अच्छे हो तुम
वैसे तो बहुत अच्छे हो तुम
बस बातों के कच्चे हो तुम
काम कोई पूरा करते नहीं
माना बुद्धि में बच्चे हो तुम
प्यार के नाम पर दिखावा
अटूट बन्धन बस स्वार्थ के ही होते हैं इस संसार में
कोई न अपना, कोई न सपना, धोखा है इस संसार में
जिन्हें अपना समझा वे ही छोड़कर चले गये दुःख में
प्यार के नाम पर बस दिखावा ही है इस संसार में
आंसुओं के निशान
आॅंख से बहता पानी
उतना ही खारा होता है
जितना सागर का पानी।
उतनी ही गहराई होती है
जैसी सागर में।
आॅंखों के भीतर भी
उठती हैं उत्ताल तरंगें,
डूबते हैं भाव,
कसकती हैं आशाएॅं, इच्छाएॅं।
कोरों पर जमती है काई,
भीतर ही भीतर
उठते हैं बवंडर,
भंवर में डूब जाते हैं
न जाने कितने सपने।
बस अन्तर इतना ही है
कि सागर का पानी
कभी सूखता नहीं,
चिन्ह रेत पर छोड़ता नहीं,
मिलते हैं माणिक-मोती
सुच्चे सीपी-शंख।
लेकिन आॅंख का पानी
जब-जब सूखता है
तब-तब भीतर तक
सागर भर-भर जाता है,
लेकिन
फिर भी
देता है शुष्कता का एहसास
और अपने पीछे छोड़ जाता है
अनदेखे जीवन भर के निशान।
फटी चादर
एक बड़ी पुरानी कहावत है
जितनी चादर हो
उतने ही पैर पसारने चाहिए।
नई बात यह कि
अपने पैरों को देखो
बड़े हो गये हों
तो नई चादर लेने की औक़ात बनाओ।
कब तक
पुरानी चादर
और पुराने मुहावरों को
जीते रहोगे।
ज़िन्दगी ऐसे नहीं चलती।
लेकिन उस दिन का क्या करें
जब चादर
न छोटी थी, न बड़ी
पता नहीं
कहाॅं-कहाॅं से फ़टी थी।
अपने लिए,
हम अपने-आप,
चादर कहाॅं खरीद पाते हैं
या तो पूर्वजों से मिलती है
उस पर पैर पसारते रहते हैं
अथवा हमारी अगली पीढ़ी
हमें चादर उढ़ा जाती है
जो हमारी पहुॅंच से
बहुत बाहर होती है।
फिर चादर में
पैर आते हैं या नहीं
छोटी है या बड़ी
फटी है या रेशमी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता यारो।
बस एक चादर होती है।
गुलाब में कांटे भी होते हैं
तुम्हारे लिए
ये गुलाब के सुन्दर फूल हैं,
तुम्हें इनमें प्रेम दिखता है,
मेरे लिए हैं ये
मेरे परिश्रम की गोल रोटी,
मेरी आत्मनिर्भरता की कसौटी।
बेचने निकली हूॅं
दया मत दिखलाना
लेने हों तो हाथ बढ़ाना,
नहीं तो दूर रहना
ध्यान रहे,
गुलाब में कांटे भी होते हैं
और वे गुलाब की तरह
मुरझा नहीं जाते।
अपनी राहें आप बनाता चल
संसार विवादों से रहित नहीं है,
उसको हाशिए पर रखता चल।
अपनी चाल पर बस ध्यान दे
औरों को अॅंगूठा दिखाता चल।
कोई क्या बोल रहा न ध्यान दे
अपने मन की सुन, गाता चल।
तेरे पैरों के नीचे की ज़मीन
खींचने को तैयार बैठे हैं लोग
न परवाह कर,
धरा ही क्या
गगन पर भी छाता चल।
आॅंधी हो या तूफ़ान
अपनी राहें आप बनाता चल।
भारत की है हिन्दी बोली
अच्छा लगता है मुझे
हिन्दी में बात करना।
अच्छा लगता है मुझे
किसी को हिन्दी में
बात करते हुए सुनना।
अच्छा लगता है मुझे
जब कोई बताता है
कि हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है,
जहाॅं जो कहा जाता है
वही लिखा जाता है
और वही सुना जाता है।
अच्छा लगता है मुझे
जब कोई कहता है
विश्व में
सर्वाधिक बोली-समझी जाने वाली
भाषाओं में एक है
हमारी हिन्दी भाषा।
किन्तु उस समय
मेरा मन
उदास हो जाता है
जब कोई कहता है
हिन्दी एक कठिन भाषा है
इसे सरल होना चाहिए,
अकारण ही
अन्य भाषाओं के
निरर्थक शब्दों का समावेश
चुभता है मुझे।
अपने शब्दों को
कठिन बताकर
विदेशी नवीन शब्दों को
ग्रहण कर लेते हैं हम
किन्तु हिन्दी के जाने-पहचाने शब्द
छोड़ जाते हैं हम।
रोमन में लिखते
हिन्दी वर्णमाला को भूल रहे हैं हम।
मानक वर्णमाला कहीं खो गई है
42, 48, 52 के चक्कर में फ़ंसे हुए हैं हम।
