खेल फिर शुरू हो जाता है

कभी कभी, समझ नहीं पाती हूं

कि मैं

आतंकित होकर चिल्लती हूं

या आतंक पैदा करने के लिए।

तुमसे डरकर चिल्लती हूं

या तुम्हें डराने के लिए।

लेकिन इतना जानती हूं

कि मेरे भीतर एक डर है

एक औरत होने का डर।

और यह डर

तुम सबने पैदा किया है

तुम्हारा प्यार, तुम्हारी मनुहार

पराया सा अपनापन

और तुम्हारी फ़टकार

फिर मौके बे मौके

उपेक्षा दर्शाता तुम्हारा तिरस्कार

निरन्तर मुझे डराते रहते हैं।

और तुम , अपने अलग अलग रूपों में

विवश करते रहते हो मुझे

चिल्लाते रहने के लिए।

फिर एक समय आता है

कि थककर मेरी चिल्लाहट

रूदन में बदल जाती है।

और तुम मुझे

पुचकारने लगते हो।

*******

खेल, फिर शुरू हो जाता है।

मोती बनीं सुन्दर
बूँदों का सागर है या सागर में बूँदें

छल-छल-छलक रहीं मदमाती बूँदें

सीपी में बन्द हुईं मोती बनीं सुन्दर

छू लें तो मानों डरकर भाग रही बूँदें

मुखौटे चढ़ाए बेधड़क घूमते हैं

अब

मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।

डर नहीं रह गया अब,

कोई खींच के उतार न दे मुखौटा

और कोई देख न ले असली चेहरा

तो, कहां छिपते फिरेंगे।

मुखौटों की कीमत पहले भी थी

अब भी है।

फ़र्क बस इतना है

कि अब खुलेआम

बोली लगाये घूमते हैं।

मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।

बेचते ही नहीं,

खरीदते भी हैं ।

और ज़रूरत आन पड़े

तो बड़ों बड़ों के मुखौटे

अपने चेहरे पर चढ़ाए

बेधड़क घूमते हैं।

किसी का भी चेहरा नोचकर

उसका मुखौटा बना

अपने चेहरे पर

चढ़ाए घूमते हैं।

जो इन मुखौटों से मिल सकता है

वह असली चेहरा कहां दे पाता कीमत

इसलिए

अपना असली चेहरा  

बगल में दबाये घूमते हैं।

अर्थ का अनर्थ

शब्द बदल देने से

भाव बदल जाते हैं।

नाम-मात्र से

युद्धों के

परिणाम बदल जाते हैं।

बात कुंजर की थी,

नर कहा गया,

महाभारत का युद्ध पलट गया।

नाम वही है,

पर आधी बात सुनने से

कभी-कभी

अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

गज-गामिनी,

मदमस्त चाल कहने से

कभी-कभी

व्यंग्य-कटाक्ष हो जाता है।

इसलिए

जब भी शब्द चुनो

सोच-समझकर चुनना,

कहने से पहले दो बार सोचना,

क्योंकि

मद-मस्त चलने वाला

जब भड़कता है

तब

शहर किसने देखे,

जंगल के जंगल

उजड़ जाते हैं।

शुक्र मनाईये,

ये शहर की ओर नहीं देखते,

नहीं तो हम-आप

अभयारण्य में होते।

कुछ छूट गया जीवन में

गांव तक कौन सी राह जाती है कभी देखी नहीं मैंने

वह तरूवर, कुंआ, बाग-बगीचे, पनघट, देखे नहीं मैंने

पीपल की छाया, चौपालों का जमघट, नानी-दादी के किस्से

लगता है कुछ छूट गया जीवन में, जो पाया नहीं मैंने

ज़मीन से उठते पांव थे

आकाश को छूते अरमान थे

ज़मीन से उठते पांव थे

आंखों पर अहं का परदा था

उल्टे पड़े सब दांव थे

अनूठी है यह दुनिया

