ये अल्हड़-सी बेटियां

ये अल्हड़-सी बेटियां

कब बड़ी हो जाती हैं

उन्हें स्वयं पता नहीं होता।

वे जानना भी नहीं चाहतीं

कि वे बड़ी हो रही हैं

या बड़ी हो गई हैं।

वे अपने-आपमें

खेलती-कूदती

हंसती-खिलखिलाती

तितलियों-सी उड़तीं

बागों को महकातीं

अपने मन से जीती

धीरे-धीरे

रोक-टोक के साये में जीने लगती हैं।

घर-बाहर, हर कोई

समझाने लगता है उन्हें

वे बड़ी हो गई हैं

उन्हें अब

कैसे चलना चाहिए

कैसे बात करनी चाहिए

क्या बोलना है

और क्या नहीं बोलना है

सब बताते हैं उन्हें।

पहनने-ओढ़ने का ज्ञान मिलता है

अपने मन से जीतीं

वे औरों के मन से जीने लगती हैं

औरों के मन का सोचने-समझने

खाने-पीने

पहनने-ओढ़ने और चलने लगती हैं।

खुले द्वार

धीरे-धीरे बन्द होने लगते हैं

चिटखनियां बड़ी हो जाती हैं

ताले बदल दिये जाते हैं

उड़ान कमरों में बन्द हो जाती है

हंसी कहीं खो जाती है।

 

नासमझ-सी

ये अल्हड़-सी बेटियां

नहीं समझ पातीं ये सब।

पर

कब बड़ी हो जाती हैं

उन्हें स्वयं ही पता नहीं होता।