वैज्ञानिक भाषा की बात करें
बच्चों को कैसे समझाएॅं हम।
उच्चारण, लेखन का सम्बन्ध टूट गया
कुछ भी लिखते
कुछ भी बोल रहे हम।
चन्द्रबिन्दु गायब हो गये
अनुस्वर न जाने कहॉं खो गये
उच्चारण को भ्रष्ट किया,
सरलता के नाम पर
शुद्ध शब्दों से भाग रहें हम।
शिक्षा से दूर हो गई,
माध्यम भी न रह गई,
ऑनलाईन अंग्रेज़ी के माध्यम से
हिन्दी लिख-पढ़ सीख रहे हम।
अंग्रेज़ी में हिन्दी लिखकर
उनसे हिन्दी मॉंग रहे हम।
अनुवाद की भाषा बनकर रह गई,
इंग्लिश-विंग्लिश लिखकर
गूगल से कहते हिन्दी दे दो,
हिन्दी दे दो।
न जाने किस विवशता में
हिन्दी के बारे में न सोच रहे हैं हम।
चलो, आज
हिन्दी के लिए एक आन्दोलन करें
शिक्षा का माध्यम बने हिन्दी
जन-जन की भाषा बने हिन्दी
हर मन की भाषा बने हिन्दी
अपनी पहचान बने हिन्दी।
लेकिन फिर भी
हिन्दी सबसे प्यारी बोली।
हिन्दी सबसे न्यारी बोली।
भारत की है हिन्दी बोली।
चौखट पर सपने
पलकों की चौखट पर सपने
इक आहट से जग जाते हैं।
बन्द कर देने पर भी
निरन्तर द्वार खटखटाते हैं।
आॅंखों में नींद नहीं रहती
फिर भी सपने छूट नहीं पाते हैं।
कुछ देखे, कुछ अनदेखे सपने
भीतर ही भीतर कुलबुलाते हैं।
नहीं चाहती कोई समझ पाये
मेरे सपनों की माया
पर आॅंखें मूॅंद लेने पर भी
कोरों पर नम-से उभर आते हैं।
सावन में माॅं के ऑंगन में
सावन में मॉं के ऑंगन में
नेह बरसता था
भीग-भीग जाते थे हम।
बूॅंदों को हाथों में थामे
खेल-खेल में
मॉं का ऑंचल
भिगो जाते थे हम।
मॉं पल्लू छिटकाकर
झाड़ देती थीं बूॅंदों को
मॉं की मीठी-सी झिड़की से
सराबोर हो जाते थे हम।
तारों पर लटकी बूॅंदों को
चाट-चाट पी जाते थे हम।
भीगी चिड़ियॉं
पानी से चोंच लड़ातीं,
पंख छिटक-छिटक कर
बूॅंदें बिखेरतीं
उनकी इस हरकत से
हॅंस-हॅंस
लोट-पोट हो जाते थे हम।
चिड़ियों के पीछे-पीछे भागें,
उन्हें सतायें
न दाना खाने दें,
न पानी पीने दें,
मॉं से डॉंट खाकर
सारा घर गीला कर
छुप जाते थे हम।
मॉं पकड़-पकड़कर बाल सुखाती
उसकी गोदी में
सिर रखकर सो जाते थे हम।
ज़िन्दगी बोझ नहीं लगती
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
ज़िन्दगी को बोझ नहीं मानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने साथ
अपने-आप जीना जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने लिए जीना जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपनी बात
अपने-आपसे कहना जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
औरों से अपेक्षाएॅं नहीं करते जाते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
एक के बदले चार की
चाहत नहीं रखते हैं
प्यार की कीमत नहीं मॉंगते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
औरों को उतना ही समझते हैं
जितना हम चाहते हैं
कि वे हमें समझें।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने-आप पर हॅंसना जानते हैं।
ज़िन्दगी तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने-आप पर
हॅंसना और रोना नहीं जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
रो-रोकर अपने-आपको
अपनी ज़िन्दगी को
कोसते नहीं रहते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
औरों की ज़िन्दगी देख-देखकर
ईर्ष्या से मर नहीं जाते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
मन में स्वीरोक्ति का भाव नहीं लाते हैं।
पहाड़ों की टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डिया
पहाड़ों की टेढ़ी-मेढ़ी
संकरी पगडण्डियाॅं
जीवन में उतर आईं,
सीधे-सादे रास्ते