 अनूठी है यह दुनिया, अनोखे यहां के लोग।

पहचान नहीं हो पाई कौन हैं  अपने लोग।

कष्टों में दिखते नहीं, वैसे संसार भरा-पूरा,

कहने को अनुपम, अप्रतिम, सर्वोत्तम हैं ये लोग।

कोयल और कौए दोनों की वाणी मीठी होती है

बड़ी मौसमी,

बड़ी मूडी होती है कोयल।

अपनी कूक सुनाने के लिए

एक मौसम की प्रतीक्षा में

छिपकर बैठी रहती है।

पत्तों के झुरमुट में,

डालियों के बीच।

दूर से आवाज़ देती है

आम के मौसम की प्रतीक्षा में,

बैठी रहती है, लालची सी।

कौन से गीत गाती है

मुझे आज तक समझ नहीं आये।

 

मुझे तो आनन्द देती है

कौए की कां कां भी।

आवाज़ लगाकर,

कितने अपनेपन से,

अधिकार से आ बैठता है

मुंडेर पर।

बिना किसी नाटक के

आराम से बैठकर

जो मिल जाये

खाकर चल देता है।

हर मौसम में

एक-सा भाव रखता है।

 

बस कुछ धारणाएं

बनाकर बैठ जाते हैं हम,

नहीं तो, बेचारे पंछी

तो सभी मधुर बोलते हैं,

मौसम की आहट तो

हमारे मन की है

फिर वह बसन्त हो

अथवा पतझड़।

 

असमंजस में रहते हैं हम

कितनी बार,

हम समझ ही नहीं पाते,

कि परम्पराओं में जी रहे हैं,

या रूढ़ियों में।

.

दादी की परम्पराएं,

मां के लिए रूढ़ियां थीं,

और मां की परम्पराएं

मुझे रूढ़ियां लगती हैं।

.

हमारी पिछली पीढ़ियां

विरासत में हमें दे जाती हैं,

न जाने कितने अमूल्य विचार,

परम्पराएं, संस्कृति और व्यवहार,

कुछ पुराने यादगार पल।

इस धरोहर को

कभी हम सम्हाल पाते हैं,

और कभी नहीं।

कभी सार्थक लगती हैं,

तो कभी अर्थहीन।

गठरियां बांधकर

रख देते हैं

किसी बन्द कमरे में,

कभी ज़रूरत पड़ी तो देखेंगे,

और भूल जाते हैं।

.

ऐसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी

सौंपी जाती है विरासत,

किसी की समझ आती है

किसी की नहीं।

किन्तु यह परम्परा

कभी टूटती नहीं,

चाहे गठरियों

या बन्द कमरों में ही रहें,

इतना ही बहुत है।

 

खास नहीं आम ही होता है आदमी

खास कहां होता है आदमी

आम ही होता है आदमी।

 

जो आम नहीं होता

वह नहीं होता है आदमी।

वह होता है

कोई बड़ा पद,

कोई उंची कुर्सी,

कोई नाम,

मीडिया में चमकता,

अखबारों में दमकता,

करोड़ों में खेलता,

किसी सौदे में उलझा,

कहीं झंडे गाढ़ता,

लम्बी-लम्बी हांकता

विमान से नीचे झांकता

योजनाओं पर रोटियां सेंकता,

कुर्सियों की

अदला-बदली का खेल खेलता,

अक्सर पूछता है

कहां रहता है आम आदमी,

कैसा दिखता है आम आदमी।

क्यों राहों में आता है आम आदमी।

जीवन की डोर पकड़

पुष्प-पल्लवविहीन वृक्षों का

अपना ही

एक सौन्दर्य होता है।

कुछ बिखरी

कुछ उलझी-सुलझी

किसी छत्रछाया-सी

बिना झुके,

मानों गगन को थामे

क्षितिज से रंगीनियाँ

सहेजकर छानतीं,

भोर की मुस्कान बाँटतीं

मानों कह रही

राही बढ़े चल

कुछ पल विश्राम कर

न डर, रह निडर

जीवन की डोर पकड़

राहों पर बढ़ता चल।

 

