इन डालियों में,
पुनः धरा में
और अंकुरित होती है नई आस
नया विश्वास।
जीवन का सच
महाभारत का यु़द्ध
झेलने के लिए
किसी से लड़ना नहीं पड़ता
बस अपने-आपको
अपने-आपसे
भीतर-ही-भीतर
मारना पड़ता है।
शायद
यही नियति है
हर औरत की।
कृष्ण क्या संदेश दे गये
सुनी-सुनाई बातें हैं सब।
कर्म किये जा
फल की चिन्ता मत कर।
कौन पढ़ता है आज गीता
कौन करता है वाचन
कृष्ण के वचनों का।
जीवन का सच
अपने-आपसे ही
झेलना पड़ता है
अपने-आपसे ही
जीना
और अपने-आपको ही
मारना पड़ता है।
अकेला ही चला जा रहा है आदमी
अपने भीतर
अपने-आपसे ही कट रहा है आदमी।
कहाँ जायें, कैसे जायें
कहाँ समझ पर रहा है आदमी।
टुकड़ों में है जीवन बीत रहा
बस
ऐसे ही तो चला जा रहा है आदमी।
कुछ काम का बोझ,
कुछ जीवन की नासमझी
कहाँ कोई साथ देता है
बस अकेला ही चला जा रहा है आदमी।
पानी की गहराई
नहीं जानता है
इसलिए पत्थरों पर ही
कदम-दर-कदम बढ़ रहा है आदमी।
देह कब तक साथ देगी
नहीं जानता
इसलिए देह को भी मन से नकार रहा है आदमी।
याद आते हैं वे दिन
याद आते हैं वे दिन जब सखियों संग स्कूल से आया करते थे
छीन-छीनकर एक-दूजे की रोटी आनन्द से खाया करते थे
राह चलते कभी खटमिट खाई, कभी खुरमानी तोड़ा करते थे
राहों में छुपन-छुपाई, गुल्ली-डंडा, लम्बी दौड़ लगाया करते थे
रस्सी-टप्पा, गिट्टे, उंच-नीच, स्टापू, जाने कितने खेल जमाया करते थे
पुरानी कापियाँ दे-देकर गोलगप्पे, चूरन, पापड़ी खाया करते थे
बारिश में भीग-भीगकर, छप्पक-छप्पक पानी उड़ाया करते थे
चलते-चलते जब थक जाते थे, बैग रख सो जाया करते थे
एक-दूसरे की कापियों की नकल कर होमवर्क कर लिया करते थे
याद आये वे दिन जब सखियों संग धमा-चैकड़ी मचाया करते थे
न जाने कौन कहाँ है आज याद नहीं, कुछ यादें रह गई हैं बस
कभी मिलेंगीं भी तो कहाँ पहचान होगी, क्यों सोच रही मैं आज
वे सड़कें, वे स्कूल, वो मस्तियाँ, लड़ना-झगड़ना, कुट्टी-मिट्टी
कभी-कभी बचपन के वे बीते दिन यूँ ही याद आ जाया करते थे
रंगों में भी इक महक होती है
रंगों में भी इक महक होती है, मन बहकाती है
अस्त होते सूर्य की गरिमा मन पर छा जाती है
कहीं कुमकुम-से, कहीं इन्द्रधनुषी रंग बिखर रहे
सागर के जल में रंगों की परछाईयाँ मन मोह जाती हैं
देख रहे त्रिपुरारी
भाल तिलक, माथ चन्द्रमा, गले में विषधर भारी
गौरी संग नयन मूंदकर जग देख रहे त्रिपुरारी
नेह बरसे, मन सरसे, देख-देख मन हरषे
विषपान किये, भागीरथी संग देखें दुनिया सारी
रोशनियाँ खिलती रहें
कदम बढ़ते रहें, जीवन चलता रहे, रोशनियाँ खिलती रहें
शाम हो या सवेरा, आस और विश्वास से बात बनती रहे
कहीं धूप खिली, कहीं छाया, कहीं बदरी छाये मन भाये
विश्राम क्या करना, जब साथ हों सब, खुशियाँ मिलती रहें
संगम का भाव
संगम का भाव मन में हो तो गंगा-घाट घर में ही बसता है
रिश्तों में खटास हो तो मन ही भीड़-तन्त्र का भाव रचना है
वर्षों-वर्षों बाद आता है कुम्भ जहाँ मिलते-बिछड़ते हैं अपने
ज्ञान-ध्यान, कहीं आस-विश्वास, इनसे ही जीवन चलता है