अनायास ही
मनचले हो गये।
कूदते-फाॅंदते
जीवन में आते रहे
उतार-चढ़ाव
और हम
आगे बढ़ते रहे।
फ़िसलन बहुत हो जाती है
जब बरसता है पानी
गिरती है बर्फ़
रुई के फ़ाहों-सी,
आॅंखों को
एक अलग तरह की
राहत मिलती है।
जीवन में
टेढ़ेपन का
अपना ही आनन्द होता है।
बोलना भूलने लगते हैं
चुप रहने की
अक्सर
बहुत कीमत चुकानी पड़ती है
जब हम
अपने ही हक़ में
बोलना भूलने लगते हैं।
केवल
औरों की बात
सुनने लगते हैं।
धीरे-धीरे हमारी सोच
हमारी समझ कुंद होने लगती है
और जिह्वा पर
काई लग जाती है
हम औरों के ढंग से जीने लगते हैं
या सच कहूॅं
तो मरने लगते हैं।
खाली हाथ
मन करता है
रोज़ कुछ नया लिखूॅं
किन्तु न मन सम्हलता है
न अॅंगुलियाॅं साथ देती हैं
विचारों का झंझावात उमड़ता है
मन में कसक रहती है
लौट-लौटकर
वही पुरानी बातें
दोहराती हैं।
नये विचारों के लिए
जूझती हूॅं
अपने-आपसे बहसती हूॅं
तर्क-वितर्क करती हूॅं
नया-पुराना सब खंगालती हूॅं
और खाली हाथ लौट आती हूॅं।
थक गई हूॅं मैं अब
थक गई हूॅं मैं अब
झूठे रिश्ते निभाते-निभाते।
थक गई हूॅं मैं अब
ज़िन्दगी का सच छुपाते-छुपाते।
थक गई हूॅं मैं अब
झूठ को सच बनाते-बनाते।
थक गई हूॅं मैं अब
किस्से कहानियाॅं सुनाते-सुनाते।
थक गई हूॅं मैं अब
आॅंसुओं को छुपाते-छुपाते।
थक गई हूॅं मैं अब
बिन बात ठहाके लगाते-लगाते।
थक गई हूॅं मैं अब
नाराज़ लोगों को मनाते-मनाते।
थक गई हूॅं मैं अब
चेहरे पर चेहरा लगाते-लगाते।
कुछ तो बदल गया है
आजकल
लिखते-लिखते
अक्सर हाथ रुक जाते हैं,
भाव बहक जाते हैं।
शब्द वही हैं
भाषा वही है
पर पता नहीं क्यों
अर्थ बदल जाते हैं।
मीठा बोलते-बोलते
वाणी में न जाने कैसे
कटुता आ जाती है
और शब्द
कहीं दूर भाग जाते हैं।
मैं बदल गई हूॅं या तुम
या यह दुनिया
समझ नहीं पाई,
सब बदले-बदले-से लगते हैं।
प्यार कहो
तो तिरस्कार का एहसास होता है।
अपनापन जताओ तो
दूरियों का भाव आता है,
सम्मान की बात सुनकर
अपमान का एहसास
क्यों आता है।
शब्द वही हैं, भाषा वही है
पर कुछ तो बदल गया है।
स्वर्ण मृग नहीं होते
काश! स्वर्ण मृग नहीं होते।
न होती सीता की कथाएॅं
न होती रावण की चर्चा।
काश! स्वर्ण मृग नहीं होते।
तुम शायद कहोगे
आज तो नहीं हैं स्वर्ण मृग।
हैं न,
मृग मरीचिकाएॅं तो हैं,
मृग तृष्णाएॅं तो हैं।
न कोई राम है, न रावण।
स्वयॅं ही वन-कानन हैं,
स्वयं ही राम-रावण
और लक्ष्मण रेखा से जूझती
सीता भी स्वयं ही हैं।
वनवास
केवल तब नहीं होता
जब वन में रहते हैं।
मन में भी वन होते हैं सघन,
अग्नि परीक्षा
केवल अग्नि में
समा जाने से नहीं होती,
अपने भीतर भी होती रहती है।
अपनी ही परीक्षाएॅं लेते हैं
अपनी ही खींची हुई लक्ष्मण रेखा
लांघते हैं
और अपने भीतर ही
अपहृत हो जाते हैं।
इस व्यथा को
मैं स्वयं नहीं समझ सकी
तो आपको क्या समझाउॅं।
प्रतीक्षा में
बाट में
बैठी हूॅं तुम्हारी
उस दिन से ही
जिस दिन
छोड़ गये थे तुम मुझे
चुनरिया, चूड़ा
पहनाकर
मेंहदी, बिंदिया लगाये थे।
बिरहन का यह चोला पहनाकर
घट भरकर लाये थे।
तुम मुझे इस रूप में देखकर
बहुत मन भाये थे।
फिर शहर चले गये तुम।
लौटने का वादा करके
मन सावन था
पतझड़ हो गया।
तुम न आये।
जियरा न लागे तुम बिन
यूॅं ही बैठी तुम्हारी बिरहन
तुम्हारी प्रतीक्षा में
कभी तो लौटकर आओगे तुम।
रोटियाॅं यूॅं ही नहीं सिंकती
रोटियाॅं यूॅं ही नहीं सिंकती
कहीं आग सुलगती है
कहीं लकड़ी भभकती है
और कहीं
भीतर ही भीतर
लौ जलती है।
जब जलती आग
राख हो जाये
तो दूध,
जो सदा उफ़नकर
फैलने की आदत रखता है
वह भी
सिमट-सिमट जाता है,
सबका स्वभाव बदल जाता है।
आग
