वक्त की रफ्तार देख कर

वक्त की रफ्तार देख कर
मैंने कहा, ठहर ज़रा,
साथ चलना है मुझे तुम्हारे।
वक्त, ऐसा ठहरा
कि चलना ही भूल गया।

आज इस मोड़ पर समझ आया,
वक्त किसी के साथ नहीं चलता।
वक्त ने बहुत आवाज़ें दी थीं,
बहुत बार चेताया था मुझे,
द्वार खटखटाया था मेरा,
किन्तु न जाने
किस गुरूर में था मेरा मन,
हवा का झोंका समझ कर
उपेक्षा करती रही।

वक्त के साथ नहीं चल पाते हम।
बस हर वक्त
किसी न किसी वक्त को कोसते हैं।
एक भी
ईमानदार कोशिश नहीं करते,
अपने वक्त को,
अपने सही वक्त को पहचानने की ।

बीहड़ वन आकर्षित करते हैं मुझे

कभी भीतर तक जाकर

देखे तो नहीं मैंने बीहड़ वन,

किन्तु ,

आकर्षित करते हैं मुझे।

कितना कुछ समेटकर रहते हैं

अपने भीतर।

गगन को झुकते देखा है मैंने यहां।

पल भर में धरा पर

उतर आता है।

रवि मुस्कुराता है,

छन-छनकर आती है धूप।

निखरती है, कण-कण को छूती है।

इधर-उधर भटकती है,

न जाने किसकी खोज में।

वृक्ष निःशंक सर उठाये,

रवि को राह दिखाते हैं,

धरा तक लेकर आते हैं।

धाराओं को

यहां कोई रोकता नहीं,

बेरोक-टोक बहती हैं।

एक नन्हें जीव से लेकर

विशाल व्याघ्र तक रहते हैं यहां।

मौसम बदलने से

यहां कुछ नहीं बदलता।

जैसा कल था

वैसा ही आज है,

जब तक वहां  मानव का

प्रवेश नहीं होता।

पूजने के लिए बस एक इंसान चाहिए

न भगवान चाहिए न शैतान चाहिए

पूजने के लिए बस एक इंसान चाहिए

क्या करेगा किसी के गुण दोष देखकर

मान मिले तो मन से प्रतिदान चाहिए

जीवन की  नवीन शुरुआत

 जीवन के कुछ पल

अनमोल हुआ करते हैं,

बड़ी मुश्किल से

हाथ आते हैं

जब हम

सारे दायित्वों को

लांघकर

केवल अपने लिए

जीने की कोशिश करते हैं।

नहीं अच्छा लगता

किसी का हस्तक्षेप

किसी का अपनापन

किसी की निकटता

न करे कोई

हमारी वृद्धावस्था की चिन्ता

हमारी हँसी-ठिठोली में

न बने बाधा कोई

न सोचे कोई हमारे लिए

गर्मी-सर्दी या रोग,

अब लेने दो हमें

टेढ़ेपन का आनन्द

ये जीवन की

एक नवीन शुरुआत है।

 

 

 

 

कड़वाहटों को बो रहे हैं हम

गत-आगत के मोह में आज को खो रहे हैं हम

जो मिला या न मिला इस आस को ढो रहे हैं हम

यहां-वहां, कहां-कहां, किस-किसके पास क्या है

इसी कशमकश में कड़वाहटों को बो रहे हैं हम

कहीं हम अपने को ही छलते हैं

ज़िन्दगी की गठजोड़ में अनगिनत सपने पलते हैं

कुछ देखे-अनदेखे पल जीवन-भर साथ चलते हैं

समझ नहीं पाते क्या खोया, क्या पाया, कहां गया

इस नासमझी में कहीं हम अपने को ही छलते हैं

आवरण है जब तक आसानियां बहुत हैं

परेशानियां बहुत हैं, हैरानियां बहुत हैं

कमज़ोरियां बहुत हैं, खामियां बहुत हैं

न अपना-सा है यहां कोई, न पराया

आवरण है जब तक आसानियां बहुत हैं

ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी

सपनों से हम डरने लगे हैं।

दिल में भ्रम पलने लगे हैं ।

ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी

अपने ही अब खलने लगे हैं।

 

पाप की हो या पुण्य की गठरी

 

पाप की हो या

पुण्य की गठरी

तो भारी होती है।

कौन करेगा निर्णय

पाप क्या

या पुण्य क्या!