 

 

विश्व चाय दिवस

सुबह से भूली-भटकी अभी मंच पर आगमन हुआ तो ज्ञात हुआ कि आज तो अन्तर्राष्ट्रीय चाय दिवस अथवा विश्व चाय दिवस है।

ऐसा कैसे सम्भव है। चाय का और केवल एक दिवस! नहीं, नहीं, यह तो चाय का और चाय के नशेड़ियों का घोर अपमान है।

शिमला में हम परिवार में आठ सदस्य थे, दिन-भर में 80-90 चाय तो बनती ही होगी और वह भी लार्ज पटियाला साईज़, पीतल के बड़े गिलास। मेरी दादी मेरी माँ से कहती थी पानी की टंकी में ही चीनी-पत्ती डाल दे, अपने-आप सब दिन-भर पीते रहेंगे।

दिन भर में पाँच-छः चाय तो अब भी पी ही लेती हूँ। कुछ वर्ष पहले तक दस-बारह हो ही जाती थी। उससे पहले 12-15। गज़ब की पाचन-क्षमता  रही है मेरी। प्रातः घर से 7.30 निकल जाती थी किन्तु आम बात थी कि चार से पांच चाय पी लेती थी। काम करते-करते एक कप खाली हुआ, दूसरा तैयार। एक नाश्ते के साथ और दूसरा नाश्ते के बाद। फिर कार्यालय पहुँचकर टेबल पर सबसे पहले चाय। चाय देने वाले को भी पता था कि मैडम को कितनी चाय चाहिए होती है। वैसे भी छोटे-छोटे गिलास में आती चाय वैसे ही मूड खराब कर देती है इस कारण मुझे हर जगह अपना ही कप या गिलास रखना पड़ता था। जब मेरा स्थानान्तरण हुआ तो मज़ाक किया जाता था कि कंटीन तो अब बन्द हो जायेगी, कविता तो जा रही है।

मेरे लिए चाय का अर्थ है शुद्ध चाय। अर्थात पानी, ठीक-सा दूध, चीनी और पत्ती। कुछ लोग चाय के नाम पर काढ़ा पीना पसन्द करते हैं। हाय! अदरक नहीं डाला, छोटी इलायची के बिना तो स्वाद ही नहीं आता, दालचीनी वाली चाय बड़ी स्वाद होती है। दूध वाली गाढ़ी चाय होनी चाहिए। अरे तो दूध ही पी लीजिए, चाय के बहाने दूध क्यों पी रहे हैं, सीधे-सीधे कहिए कि दूध पीना है। कुछ लोग चाय का मसाला बनाकर रखते हैं। अरे ! ऐसी ही चाय पीनी है तो गर्म मसाला ही पी लीजिए, चाय को क्यों बदनाम कर रहे हैं।

लोग कहते हैं चाय से गैस हो जाती है, नींद नहीं आती है अथवा नींद आ जाती है। पता नहीं कैसे हैं यह लोग।

आह! किसी समय, कितनी बार, कहीं भी, बस चाय, चाय और चाय।

  

आदमी आदमी से पूछता

आदमी आदमी से पूछता है

कहां मिलेगा आदमी

आदमी आदमी से पूछता है

कहीं मिलेगा आदमी

आदमी आदमी से डरता है

कहीं मिल न जाये आदमी

आदमी आदमी से पूछता है

क्यों डर कर रहता है आदमी

आदमी आदमी से कहता है

हालात बिगाड़ गया है आदमी

आदमी आदमी को बताता है

कर्त्तव्यों से भागता है आदमी

आदमी आदमी को बताता है

अधिकार की बात करता है आदमी

आदमी आदमी को सताता है

यह बात जानता है हर आदमी

आदमी आदमी को बताता है

हरपल जीकर मरता है आदमी

आदमी आदमी को बताता है

सबसे बेकार जीव है तू आदमी

आदमी आदमी से पूछता है

ऐसा क्यों हो गया है आदमी

आदमी आदमी को समझाता है

आदमी से बचकर रहना हे आदमी

और आदमी, तू ही आदमी है

कैसे भूल गया, तू हे आदमी !