भीतर जले है या बाहर
सुलगती भी है
और राख बनकर
राख भी कर जाती है।
विघ्नहर्ता गणेश
लाखों नहीं
करोड़ों की संख्या में
विराजते हैं आप
हर वर्ष हमारे घरों में
आदरणीय गणेश जी।
दस दिन बाद
आपका विसर्जन कर
पुकारते हैं
अगले वर्ष जल्दी आना।
विसर्जित भी करते हैं
और चाहते हैं
कि आप पुनः-पुनः
हमारे घर पधारें
हर वर्ष पधारें।
गणेश जी के मूर्त रूप को तो
तिरोहित कर देते हैं
किन्तु उनका अमूर्त रूप
क्या रख पाते हैं हम
अपने भीतर,
अथवा केवल
पूजा-अर्चना में ही
याद आती है उनकी।
मूर्तियाॅं तिरोहित करें
किन्तु विघ्नहर्ता गणेश जी को
अपने भीतर ही रखें।
दूध-घी की नदियाॅं
कहते हैं
भारत में कभी
दूध-घी की
नदियाॅं बहती थीं
और किसी युग में
दूध-दहीं की
मटकियाॅं फोड़ने की
परम्परा थी
और उस युग की महिलाएॅं
इसका खूब आनन्द लिया करती थीं।
ये सब
शायद मेरे जन्म से
पहले की बातें रही होगी।
क्योंकि हमने तो
दूध को
जब भी देखा
प्लास्टिक की थैलियों में देखा।
इतना ज़रूर है
कि जब कभी थैली फ़टी है
तो दूध की नदियाॅं और
माॅं की डांट साथ बही है।
वैसे सुना है
दूध बड़ा उपयोगी पेय है
बहुत कुछ देता है
बस, ज़रा ध्यान से
उसे मथना पड़ता है
फिर बहुत कुछ निकलकर आता है।
वैसे दूध के
और भी
बड़े उपयोग हुआ करते हैं
इंसान को मिले न मिले,
हम सांपों को दूध पिलाते हैं
यह और बात है
कि पता नहीं लगता
कि वे कब
आस्तीन के साॅंप बन जाते हैं
और हम
कुछ भी समझ नहीं पाते हैं।
स्त्री की बात
स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
दया, शर्म, हया, त्याग
की बात करने लगते हैं।
-
स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
सतीत्व, अग्नि-परीक्षा, अहिल्या, सावित्री
पतिव्रता, उसके चाल-चलन
की बात करने लगते हैं।
-
स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
उसके वस्त्रों की बात करने लगते हैं।
-
स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
सास-बहू, ननद-भाभी
के रिश्तों की बात करने लगते हैं।
-
स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
यौवन, सौन्दर्य, प्रदर्शन, श्रृंगार
की बात करने लगते हैं।
-
स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
संस्कारी, आधुनिका, घरेलू, नौकरीपेशा
निकम्मी, निठल्ली की बात करने लगते हैं।
-
स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
कलही, लड़ाकू, घर उजाड़ने वाली
की बात करने लगते हैं।
-
स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
पति को गुलाम बनाकर रखने वाली
अंगुलियों पर नचाने वाली
की बात करने लगते हैं।
-
बातें तो बहुत करते हैं
पर
कभी उसके सपनों की बात भी कर लो।
कभी उसके अपनों की बात भी कर लो।
कभी उसके मन की बात भी कर लो।
कभी उसकी इच्छाओं-अनिच्छाओं
की बात भी कर लो।
कभी उसकी चाहतों को
आकाश देने की बात भी कर लो।
कभी उसके आंसुओं को
समझने की बात भी कर लो।
कभी उसकी मुस्कुराहट में
छिपी वेदना की बात भी कर लो।
बातें तो बहुत हैं
पर इतनी तो कर लो।
ज़िन्दगी किसी उत्सव से कम नहीं
ज़िन्दगी किसी उत्सव से कम नहीं बस मनाने की बात है
ज़िन्दगी किसी उपहार से कम नहीं बस समझने की बात है
कुछ नाराज़गियों, निराशाओं से घिरे हम समझ नही पाते
ज़िन्दगी किसी प्रतिदान से कम नहीं बस पाने की बात है
मित्रता
मैं नहीं जानती कि मैं क्यों मित्र नहीं बना पाती थी। जहॉं मैं स्वभाव की बहुत बड़बोली मानी जाती थी वहॉं व्यक्तिगत रूप से बहुत संकोची थी। अर्थात मन की बात किसी से कह देना मेरे स्वभाव में कभी नहीं रहा। और जब हम मित्रों से अपने बारे में छुपाने लगते हैं और झूठ बोलने लगते हैं तो वे दूर हो जाते हैं क्योंकि हर कोई इतना तो समझदार होता ही है कि वह वास्तविकता और छुपाव में अन्तर कर लेता है।