तू मेरे गिनता

मैं तेरे गिनती,

कल के डर से

काल के डर से

सहम-सहम

चलते जीवन में।

इहलोक यहीं

परलोक यहीं

सब लोक यहीं

यहीं फ़ैसला कर लें।

कल किसने देखा

चल आज यहीं

सब भूल-भुलाकर

जीवन

जी भर जी लें।

 

दिन सभी मुट्ठियों से फ़िसल जायेंगे
किसी ने मुझे कह दिया

दिन

सभी मुट्ठियों से

फ़िसल जायेंगे,

इस डर से

न जाने कब से मैंने

हाथों को समेटना

बन्द कर दिया है

मुट्ठियों को

बांधने से डरने लगी हूँ।

रेखाएँ पढ़ती हूँ

चिन्ह परखती हूँ

अंगुलियों की लम्बाई

जांचती हूँ,

हाथों को

पलट-पलटकर देखती हूँ

पर मुट्ठियाँ बांधने से

डरने लगी हूँ।

इन छोटी -छोटी

दो मुट्ठियों में

कितने समेट लूँगी

जिन्दगी के बेहिसाब पल।

अब डर नहीं लगता

खुली मुट्ठियों में

जीवन को

शुद्ध आचमन-सा

अनुभव करने लगी हूँ,

जीवन जीने लगी हूँ।

 

न आंख मूंद समर्थन कर

न आंख मूंद समर्थन कर किसी का, बुद्धि के दरवाज़े खोल,

अंध-भक्ति से हटकर, सोच-समझकर, मोल-तोलकर बोल,

कभी-कभी सूरज को भी दीपक की रोशनी दिखानी पड़ती है,

चेत ले आज, नहीं तो सोचेगा क्यों नहीं मैंने बोले निडर सच्चे बोल

 

चालें चलते

भेड़ें अब दिखती नहीं

भेड़-चाल रह गई है।

किसके पीछे

किसके आगे

कौन चल रहा

देखने की बात

रह गई है।

भेड़ों के अब रंग बदल गये

ऊन उतर गई

चाल बदल गई

पहचान कहां रह गई है।

किसके भीतर कौन सी चाल

कहां समझ रह गई है।

चालें चलते, बस चालें चलते

समझ-बूझ कहां रह गई है।

 

हर घड़ी सुख बाँटती है ज़िंदगी

शून्य से सौ तक निरंतर दौड़ती है ज़िंदगी !

और आगे क्या , यही बस खोजती है ज़िंदगी !

चाह में कुछ और मिलने की सभी क्यों जी रहे –

 देखिये तो हर घड़ी सुख बाँटती है ज़िंदगी !

संस्मरण /यात्रा संस्मरण

 

 

रविवार 3 जुलाई का दिन बहुत अच्छा बीता। एक नया अनुभव, फ़ेसबुक के वे मित्र जिनसे वर्षों से कविताओं एवं प्रतिक्रियाओं के माध्यम से मिलते थे, ऑनलाईन कवि सम्मेलन में मिलते थे एवं कभी फ़ोन पर भी बात होती थी, उनसे मिलना और एक सुन्दर, भव्य कवि सम्मेलन का हिस्सा बनना।

फ़ेसबुक का पर्पल पैन साहित्यिक मंच एवं मंच की संस्थापक/संचालक वसुधा कनुप्रिया जी का दूर से ही मिलने वाला नेह मुझे कल दिल्ली ले गया।

इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनने के लिए मैंने कल पंचकूला से दिल्ली तक की आने-जाने की टैक्सी की और लगभग दस घंटे की यात्रा की। प्रातः सात बजे जब घर से निकली तो मूसलाधार वर्षा, सड़कों पर बने तालाब, रुकता-चलता ट्रैफ़िक प्रतीक्षा कर रहा था। मेरी अधिक यात्रा तो सोते ही बीतती है। करनाल से पहले से मौसम ठीक होने लगा था। वसुधा जी से और घर में भी निरन्तर बात अथवा वाट्सएप संदेष चल रहे थे। उन्होंने मुझे लोकेशन, निकटवर्ती स्थल आदि की सूचना भी भेज दी। करनाल में अल्पाहार कर जब दिल्ली की सीमा के निकट पहुँचे तो मोबाईल ने कुछ पूछा, हाँ अथवा कैंसल। मैं ऐसे मामलों में अपना दिमाग़ कदापि नहीं लगाती, बेटे से पूछा, शायद मैं उसे कुछ ठीक बता नहीं पाई और रोमिंग बंद। वाट्सएप बन्द। मैं समझाने पर भी नहीं समझ पाई। इस बीच हम कार्यक्रम स्थल तक पहुँच चुके थे। फिर वसुधा जी का सहारा लिया। भाग्य रहा कि निकट ही एक छोटी सी दुकान मिल गई और उन्होंने रोमिंग चला दी। सांस में सांस आई।

वसुधा जी की चिन्ता मन को छू जाती है। उनका प्रातः भी फ़ोन आया कि मौसम देखकर निकलिएगा। वे इस बात की भी चिन्ता कर रही थीं कि मैं दोपहर में एक-दो बजे पहुँचूंगी तो भूख लगी होगी। वे मेरे लिए और मेरे टैक्सी चालक के लिए विशेष रूप ढोकला लेकर आईं। वसुधा जी एवं डॉण् इन्दिरा शर्माए मीनाक्षी भटनागर ए रजनी रामदेवए गीता भाटियाए वंदना मोदी गोयलए वीणा तँवरए शारदा मदराए रामकिशोर उपाध्यायए एवं एक-दो मित्र-परिचित और जिनके मैं नाम भूल रही हूँ, लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं। एक अपनत्व की धारा थी। अन्य कवि भी प्रथम परिचय में आत्मीय भाव से मिले। वसुधा जी की मम्मी से मिलना भी बहुत सुखद रहा।

मधुश्री जी की पुस्तक का विमोचन भी हुआ।

कवि सम्मेलन का अनुभव बहुत अच्छा रहा। एक नयापन, विविधात्मक रचनाएँ, एवं सहज वातावरण, सुव्यवस्थित कार्यक्रम एवं आयोजन मन आनन्दित कर गया।

आयोजन की अध्यक्षता मशहूर उस्ताद शायर श्री सीमाब सुल्तानपुरी ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में विधि भारती परिषद् की संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री संतोष खन्ना, विष्णु प्रभाकर संस्थान के संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार श्री अतुल प्रभाकर और विख्यात शायर श्री मलिकज़ादा जावेद की गरिमामयी उपस्थिति एवं उनका काव्य पाठ सुनना अत्यन्त सुखद अनुभव रहे।

दोपहर में दिल्ली में वर्षा के कारण कार्यक्रम कुछ विलम्ब से आरम्भ हो पाया और समाप्त होते-होते साढ़े सात बज गये। अब भूख तो लग ही रही थी। रात्रि किसी ढाबे में भोजन के लिए रुकना बनता ही नहीं था। इस कारण विलम्ब होते हुए भी मैं समोसे और चने खाने से अपने-आपको रोक नहीं पाई। रात्रि आठ बजकर दस मिनट में दिल्ली से निकले और रात्रि 12.15 पर पंचकूला पहुंची।

किन्तु इस बीच दो दुर्घटनाएँ देखीं। एक कार पीछे से तेज़ गति से आ रही थी, चालक ने देख लिया और उसे रास्ता देने का प्रयास किया । वह तेज़ी से निकली किन्तु अनियन्त्रित हो चुकी थी। हमारी टैक्सी से बाईं ओर चल रहे ट्रक के सामने घूम गई, ट्रक चालक ने भी गति धीमी कर उसे बचाने का प्रयास किया किन्तु कार तेज़ी से घूमती हुई बाईं ओर बैरीकेड मोड़ से टकराई और तीन-चार बार पलटकर बड़े धुएँ के   गुबार में खो गई। उसके बाद मेरी नींद उड़ गई। थोड़ी ही आगे जाने पर सड़क बीच में एक ट्रैक्टर ट्राली पलटी हुई थी। थकावट और टांगों में दर्द तो थी ही, मैंने जल्दी से पर्स से कांबीफ्लेम निकाली और खा ली, और फिर मैं सो गई।

