कैसे होगा ज्ञान वर्द्धन
हम तो ठहरे मूरख प्राणी, कैसे होगा ज्ञान वर्द्धन
ताक-झांक कर-करके ही मिलता है ज्ञान सघन
गूगल में क्या रखा है, अपडेट रहने के लिए
दीवारों की दरारों से सिर टिका करने बैठे हैं मनन
अनिर्वचनीय सौन्दर्य
सूरज की किरणों से तप रही धरा
बादलों ने आकर सुनहरा रूप धरा
सुन्दर आकृतियों से आवृत नभ से
अनिर्वचनीय सौन्दर्य से सजी धरा
बोतलों में बन्द पानी
बोतलों में बन्द पानी पीकर प्यास बुझा रहे
स्वच्छ पानी के लिए कीमत भारी चुका रहे
नहीं जानते बोतलों में क्या भरा, किसने भरा
बोतलों पर एक्सपायरी देख हम चकरा रहे
जल-प्रपात सूख रहे हैं
जल-प्रपात सूख रहे हैं, बादल हमसे रूठ रहे हैं
धरती प्यासी, मन भी प्यासा, प्रेम-रस हम ढूॅंढ रहे हैं
कहीं जल-प्लावन होगा, कहीं धरा सूखे से उलझ रही
आॅंधी-पानी कुछ भी बरसे, नदियों के तट टूट रहे हैं
मर्यादाओं की बात करें
मर्यादाओं की बात करें, मर्यादा का ज्ञान नहीं
बात करें भगवानों की, धर्म-कर्म का भान नहीं
भाषा सुनकर मानों कानों में गर्म तेल ढलता है
झूठे ठाट-बाट दिखलाते, अपनों का ही मान नहीं
कड़वाहट भी अच्छी
बोल-चाल वैसी ही जैसे मन में भाव
देख-देख औरों को चढ़े हमें है ताव
नीम-करेले की कड़वाहट भी अच्छी
तुम्हीं बताओ कौन करे तुमसे लगाव
झूठी तेरी वाणाी
बोल-अबोल कुछ भी बोल, मन की कड़ियाॅं खोल
आज तो तेरे साथ करें हम वार्ता खोलें तेरी पोल
देखें तो कितनी सच्ची, कितनी झूठी तेरी वाणाी
बोल-चाल से भाग लिए पर लगेगा अब तो मोल
अप्रत्यक्ष कर
प्रत्यक्ष करों की क्या बात करें, परोक्ष करों की यहाॅं मार है
हर वस्तु के पीछे छिपे अनगिन कितने टैक्सों की भरमार है
कभी अपने बिल की जांच करना और देखना वस्तु का मूल्य
मूल्य से अधिक खा जाते हैं कर, यही हमारे जीवन का सार है।
प्रत्यक्ष कर
वेतन मिलता कम है, कट जाता ज़्यादा है
आधा वेतन तो प्रत्यक्ष कर ही खा जाता है
हर वर्ष बढ़ता जा रहा है करों का दायरा
हम ही जानते हैं घर कैसे चल पाता है।
रंग-बिरंगी ये लहरें
क्यों पाषाणों का आभास देती रंग-बिरंगी ये लहरें
क्यों रक्त-रंजित होने का आभास दे रहीं ये लहरें
एक तूलिका की छुअन से सब बदल देने की आस
भावों के उत्पात को सहज ही समझा रही ये लहरें
रिश्ते भी मौसम से हो गये हैं
रिश्ते भी
मौसम से हो गये हैं,
कभी तपती धूप-से जलते हैं
और जब सावन-से
बरसते हैं
तो नदी-नाले-से उफ़न पड़ते हैं
और सब तहस-नहस कर जाते हैं।
पीढ़ियों से संवारी ज़िन्दगी
टूट-बिखर जाती है।
हो सकता है
कुछ वृक्ष मैंने भी काटे हों
कुछ टहनियों से
फल मैंने भी लूटे हों,
हिसाब बराबर करने को
कोई पीछे नहीं रहता।
किसे दोष दूॅं,
किसे परखूॅं, किसे समझूॅं।
ढहाये गये वृक्ष