किन्तु कवि गोष्ठियों एवं समारोहों में मेरी एक मित्र बनी मीरा दीक्षित। यह शायद 1994-95 के आस-पास की बात है। हम प्रायः मिलते, घर भी आते-जाते और परस्पर खुलकर बातें भी करते। यद्यपि मैं यहॉं इस रूप में संकोची ही रही किन्तु मीरा शायद मेरे इस स्वभाव को जान गई थी और इसे उसने सहज लिया और हमारी मित्रता अच्छी रही।
किन्तु सन् 2000 के आस-पास मेरे जीवन में कुछ ऐसी घटनाएॅं-दुर्घटनाएॅं घटीं कि हम शहर छोड़कर सारी स्मृतियॉं पीछे छोड़कर बहुत दूर निकल गये। नया शहर, नये लोग, नई परिस्थितियॉं, नये संघर्ष, पिछला कुछ तो मिट गया, कुछ छूट गया। स्मृतियॉं विश्रृंखलित हो गईं।
इस बीच 2011 में मैं फ़ेसबुक से जुड़ी और मेरा लेखन पुनः आरम्भ हुआ। 2016 में मेरी एक रचना पर मेरी मित्र मीरा का संदेश आया कि कविता कहॉं हो। मुझे याद ही नहीं आया। फिर संदेश बाक्स में बात होती रही, वे पूछती रहीं और मैं अनुमान लगाती रही। बाद में उन्होंने कुछ संकेत दिये तो मैं पहचान पाई। जितनी प्रसन्नता हुई उतना ही दुख कि मैं अपनी ऐसी मित्र को कैसे भूल सकती थी। फिर बीच-बीच में कभी बातचीत, विचारों का आदान-प्रदान, रचनाओं पर प्रतिक्रियाएॅं।
किन्तु मेरे लिए वह एक बहुत ही सुन्दर दिन था जब मेरा एक साहित्यिक समारोह में लखनउ जाने का कार्यक्रम बना। मीरा लखनउ में ही थीं। मैंने उन्हें तत्काल फ़ोन किया और मिलने का कार्यक्रम बनाया। मेरे पास समय कम था, 26 मई को मैं समारोह के लिए पहुॅची और 27 दोपहर की मेरी वापसी थी।
लगभग 24 साल बाद हम मिले। मीरा मुझसे मिलने प्रातः 8 बजे मेरे होटल आईं। हमने मात्र दो घंटे साथ बिताए, किन्तु वे दो घंटे मेरे लिए अविस्मरणीय रहे। इतना आनन्द, सुखानुभूति, लिखना असम्भव है।
हमने यही कहा, यदि ईश्वर ने यह अवसर दिया है तो आगे भी ज़रूर मिलेंगे।
संकुचित मानसिकता आज क्यों बढती जा रही है
यह बात बिल्कुल सत्य है कि आज संकुचित मानसिकता बढ़ती जा रही है। यह सामाजिक, पारिवारिक तौर पर चिन्ता का विषय है।
संकुचित मानसिकता के भी कई रूप हैं। धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक। मेरी दृष्टि में इस समय हमारी सर्वाधिक संकुचित मानसिकता धार्मिक है। दूसरे स्थान पर सामाजिक है, जो धार्मिकता से ही प्रभावित है।
धर्म से जुड़े रहना अच्छी बात है किन्तु अंध-धार्मिकता मनुष्य को पीछे ले जाती है। वर्तमान में शिक्षा, रोज़गार, आत्मनिर्भरता, चिकित्सा सुविधाओं से अधिक चर्चा हम धर्म पर करने लगे हैं। आज अनेक तथाकथित धर्म-प्रचारक आॅन-लाईन बैठे हैं और हम लोग चाहे-अनचाहे उन्हें सुनने लगते हैं, रील्ज़ देखने लगते हैं, जो एक धीमे ज़हर के रूप में हमारे मन-मस्तिष्क पर प्रभाव डालते हैं और हमारी सोच अपने-आप ही बदलने लगती है और इस परिवर्तन को हम समझ ही नहीं पाते।
चिन्तनीय यह कि पढ़े-लिखे लोग भी इससे अछूते नहीं हैं। एक ओर हम विज्ञान में चाॅंद को छू रहे हैं दूसरी ओर हम अंधविश्वासों से पीछा नहीं छुड़ा पा रहे हैं। इसका एक कारण आज के समाज में प्रदर्शन, दिखावा बढ़ता जा रहा है। हम अपने-आपको हर समय दूसरों से बेहतर सिद्ध करने के प्रयास में लगे रहते हैं। किन्तु यह बेहतरी रहन-सहन, व्यवहार की नहीं, अपने आपको अकारण श्रेष्ठ सिद्ध करने की भावना को लेकर है। धर्म, संस्कृति, पूजा-पाठ, पर्वों पर अकारण दिखावा भी संकुचित मानसिकता का ही प्रतीक है, क्योंकि हम सहज-सरल जीवन से दूर होकर प्रदर्शनों की दुनिया में जीने लगे हैं।