इस बीच घर तो बात चल ही रही थी, वसुधा जी का भी दो बार कुशलता जानने के लिए फ़ोन आया। अपनी सारी व्यस्तताओं के बीच वे सबकी जानकारी ले रही थीं। ऐसे मित्र और ऐसा नेह कठिनाई से मिलता है, नेह बना रहे।

  

इशारों में ही बात हो गई

मेरे हाथ आज लगे

जिन्न और चिराग।

पूछा मैंने

क्या करोगे तुम मेरे

सारे काम-काज।

बोले, खोपड़ी तेरी

क्या घूम गई है

जो हमसे करते बात।

ज्ञात हो चुकी हमको

तुम्हारी सारी घात।

बहुत कर चुके रगड़ाई हमारी।

बहुत लगाये ढक्कन।

किन्तु अब हम

बुद्धिमान हो गये।

बोतल बड़ी-बड़ी हो गई,

लेन-देन की बात हो गई,

न रगड़ाई और न ढक्कन।

बस देता जा और लेता जा।

लाता जा और पाता जा।

भर दे बोतल, काम करा ले।

काम करा ले बोतल भर दे।

इशारों में ही बात हो गई

समझ आ गई तो ठीक

नहीं आई तो

जाकर अपना माथा पीट।

 

विश्वास का एहसास

र दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में

हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में

कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते

इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में

आजकल मेरी कृतियां

 आजकल

मेरी कृतियां मुझसे ही उलझने लगी हैं।

लौट-लौटकर सवाल पूछने लगी हैं।

दायरे तोड़कर बाहर निकलने लगी हैं।

हाथ से कलम फिसलने लगी है।

मैं बांधती हूं इक आस में,

वे चौखट लांघकर

बाहर का रास्ता देखने में लगी हैं।

आजकल मेरी ही कृतियां,

मुझे एक अधूरापन जताती हैं ।

कभी आकार का उलाहना मिलता है,

कभी रूप-रंग का,

कभी शब्दों का अभाव खलता है।

अक्सर भावों की

उथल-पुथल हो जाया करती है।

भाव और होते हैं,

आकार और ले लेती हैं,

अनचाही-अनजानी-अनपहचानी कृतियां

पटल पर मनमानी करने लगती हैं।

टूटती हैं, बिखरती हैं,

बनती हैं, मिटती हैं,

रंग बदरंग होने लगते हैं।

आजकल मेरी ही  कृतियां

मुझसे ही दूरियां करने में लगी हैं।

मुझे ही उलाहना देने में लगी हैं।

 

बहुत हो गई यहां सबकी जी हुज़ूरी

अब तो मन कठोर करना ही पड़ेगा

जैसे तुम हो वैसा बनना ही पड़ेगा

बहुत हो गई यहां सबकी जी हुज़ूरी

सब छोड़कर आगे बढ़ना ही पड़ेगा

अब वक्त चला गया

 

सहज-सहज करने का युग अब चला गया

हर काम अब आनन-फ़ानन में करना आ गया

आज बीज बोया कल ही फ़सल चाहिए हमें

कच्चा-पक्का यह सोचने का वक्त चला गया

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।

हाथ भी जलाती हूं, पैर भी जलाती हूं

दिल भी जलाती हूं, दिमाग भी जलाती हूं

पर तवा गर्म नहीं होता।

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।

मां ने कहा, बाप ने कहा,

पति ने कहा, सास ने कहा।

सेंकनी है तुझको ज़िन्दगी की रोटी।

न आग न लपट, न धुंआ न चटक

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी

मां ने कहा, बाप ने कहा,

पति ने कहा, समाज ने कहा।

सेंकनी है तुझको ज़िन्दगी की रोटी।

हाथ भी बंधे हैं, पैर भी बंधे हैं,

मुंह भी सिला है, कान भी कटे हैं।

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।

मां ने कहा, बाप ने कहा,

पति ने कहा, समाज ने कहा।

बोलना मना है, सुनना मना है,

देखना मना है, सोचना मना है,

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।

मां ने कहा, बाप ने कहा,

पति ने कहा, सास ने कहा।

भाव भी मिटाती हूं, आस भी लुटाती हूं

सपने भी बुझाती हूं, आब भी गंवाती हूं

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी

आना मना है, जाना मना है,

रोना मना है, हंसना मना है।

मां ने कहा, बाप ने कहा,

पति ने कहा, सास ने कहा।

सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।

हाथ भी जलाती हूं, पैर भी जलाती हूं

दिल भी जलाती हूं, दिमाग भी जलाती हूं

पर तवा गर्म नहीं होता।……………

दिल चीज़ क्या है

आज किसी ने पूछा

‘‘दिल चीज़ क्या है’’?