कभी खड़े नहीं हो पाते दोबारा
चाहे जड़ें कितनी भी गहरी हों।
कितना भी बच लें
परिणाम तो
सबको ही भुगतना पड़ेगा।
सावन के दिन
सावन के दिन आ गये मन डर रहा न जाने क्या होगा
बीते वर्षों की यादें कह रहीं अब क्या नया प्रलय होगा
बड़े-बड़े भवन ढह गये थे, शहर-शहर डूब रहेे थे,
सड़कों पर नाव चली थी, पर्वत मिट्टी बन बह गये थे
घर-घर पानी था पर पीने के पानी को तरस रहेे थे
गली-गली भराव होगा, सड़कों पर फिर से जाम होगा
बिजली जब-तब गुल रहेगी, जाने कैसे काम होगा
गढ्ढों में गाडियॉं फ़ंसेंगी, जाने कितना नुकसान होगा
निगम के कान ही नहीं तो जूॅं कैसे रेंगेगी वहॉं
वे तो घर बैठे चारों प्रहर उनका तो इंतज़ाम होगा
विप्लव की चिन्ता मत करना
धीरज की भी
सीमाएँ होती हैं,
बांधकर रखना।
पर इतनी ही
बांध कर रखना
कि दूसरे
तुम्हारी सीमाओं को
लांघ न पायें।
और
तुम जब चाहो
अपनी सीमाओं के
बांध तोड़ सको।
फिर
विप्लव की चिन्ता मत करना।
जिजीविषा
आम के आम
गुठलियों के दाम मिलें
और आम से आम मिलें
तो और क्या चाहिए जीवन में।
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जीवन-अंकुरण
प्रकृति का स्व-नियम है।
प्रकृति नियम बनाती है
किन्तु जब चाहे
अपने मन से
बदल भी देती है।
नई राहें
आप ही ढूॅंढती है प्रकृति।
जिजीविषा, न जाने
किसके भीतर कहां तक है,
हमें समझाती है प्रकृति।
आशाओं का आकाश बड़ा है
जीवन का आधार बड़ा है
हमें बताती है प्रकृति।
डर मत
यहाॅं नहीं तो वहाॅं
कहीं न कहीं तो
जीवन का उल्लास
दिखा ही देती है प्रकृति,
जीवन में मिठास
भर ही देती है प्रकृति।
शायद कुछ बदले
इधर ग्रीष्म से उद्वेलित थे
उधर धूल ने चादर तान दी
हवाएं कहीं घुट रहीं
यूं तो दिन की बात थी
पर सूरज ने आंख मूंद ली
मन धुंआ-धुंआ-सा हो रहा
न पता दे कोई
कि घटाएं हैं जो बरसेंगी
या सांस रोकेगा धुंआ।
मन में कुछ घुटा-घुटा।
फिर तेज़ आंधी ने
सन्नाटा तोड़ा
धूम-धड़ाका, बिजली कौंधी,
कहीं बादल बरसे,
कहीं धूल उड़ी, कहीं धूल अटी
पर प्रात में, हर बात में
धूल अटी थी,
झाड़-झाड़ कर हार गये।
फिर बरसेगा पानी
तब शायद कुछ बदले।
ज़िन्दगी देती सबक है
सुना है
ज़िन्दगी देती सबक है
मुझे कुछ ज़्यादा ही दे दिया।
मांगा कुछ था
भेज कुछ और दिया।
न जाने किस-किससे
मेरा पार्सल बदल दिया।
कीमत वसूलने में
ज़रा भी ढील नहीं की
सामान बहुत हल्का भेज दिया।
दाना-दाना बिखर गया
न समेट सकी
शिकायत कक्ष भी
बन्द कर दिया,
उल्टे मुझे ही कटघरे में
खड़ा कर दिया।
कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कुछ समस्याओं पर
बात करने से कतराते हैं हम
समझ नहीं पाते
कहाॅं से शुरु करें
और कहाॅं खतम।
जिन्हें बात करनी चाहिए