आदर-सूचक शब्द
किसी का नाम लिखते समय हमें कितने आदर-सूचक शब्द आगे-पीछे लगाने चाहिए। आदरणीय, श्री, परम श्रद्धेय, आचार्य, गुरुवर, पूज्य, चरणवन्दनीय, प्रातः स्मरणीय, ऋषिवर, -परमादरणीय जी आदि-इत्यादि।
आजकल कुछ महान लेखन अपने से महान लेखकों के नाम के साथ एकाधिक ऐसे ही सम्बोधन कर रहे हैं।
मुझे लगता है कि किसी के नाम के साथ केवल एक ही आदरसूचक शब्द का प्रयोग होना चाहिए चाहे वह नाम से पहले हो अथवा नाम के बाद।
और यदि किसी के नाम के साथ डा., प्रो. आदि हों तो उससे पूर्व भी किसी सम्मानसूचक शब्द का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।
सम्मानजनक शब्दों के प्रयोग की भी एक सीमा होती है, इतने भी नहीं लिखे जाने चाहिए कि वे हास्यास्पद प्रतीत होने लगें अथवा चाटुकारिता।
आप क्या-क्या लिखते हैं।
निर्जला-एकादशी
मुझे कुछ बातें समझ नहीं आतीं, आपको आतीं हो तो मुझे अवश्य बताईएगा।
निर्जला एकादशी के दिन जगह-जगह छबील लगी थी।
पानी में कच्चा दूध, रूह-अफ़जाह और बर्फ़ से ठण्डा कर आने-जाने वालों को रोक-रोक कर यह जल पिलाया जा रहा था। अधिकांश महिलाएॅं और छोटे-छोटे बच्चे ही वहाॅं पर सेवा-भाव से काम कर रहे थे। गर्मी इतनी कि लगभग सभी आने-जाने वाले पानी पी रहे थे। अच्छा लगा।
किन्तु आज ही सभी लोग निर्जलाएकादशी के कारण छबील लगा रहे थे। क्योंकि यह पुण्य का कार्य माना जाता है, न कि वास्तव में प्यासे लोगों को पानी पिलाने की सोच। यह भी देखने में आया कि दस-दस, बीस-बीस गज़ की दूरी पर छबील लगी हुई थीं। प्रातः 9 बजे से चल रही छबील 12 बजे तक सिमटने लगीं और जब सूर्य आकाश पर आकर तपने लगा तब तक अधिकांश छबील सिमटकर जा चुकी थीं। क्या ऐसा नहीं कर सकते थे कि आपस में तालमेल कर लेते और एक छबील समाप्त होने पर दूसरी फिर तीसरी और इस तरह लगाते तो आने-जाने वाले लोगों को शाम तक ठण्डा पानी मिल पाता।
यह भी ज्ञात हुआ कि आज के दिन पंखी, खरबूजे और घड़ों का दान किया जाता है जिससे पुण्य की प्राप्ति होती है। अर्थात् यह दान भी जरूरतमंदों के लिए नहीं, अपने पुण्य के लिए करना है। पहले यह दान ज़रूरतमंदों को दिया जाता था अब मन्दिरों में देने की प्रथा बन गई है।
इतनी गर्मी में भी मन्दिरों के आगे भारी भीड़ देखने को मिली। और अधिकांश महिलाएॅं अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ वहाॅं लाईन में लगी हुई थीं। मन्दिरों में पंखियों, घड़ों और खरबूजों के ढेर लग रहे थे।
मुझे लिखने की आवश्यकता नहीं है कि वहाॅं इनका क्या उपयोग हुआ होगा।
निर्जला एकादशी के दिन छबील लगाना और दान देना पुण्य का काम है किन्तु इतनी गर्मी में लोग तो हर रोज़ ही गर्मी और प्यास से त्रस्त हैं। जो लोग दान एकत्र करके केवल एक दिन के लिए छबील लगाते हैं वे क्या कहीं मार्गों पर स्थायी रूप से आने जाने वालों के लिए पीने के पानी की स्थायी व्यवस्था नहीं कर सकते। कर तो सकते हैं किन्तु क्यों करें और पहल कौन करे। मुझे तो आज करना था क्योंकि इससे पुण्य की प्राप्ति होती है।
मैं फिर भटक कर गूगल पर चली गई। वहाॅं से प्राप्त ज्ञान भी आपसे बाॅंटना चाहूॅंगी।
यह सारे कथन व्यास जी के हैं, मेरे नहीं।
निर्जला एकादशी पर गरीबों को दान देने, पानी पिलाने एवं जल भरा मटका दान करने से आपके पुण्य कर्मों में वृद्धि होती है, इससे मोक्ष के द्वार खुल जाते हैं, जीवन में सुख-समृद्धि की प्राप्ति भी होती है।