-

अब क्या-क्या बताएँ आपको

बड़़ी बुरी चीज़ है ये दिल।

-

हाय!!

कहीं सनम दिल दे बैठे

कहीं टूट गया दिल

किसी पर दिल आ गया,

किसी को देखकर

धड़कने रुक जाती हैं

तो कहीं तेज़ हो जाती हैं

कहीं लग जाता है किसी का दिल

टूट जाता है, फ़ट जाता है

बिखर-बिखर जाता है

तो कोई बेदिल हो जाता है सनम।

पागल, दीवाना है दिल

मचलता, बहकता है दिल

रिश्तों का बन्धन है

इंसानियत का मन्दिर है

ये दिल।

कहीं हो जाते हैं

दिल के हज़ार टुकड़े

और किसी -किसी का

दिल ही खो ही जाता है।

कभी हो जाती है

दिलों की अदला-बदली।

 फिर भी ज़िन्दा हैं जनाब!

ग़जब !

और कुछ भी हो

धड़कता बहुत है यह दिल।

इसलिए

अपनी धड़कनों का ध्यान रखना।

वैसे तो सुना है

मिनट-भर में

72 बार

धड़कता है यह दिल।

लेकिन

ज़रा-सी ऊँच-नीच होने पर

लाखों लेकर जाता है

यह दिल।

इसलिए

ज़रा सम्हलकर रहिए

इधर-उधर मत भटकने दीजिए

अपने दिल को।

 

फिर वही कहानी

कछुए से मिलना

अच्छा लगा मुझे।

धूप सेंकता

आराम से बैठा

कभी जल में

कभी थल में।

कभी पत्थर-सा दिखता

तो कभी सशरीर।

मैंने बात करनी चाही

किन्तु उसने मुँह फ़ेर लिया।

फिर अचानक पलटकर बोला

जानता हूँ

वही सैंकड़ों वर्ष पुरानी

कहानी लेकर आये होंगे

खरगोश सो गया था

और कछुआ जीत गया था।

पता नहीं किसने गढ़ी

यह कथा।

मुझे तो कुछ स्मरण नहीं,

और न ही मेरे पूर्वजों ने

मुझे कोई ऐसी कथा सुनाई थी

न अपनी ऐसी जीत की

कोई गुण-गाथा गाई थी।

नया तो कुछ लिखते नहीं

उसी का पिष्ट-पेषण करने में

लगे रहते हो।

कब तक बच्चों को

खरगोश-कछुए,

शेर-बकरी और बन्दर मामा की

अर्थहीन कहानियाँ

सुनाकर बहलाते रहोगे,

कब तक

मेरी चाल का उपहास

बनाते रहोगे।

अरे,

साहस से

अपने बारे में लिखो,

अपने रिश्तों को उकेरो

अपनी अंधी दौड़ को लिखो,

आरोप-प्रत्यारोप,

बदलते समाज को लिखो।

यूँ तो अपनी

हज़ारों साल पुरानी संस्कृति का

लेखा-जोखा लिखते फ़िरते हो

किन्तु

जब काम की बात आती है

तो मुँह फ़ेरे घूमते हो।

 

यादों पर दो क्षणिकाएं

तुम्हारी यादें

किसी सुगन्धित पुष्प-सी।

पहले कली-सी कोमल,

फिर फूल बन

मन-उपवन को महकातीं,

भंवरे गुनगुनाते।

हर पत्ती नये भाव में बहती।

और अन्त

एक मुर्झाए फूल-सा

डाली से टूटा,

कब कदमों तले रौंदा गया

पता ही न लगा।

*-*

यादों की गठरी

उलझे धागे,

टूटे बटन,

फ़टी गुदड़िया।

भारी-भरकम

मानों कई ज़िन्दगियों

के उधार का लेखा-जोखा।