वे पूल में ठण्डक ले रहे हैं
सुबह-शाम
तरह-तरह के पेय से
गला तर कर रहे हैं।
वादों की, बातों की
उड़ाने भर रहे हैं।
सुरक्षा कवच इतना बड़ा है
कि इन बाल्टियों की खनक
उनके कानों तक पहुंचती नहीं।
बूॅंद-बूॅंद पानी की कमी
उन्हें खलती नहीं।
उनकी योजनाओं में
बड़े-बड़े बांध हैं,
पर्यटन के लिए
लबालब झीलें हैं।
वे नहीं जानते
प्यास क्या होती है
पानी कैसे भरा जाता है
बाल्टियाॅं, पतीले, बर्तन
क्या होते हैं।
भीड़ का अर्थ नहीं जानते वे।
घूॅंट-घूॅंट पानी की कीमत
नहीं समझते वे।
वैसे भी
हर साल आती हैं ये समस्याएॅं
कभी आगे, कभी पीछे
चलती हैं ये समस्याएॅं
मौसम बदलता है
लोग भूल जाते हैं।
फिर कोई नई समस्या आती है
और लोग
फिर वहीं आकर खड़े हो जाते हैं।
सिलसिला चला रहता है
कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कौन जीता है
कौन मरता है।
मतदान
मतदान करने चले, नाम प्रत्याशी का ज्ञात नहीं।
किसको चुनना, क्यों चुनना, चर्चा की तो बात नहीं।
कोई आये, कोई जाये, हमें तो बस रोना ही आता है
अधिकारों का उपयोग करें, इतनी हममें सामर्थ्य नहीं।
सत्य सदा ही कड़वा होता
कहते हैं जिह्वा देह में सबसे कोमल होती है
किन्तु कड़वे बोल बोलने में भी प्रथम होती है
सत्य सदा ही कड़वा होता है मित्र जान लो
तीक्ष्ण दन्त-पंक्ति के बीच तभी सुरक्षित होती है।
दुनिया चमक की दीवानी है
हीरे की कठोरता जग जानी है
मूल्य में उसका न कोई सानी है
टेढ़ापन रहे तो भी मोह न छूटे
दुनिया चमक की ही दीवानी है
डरते हैं क्या
जीवन के सन्दर्भ में
जब भी बात करते हैं
केवल सीढ़ियाॅं
चढ़ने की ही बात करते हैं
कभी उतरने
अथवा
सीढ़ियों से
पैर फ़िसलने की बात नहीं करते।
डरते हैं क्या ?
द्वार उन्मुक्त किये बैठे हैं
मन में
आँगन का भाव लिए बैठे हैं।
घर छोटे हैं तो क्या,
मन में सद्भाव लिए बैठे हैं।
समय बदल गया
न आँगन रहा, न छत रही,
पर छोटी-छोटी खिड़कियों से
आकाश बड़ा लिए बैठे हैं।
दूरियाॅं शहरों की हैं,
पर मन में अपनेपन का
भाव लिए बैठे हैं।
मिलना-मिलाना नहीं ज़रूरी
दुख-सुख में आने-जाने की
प्रथा बनाये बैठे हैं।
आंधी, बादल, बिजली, बरसात
तो आनी-जानी है,
छत्र-छाया-से हाथ मिलाये बैठे हैं।
न कोई बन्धन, न ताले
जब चाहे आओ
द्वार उन्मुक्त किये बैठे हैं।
समझ समझ की बात
कहावत है
बड़ों का कहा
और आंवले का खाया
बाद में मीठा लगता है।
जब किसी ने समझाया था
तब तो
समझ में न आया था।
आज जीवन के इस मोड़ पर
समझ आने से क्या होगा
जो खोना था
खो दिया
और जो मिल सकता था
उससे हाथ धो बैठे।
आप्त वाक्य
कभी-कभी आप्त वाक्य
बड़े कष्टकारी होते हैं।
जीवन में हम चाहते कुछ हैं,
मिलता कुछ है।
किसी ने कह दिया
जहां चाह, वहां राह।
काश!