विष्णु पुराण के अनुसार ज्येष्ठ के महीने में सूर्य की बढ़ती गर्मी से हर जीव परेशान हो जाते हैं। ऐसे में अगर आप किसी प्यासे को जल भरे मटके का दान देते हैं, तो उसकी आत्मा जल पीकर तृप्त हो जाती है और उस मनुष्य के मुख से निकली हुई कामना ईश्वर की वाणी होती है।
जो ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में एकादशी को उपवास करके दान देंगे, वे परमपद को प्राप्त होंगे। जिन्होंने एकादशी को उपवास किया है, ये ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होने पर भी सब पातकों से मुक्त हो जाते हैं।
जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न खाता है, यह पाप भोजन करता है। इस लोक में वह चाण्डाल के समान है और मरने पर दुर्गति को प्राप्त होता है।
जिन्होंने शम, दम और दान में प्रवृत्त हो श्रीहरि की पूजा और रात्रि में जागरण करते हुए इस निर्जला एकादशी का व्रत किया है, उन्होंने अपने साथ ही बीती हुई सौ पीढ़ियों को और आने वाली सौ पीढ़ियों को भगवान् वासुदेव के परम धाम में पहुँचा दिया है। निर्जला एकादशी के दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शय्या, सुन्दर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने चाहिये। जो श्रेष्ठ एवं सुपात्र ब्राह्मण को जूता दान करता है, वह सोने के विमान पर बैठकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है।
इसलिए आपसे अनुरोध है कि इन प्राप्तियों के लिए आप भी निर्जला एकादशी का व्रत, दान आदि अवश्य करें।
रक्षा बंधन
रक्षा-बन्धन का पर्व भाई-बहन के अपनत्व का पर्व है। इस पर्व में अन्य कोई भी रिश्ता समाहित नहीं है। सम्भवतः इसी कारण इस पर्व में सदैव एक सादगी रही है। हमारे समय में बाज़ार में सुन्दर आकर्षक, सादगीपूर्ण राखियाॅं मिलती थीं। राखियों के साथ लाल रंग की मौली अथवा कंगना बांधा जाता था। टीका लगाकर बहन राखी बांधती थी, घर में बने मिष्ठान्न से बहन भाई का मुॅंह मीठा करवाती थी और भाई शगुन के रूप में बहन के हाथ में अपनी क्षमतानुसार कुछ राशि देता था।
यह मानने में कोई संकोच नहीं कि वर्तमान में सभी रिश्तों की गहराई में परिवर्तन आया है। वर्तमान में भाई अथवा बहन के विवाहित होने पर इस पर्व में प्रर्दशन और भी बढ़ गया है। बहन क्या लेकर आई है, भाई क्या देकर जायेगा, बात होती है। वैसी सादगी व अपनापन कहीं खो गया है। रिश्तों पर आधुनिकता की कलई चढ़ गई है। लाल मौली या कंगना की जगह चांदी-सोने की राखियाॅं लाई जाती हैं और भाई शगुन न देकर उपहार देने लगे हैं। शेष हमारे विज्ञापन जगत, टीवी धारावाहिकों एवं व्यापार ने रिश्तों को बदल दिया है और हम अनचाहे ही उसमें उलझकर रह गये हैं।
कविता सूद 19.8.2024
अधूरी हसरतें
कितना भी मिल जाये पर नहीं लगता है कि पूरी हो रही हैं हसरतें
जीवन बीत जाता है पर सदैव यही लगता है अधूरी रही हैं हसरतें
औरों को देख-देख मन उलझता है, सुलझता है और सुलगता है
ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार में उलझकर अक्सर बिखर जाती हैं हसरतें
दण्ड विधान
आज तक मैंने कभी भी किसी रिश्वत देने वाले को दण्डित किये जाने का समाचार नहीं पढ़ा। यदि ऐसा हो कि रिश्वत लेने वाले से पहले देने वाले को दण्डित किया जाये तो शायद किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार पर अधिक रोक लग पायेगी।
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हम बच्चों की शिक्षा पर बहुत बात करते हैं।
