पलाश के फूल और तुम
बहुत उंचे वृक्षों पर लगते हैं
पलाश के फूल
अक्सर पहुंच से दूर।
कहीं वन-कानन में।
लाल सुर्ख
आकर्षित करते हैं
मादक भाव से।
कैसी सुगंध, कैसे रंग।
खिलते हैं तो
सारा जहाँ खिल-खिल जाता है
मन मग्न हो जाता है
तुम्हारे रूप-सौन्दर्य में
कहीं खो-खो जाता है।
और तुम !
जैसे पलाश हो मेरे जीवन में।
कभी समझ ही नहीं पाई
तुम्हारी नज़दीकियाँ और दूरियाँ।
कभी अपने-से लगते हो
कभी सपने-से लगते हो
कभी खिले-खिले
कभी बुझे-बुझे
मौसम के साथ बदलते हो।
खोजने निकलती हूँ तुम्हें
किसी वन-कानन में
सुदूर,
लौट आती हूँ उदास।
प्रतीक्षा करती हूँ
मौसम के बदलने का
कभी तो खिलोगे
बस मेरे लिए।