कि ऐसा ही होता जीवन में।
चाह तो थी
चांद-सितारों की,
मां ने चुनरी पर टांक दिये।
और मैं
ओढ़नी सिर पर लिए
आकाश में उड़ने लगी।
ऐसे ही हैं हम
वर्तमान में
सम्भ्रान्त होने के लिए
भद्र अथवा शिष्ट बनने के लिए
नहीं चाहिए मधुर वाणी
सरल स्वभाव
विनम्रता अथवा कोमल भाव।
बस चाहिए
बड़ा-सा मोबाईल
टिप-टाप अन्दाज
आधुनिकतम् ऐसी वेशभूषा
जिसका कोई नाम न हो।
टूटी-फूटी अंग्रेज़ी के साथ
कुछ स्लैंग्स,
वीडियो, यूट्यूब, रील्स,
इंस्टा की निरर्थक वार्ता।
तब आपकी वाणी
आपका स्वभाव
सब उपेक्षणीय हो जायेगा
बोलें आप कितना भी अभद्र
कितना अशिष्ट
सब क्षम्य हो जायेगा।
अपनी खुशियों को संभालकर रखा कीजिए
अपनी संवेदनाओं को
अपनी नाराज़गियों को
अपनी खुशियों को
संभालकर रखा कीजिए,
बस अपने भीतर
पचाकर रखिए।
किसी अतिथि आगमन पर
डाईनिंग टेबल पर
डोंगों में, प्लेट में
कांटे-छुरी के साथ
मत परोस दीजिए,
खाएंगे, पीयेंगे,
मोटी-सी डकार लेंगे
और सारी दुनिया में
कसैली हवा भर देंगे।
ऐसी ही है ज़िन्दगी
पौधे भी बड़े अजीब हुआ करते हैं
कुछ सदाबहार
कुछ मौसमी और कुछ
अपने मन से जिया करते हैं।
जब चाहा खिल जाते हैं
जब चाहा मुॅंह छुपाकर
बैठ जाते हैं।
किसी को
प्रतिदिन, ढेर-सा पानी चाहिए
कोई बंजर-सी भूमि में ही
खिल-खिल जाते हैं।
कई बिना फूलों के ही
मुस्कुरा-मुस्कुराकर
दिल मोह ले जाते हैं।
कोई
दिन की चाहत लिए खिलता है
और कोई
रात में गुनगुनाहट बिखेरता है
कहीं झर-झर-झरते पल्ल्व
रंग-बिरंगी दुनिया
सजा जाते हैं।
कहीं ज़रा-सा बीज बोते ही
आकाश छू जाते हैं
और कई सालों-साल लगा देते हैं।
धरा का मोह छूटता नहीं
गगन की आस छोड़ता नहीं।
ऐसी ही है ज़िन्दगी।
मन की बात
रातों को
महसूस किया है कभी आपने।
कितनी भी रोशनी कर लें
कभी-कभी
अंधेरा टूटता ही नहीं।
रातें अंधेरी ही होती हैं
फिर भी
न जाने क्यों
बार-बार कह बैठते हैं
कितनी अंधेरी होती हैं रातें।
शायद हम
रात की बात नहीं करते
अपने मन की बात करते हैं।
क्या अन्त यही है
टूटा तो नहीं है
डाल से छूटकर भी
बिखरा तो नहीं है
धरा पर
ठहरा-सा लगता है
मानों सोच रहा हो
क्या यही जीवन है
लौट सकता नहीं,
जीवन से जुड़ सकता नहीं
क्या अन्त यही है
हाईकु: धारा
धारा निर्बाध
भावों में हलचल
आंखों में पानी
-
अविरल है
धारा की तरलता
भाव क्यों रूखे
-
धारा निश्छल
चंदा की परछाईं
मन बहके