डगर कठिन है

बहती धार सी देखो लगती है जिन्दगी।

पहाड़ों पर बहार सी लगती है जिन्दगी।

किन्तु डगर कठिन है उंचाईयां हैं बहुत।

ख्वाबों को संवारने में लगती है जिन्दगी।

हमारा व्यवहार हमारी पहचान
हमारा व्यवहार हमारी पहचान Our Behavior Our Identity

निःसंदेह हमारा व्यवहार हमारी पहचान है।

किन्तु कभी आपने सोचा है कि हमारा व्यवहार कैसे बनता है? व्यवहार क्या है? हम किसी से कैसे बात करते हैं, कैसे प्रतिक्रिया करते हैं, अपने मनोभावों को कैसे प्रकट करते हैं, यही व्यवहार है। हँसना, बोलना, बात करना, प्रतिक्रिया देना, हाँ-ना, सहायता करना, न करना, प्रसन्नता, नाराज़गी, सम्मान-अपमानसभी व्यवहार ही तो हैं।

हर व्यक्ति का प्रयास रहता है कि वह सामने वाले से अच्छा व्यवहार करे कि उसकी छवि अच्छी बनी रहे। किन्तु क्या सदैव ऐसा हो पाता है? नहीं।

कारण, बहुत बार हमारा व्यवहार सामने वाले के व्यवहार की प्रतिच्छाया होता है। क्योंकि हम एक साधारण इंसान हैं, कोई पहुँचे हुए धर्मात्मा नहीं, इस कारण सामने वाले का व्यवहार हमारे व्यवहार को बदल सकता है।

जैसे मैं अपना ही उदाहरण देती हूँ। मैं नहीं कह सकती कि मेरा व्यवहार बहुत अच्छा है, ये तो मुझे जानने वाले ही बता सकते हैं। किन्तु मेरे व्यवहार में तात्कालिक प्रतिक्रिया है

मैं अपने साथ बात अथवा व्यवहार करने वाले के प्रति प्रतिक्रिया बहुत जल्दी देती हूँ। जैसा कि आप जानते हैं हमारे समाज में अपशब्दों का एवं और अनेक तरीकों से महिलाओं के साथ शाब्दिक, सांकेतिक दुव्र्यवहार होता है। ऐसे समय मेरा व्यवहार बदल जाता है। मैं अत्यधिक क्रोधित एवं आक्रामक हो जाती हूँ, मेरी सहनशक्ति मेरा साथ छोड़ देती है और मैं तत्काल प्रतिक्रिया करती हूँ। जो निश्चित रूप से क्रोध एवं प्रतिकार ही होती है।

ऐेसे समय में मेरा व्यवहार मेरा अपना नहीं होता , सामने वाले के व्यवहार की प्रतिच्छाया होता है। मेरा यह व्यवहार अथवा स्वभाव मेरा स्थायी व्यवहार नहीं है किन्तु मेरी पहचान अवश्य है कि मैं गलत का विरोध करने का साहस रखती हूँ।

अतः मेरी दृष्टि में हमारा व्यवहार परिस्थितियों, कार्य-क्षेत्र, हमारे आस-पास के वातावरण, लोगों पर बहुत निर्भर करता है और सम्भव है हमारा ऐसा व्यवहार स्थायी न हो और हमारी पहचान न हो।