किन्तु आज प्रतियोगी परीक्षाओं की जो स्थिति सामने आ रही है केवल इस पीढ़ी का ही नहीं, अगली पीढ़ी भी चिन्ताओं में घिरी बैठी है। अभी तीन परीक्षाएॅं पेपर लीक होने के कारण निरस्त कर दी गईं। केवल एक ही प्रतियोगी परीक्षा में लगभग 24 लाख विद्यार्थी बैठे थे और स्थान केवल एक लाख 10 हज़ार थे। इन प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए विद्यार्थी 10वीं के बाद दो वर्ष तैयारी करते हैं और साथ ही प्लस 1 और प्लस 2 की भी परीक्षाएॅं देते हैं। कोचिंग पर ही लाखों रुपये लग जाते हैं। इस धांधली में कितने लोग पकड़े गये, कितने नहीं, सच्चाई आम आदमी तक पहुॅंचती ही नहीं। पुर्नपरीक्षा कब होगी कोई नहीं जानता और पुनर्परीक्षा होने तक विद्यार्थी किस मनःस्थिति में रहेंगे , चिन्तनीय विषय है।
सबसे चिन्ता की बात यह कि वे कौन अभिभावक हैं जो अपने अयोग्य बच्चों को धन-बल से डाक्टर, इंजीनियर आदि बनाना चाहते हैं। आज हमारी चिन्ता यह तो है ही कि पेपर लीक हुए और बच्चों का भविष्य अधर में लटका। इस धांधली में लगे लोगों को दण्डित किया ही जाना चाहिए। किन्तु इतनी ही चिन्ता यह भी होनी चाहिए कि अयोग्य विद्यार्थियों के अभिभावक भी उतने ही दोषी हैं। यदि अभिभावक अपने बच्चों के लिए गलत राहें न चुनें तो यह अपराध अपने-आप ही कम होने लगेंगे, और धन देने वालों के लिए भी दण्ड का प्रावधान हो ।
कविता सूद 25.6.2024
विडम्बना
मैं अपने-आपको नास्तिक मानती हूॅं । क्योंकि मूर्ति-पूजा, मन्दिर जाना, प्रवचन, धार्मिक आख्यानों, व्रत-उपवास, साधु-संतों में मेरा विश्वास नहीं बनता। किन्तु जो मानते हैं मैं उनकी भी विरोधी नहीं हूॅं। किन्तु वर्तमान में आख्यानक, मंचों से धार्मिक भाषण परोसने वाले बाबा और बेबियाॅं मुझे कभी समझ नहीं आते। वे क्या समझाना चाहते हैं और लोगों की लाखों की भीड़ अपने जीवन में उनके भाषण से क्या समझना चाहती है, जो वे स्वयॅं नहीं जानते। उनकी भाषा, उनकी बातें, सब अद्भुत होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानों हमारा जन्म ही व्यर्थ है और हम नितान्त मूर्ख, अज्ञानी हैं। परिवार, समाज, सम्बन्ध सब लालसाएॅं हैं। वे मनोवैज्ञानिक अथवा मनोविश्लेषक भी नहीं होते किन्तु लोगों को इस रूप में भ्रमित अवश्य करते हैं। घंटों भीड़ में बैठकर, अपना पूरा दिन भूखे-प्यासे, घरों से दूर, क्या उपलब्ध होता है लोगों को। इन लोगों की अधकचरी ज्ञान से सनी धार्मिक ग्रंथों की मन से गढ़ी कथाएॅं क्या दे पाती हैं लोगों को, समझ नहीं आता। वास्तव में यह वैसा ही भीेड़-तंत्र है जैसे आजकल सड़कों पर होता है। जब लोग बिना जाने-समझे, किसी को पिटता देख उसे पीटने में हाथ आजमाने लग जाते हैं। वैसे ही, यहाॅं भी होता है कि भीड़ में घुसकर देखें तो यहाॅं क्या हो रहा है।
किन्तु भीड़ में घुसकर, हाथ आजमाने में कब जान चली जाती है कब अपने खो जाते हैं, कब क्या लुट जाता है, कौन समझ पाता है।
किन्तु यहाॅं भी तो यही कहा जाता है कि चलो ऐसे स्थान पर जान गई, सीधे स्वर्ग पहुॅच गये।
किसी ने लिखा था कि देह यहाॅं जल जाती है, आत्मा अजर-अमर है तो नर्क और स्वर्ग का कैसे पता।
ऐसे हादसों में कोई अपराधी नहीं होता। किसी को दण्ड नहीं मिलता। वैसे भी हमारे भारत में दण्ड व्यवस्था बहुत विनम्र है। जीवन बीत जाता है किसी अपराधी को पकड़ने में और दण्डित करने में, और निरपराध कारागार में जीवन बिता देते हैं।
मृतकों को दो-दो लाख, घायलों को दस-बीस हज़ार, हमारा कर्तव्य पूरा। यह और बात है कि यह घोषित राशि वास्तव में मिलेगी भी या नहीं।
हाथरस की घटना से हम कोई सबक तो लेंगे नहीं।
तो तैयार रहिए अगली दुर्घटना की बात सुनने के लिए।