अतः किसी के व्यवहार और उस व्यवहार से उसकी पहचान मानने के लिए किसी भी व्यक्ति की कोई एक बात से उसे समझा और जाना नहीं जा सकता, एक जीवन जीना पड़ता है किसी के व्यवहार को समझने के लिए और पहचान बनाने के लिए।

   

भावों की छप-छपाक

यूं ही जीवन जीना है।

नयनों से छलकी एक बूंद

कभी-कभी

सागर के जल-सी गहरी होती है,

भावों की छप-छपाक

न  जाने क्या-क्या कह जाती है।

और कभी ओस की बूंद-सी

झट-से ओझल हो जाती है।

हो सकता है

माणिक-मोती मिल जायें,

या फिर

किसी नागफ़नी में उलझे-से रह जायें।

कौन जाने, कब

फूलों की सुगंध से मन महक उठे,

तरल-तरल से भाव छलक उठें।

इसी निराश-आस-विश्वास में

ज़िन्दगी बीतती चली जाती है।

 

 

मर रहा है आम आदमी : कहीं अपनों हाथों

हम एक-दूसरे को नहीं जानते

नहीं जानते

किस देश, धर्म के हैं सामने वाले

शायद हम अपनी

या उनकी

धरती को भी नहीं पहचानते।

जंगल, पहाड़, नदियां सब एक-सी,

एक देश से

दूसरे देश में आती-जाती हैं।

पंछी बिना पूछे, बिना जाने

देश-दुनिया बदल लेते हैं।

किसने हमारा क्या लूट लिया

क्या बिगाड़ दिया,

नहीं जानते हम।

जानते हैं तो बस इतना

कि कभी दो देश बसे थे

कुछ जातियां बंटी थीं

कुछ धर्म जन्मे थे

किसी को सत्ता चाहिये थी

किसी को अधिकार।

और वे सब तमाशबीन बनकर

उंचे सिंहासनों पर बैठे हैं

शायद एक साथ,

जहां उन्हें कोई छू भी नहीं सकता।

वे अपने घरों में

बारूद की खेती करते हैं

और उसकी फ़सल

हमारे हाथों में थमा देते हैं।

हमारे घर, खेत, शहर

जंगल बन रहे हैं।

जाने-अनजाने

हम भी उन्हीं फ़सलों की बुआई

अपने घर-आंगन में करने लगे हैं

अपनी मौत का सामान जमा करने लगे हैं

मर रहा है आम आदमी

कहीं अपनों से

और कहीं अपने ही हाथों

कहीं भी, किसी भी रूप में।

मन हर्षित होता है

दूब पर चमकती ओस की बूंदें, मन हर्षित कर जाती हैं।

सिर झुकाई घास, देखो सदा पैरों तले रौंद दी जाती है।

कहते हैं डूबते को तृण का सहारा ही बहुत होता है,

पूजा-अर्चना में दूर्वा से ही आचमन विधि की जाती है।

 

बस जूझना पड़ता है

मछलियां गहरे पानी में मिलती हैं

किसी मछुआरे से पूछना।

माणिक-मोती पाने के लिए भी

गहरे सागर में

उतरना पड़ता है,

किसी ज्ञानी से बूझना।

किश्तियां भी

मझधार में ही डूबती हैं

किसी नाविक से पूछना।

तल-अतल की गहराईयों में

छिपा है ज्ञान का अपरिमित भंडार,

किसी वेद-ध्यानी से पूछना।

पाताल लोक से

चंद्र-मणि पाने के लिए

कौन-सी राह जाती है,

किसी अध्यवसायी से पूछना।

.

उपलब्धियों को पाने के लिए

गहरे पानी में 

उतरना ही पड़ता है।

जूझना पड़ता है,

सागर की लहरों से,

सहना पड़ता है

मझधार के वेग को,

और आकाश से पाताल

तक का सफ़र तय करना पड़ता है।

और इन कोशिशों के बीच

जीवन में विष मिलेगा

या अमृत,

यह कोई नहीं जानता।

बस जूझना पड़ता है।

 

मन टटोलता है प्रस्तर का अंतस

प्रस्तर के अंतस में

सुप्त हैं न जाने कितने जल प्रपात।

कल कल करती नदियां, 

झर झर करते झरने, 

लहराती बलखाती नहरें, 

मन की बहारें, और कितने ही सपने।

जहां अंकुरित होते हैं

नव पुष्प,

पुष्पित पल्लवित होती हैं कामनाएं

जिंदगी महकती है, गाती है,

गुनगुनाती है, कुछ समझाती है।

इन्द्रधनुषी रंगों से

आकाश सराबोर होता है

और मन टटोलता है

प्रस्तर का अंतस।

वृक्षों के लिए जगह नहीं

अट्टालिकाओं  की दीवारों से

लटकती है

मंहगी  हरियाली।

घरों के भीतर

बैठै हैं बोनसाई।

वन-कानन

कहीं दूर खिसक गये हैं।

शहरों की मज़बूती

वृक्षों के लिए जगह नहीं दे पाती।

नदियां उफ़नने लगी हैं।

पहाड़ दरकने लगे हैं।

हरियाली की आस में

बैठा है हाथ में पौध लिए

आम आदमी,

कहां रोपूं इसे

कि अगली पीढ़ी को

ताज़ी हवा,

सुहाना परिवेश दे सकूं।

.

मैंने कहा

डर मत,

हवाओं की मशीनें आ गई हैं

लगवा लेगी अगली पीढ़ी।

तू बस अपना सोच।

यही आज की सच्चाई है

कोई माने या न माने

 

 

उल्लू बोला मिठू से

उल्लू बोला मिठू से

चल आज नाम बदल लें

तू उल्लू बन जा

और मैं बनता हूँ तोता,

फिर देखें जग में

क्या-क्या होता।

जो दिन में होता

गोरा-गोरा,

रात में होता काला।

मैं रातों में जागूँ

दिन में सोता

मैं निद्र्वंद्व जीव

न मुझको देखे कोई

न पकड़ सके कोई।

-

आजा नाम बदल लें।

-

फिर तुझको भी

न कोई पिंजरे में डालेगा,

और आप झूठ बोल-बोलकर

तुझको न बोलेगा कोई

हरि का नाम बोल।

-

चल आज नाम बदल लें

चल आज धाम बदल लें

कभी तू रातों को सोना

कभी मैं दिन में जागूँ

फिर छानेंगे दुनिया का

सच-झूठ का कोना-कोना।

 

टांके लगा नहीं रही हूं काट रही हूं

अपनी उलझनों को सिलते-सिलते

निहारती हूं अपना जीवन।

मिट्टी लिपा चूल्हा,

इस लोटे, गागर, थाली

गिलास-सा,

किसी पुरातन युग के

संग्रहालय की वस्तुएं हों मानों

हम सब।

और मैं वही पचास वर्ष पुरानी

आेढ़नी लिये,

बैठी रहती हूं

तुम्हारे आदेश की प्रतीक्षा में।

कभी भी आ सकते हो तुम।

चांद से उतरते हुए,

देश-विदेश घूमकर लौटे,

पंचतारा सुविधाएं भोगकर,

अपने सुशिक्षित,

देशी-विदेशी मित्रों के साथ।

मेरे माध्यम से

भारतीय संस्कृति-परम्पराओं का प्रदर्शन करने।

कैसा होता था हमारा देश।

कैसे रहते थे हम लोग,

किसी प्राचीन युग में।

कैसे हमारे देश की नारी

आज भी निभा रही है वही परम्परा,

सिर पर आेढ़नी लिये।

सिलती है अपने भीतर के टांके

जो दिखते नहीं किसी को।

 

लेकिन, ध्यान से देखो ज़रा।

आज टांके लगा नहीं रही हूं,

काट रही हूं।