शब्दों की झोली खाली पाती हूं

जब भावों का ज्वार उमड़ता है, तब सोच-समझ उड़ जाती है

लिखने बैठें तो अपने ही मन की बात कहां समझ में आती है

कलम को क्यों दोष दूं, क्यों स्याही फैली, सूखी या मिट गई

भावों को किन शब्दों में ढालूं, शब्दों की झोली खाली पाती हूं

क्रोध कोई विकार नहीं

अनैतिकता, अन्याय, अनाचार पर क्या क्रोध नहीं आता, जो बोलते नहीं

केवल विनम्रता, दया, विलाप से यह दुनिया चलती नहीं, क्यों सोचते नहीं

नवरसों में क्रोध कोई विकार नहीं मन की सहज सरल अभिव्यक्ति है

एक सुखद परिवर्तन के लिए खुलकर बोलिए, अपने आप को रोकिए नहीं

मुझको मेरी नज़रों से परखो

मन विचलित होता है।

मन आतंकित होता है।

भूख मरती है।

दीवारें रिसती हैं।

न भावुक होता है।

न रोता है।

आग जलती भी है।

आग बुझती भी है।

कब तक दर्शाओगे

मुझको ऐसे।

कब तक बहाओगे

घड़ियाली आंसू।

बेचारी, अबला, निरीह

कहकर

कब तक मुझ पर

दया दिखलाओगे।

मां मां मां मां कहकर

कब तक

झूठे भाव जताओगे।

बदल गई है दुनिया सारी,

बदल गये हो तुम।

प्यार, नेह, त्याग का अर्थ

पिछड़ापन,

थोथी भावुकता नहीं होता।

यथार्थ, की पटरी पर

चाहे मिले कुछ कटुता,

या फिर कुछ अनचाहापन,

मुझको, मेरी नज़रों से देखो,

मुझको मेरी नज़रों से परखो,

तुम बदले हो

मुझको भी बदली नज़रों से देखो।

लाठी का अब ज़ोर चले

रंग फीके पड़ गये

सत्य अहिंसा

और आदर्शों के

पंछी देखो उड़ गये

कालिमा  गहरी छा गई।

आज़ादी तो मिली बापू

पर लगता है

फिर रात अंधेरी आ गई।

निकल पड़े थे तुम अकेले,

साथ लोग आये थे।

समय बहुत बदल गया

लहर तुम्हारी छूट गई।

चित्र तुम्हारे बिक रहे,

ले-देकर उनको बात बने

लाठी का अब ज़ोर चले

चित्रों पर हैं फूल चढ़े

राहें बहुत बदल गईं

सब अपनी-अपनी राह चले

अर्थ-अनर्थ यहां हुआ

समझ तुम्हारे आये न।

पंखों की उड़ान परख

पंखों की उड़ान परख

गगन परख, धरा निरख ।

 

तुझको उड़ना सिखलाती हूं,

आशाओं के गगन से

मिलवाना चाहती हूं,

साहस देती हूं,

राहें दिखलाती हूं।

जीवन में रोशनी

रंगीनियां  दिखलाती हूं।

 

पर याद रहे,

किसी दिन

अनायास ही

एक उछाल देकर

हट जाउंगी

तेरी राहों से।

फिर अपनी राहें

आप तलाशना,

जीवन भर की उड़ान के लिए।

कशमकश में बीतता है जीवन

सुख-दुख तो जीवन की बाती है

कभी जलती, कभी बुझती जाती है

यूँ ही कशमकश में बीतता है जीवन

मन की भटकन कहाँ सम्हल पाती है।

 

ऐसा नहीं होता मेरे मालिक

 

कर्म न करना,

परिश्रम न करना,

धर्म न निभाना

बस राम-नाम जपना।

.

आंखें बन्द कर लेने से

बिल्ली नहीं भाग जाती।

राम-नाम जपने से

समस्या हल नहीं हो जाती।

.

कुछ चरित्र हमें राह दिखाते हैं।

सन्मार्ग पर चलाते हैं।

किन्तु उनका नाम लेकर

हाथ पर हाथ धरे

बैठने को नहीं कहते हैं।

.

बुद्धि दी, समझ दी,

दी हमें निर्माण-विध्वंस की शक्ति।

दुरुपयोग-सदुपयोग हमारे हाथ में था।

.

भूलें करें हम,

उलट-पुलट करें हम,

और जब हाथ से बाहर की बात हो,

तो हे राम ! हे राम!

.

ऐसा नहीं होता मेरे मालिक।

मन में बजती थी रूनझुन पायल

मन ही मन में थे उनके कायल

मन में बजती थी रूनझुन पायल

मिलने की बात पर शर्मा जाते थे

सपनों में ही कर गये हमको घायल

 

अनूठी है यह दुनिया

 अनूठी है यह दुनिया, अनोखे यहां के लोग।

पहचान नहीं हो पाई कौन हैं  अपने लोग।

कष्टों में दिखते नहीं, वैसे संसार भरा-पूरा,

कहने को अनुपम, अप्रतिम, सर्वोत्तम हैं ये लोग।

आनन्द उठाने चल रही ज़िन्दगी

 

रंगों के बीच कदम उठाकर चल रही  है  ज़िन्दगी।

चांद की मद्धम रोशनी में पल रही है ज़िन्दगी।

धरा और आकाश में भावों का ज्वार उठ रहा,

एकाकीपन का आनन्द उठाने चल रही है ज़िन्दगी।

  

शब्दों की भाषा समझी न

शब्दों की भाषा समझी न

नयनों की भाषा क्या समझोगे

 

रूदन समझते हो आंसू को

मुस्कानों की भाषा क्या समझोगे

 

मौन की भाषा समझी न

मनुहार की भाषा क्या समझोगे

 

गुलदानों में रखते हो फूलों को

प्यार की भाषा क्या समझोगे

कुछ पल बस अपने लिये

उदित होते सूर्य की रश्मियां

मन को आह्लादित करती हैं।

विविध रंग

मन को आह्लादमयी सांत्वना

प्रदान करते हैं।

शांत चित्त, एकान्त चिन्तन

सांसारिक विषमताओं से

मुक्त करता है।

सांसारिकता से जूझते-जूझते

जब मन उचाट होता है,

तब पल भर का ध्यान

मन-मस्तिष्क को

संतुलित करता है।

आधुनिकता की तीव्र गति

प्राय: निढाल कर जाती है।

किन्तु एक दीर्घ उच्छवास

सारी थकान लूट ले जाता है।

जब मन एकाग्र होता है

तब अधिकांश चिन्ताएं

कहीं गह्वर में चली जाती हैं

और स्वस्थ मन-मस्तिष्क

सारे हल ढूंढ लाता है।

 

इन व्यस्तताओं में

कुछ पल तो निकाल

बस अपने लिये।

 

 

 

हमारा छोटा-सा प्रयास

ये न समझना

कि पीठ दिखाकर जा रहे हैं हम

तुमसे डरकर भाग रहे हैं हम

चेहरे छुपाकर जा रहे हैं हम।

क्या करोगे चेहरे देखकर,

बस हमारा भाव देखो

हमारा छोटा-सा प्रयास देखो

साथ-साथ बढ़ते कदमों का

अंदाज़ देखो।

 

तुम कुछ भी अर्थ निकालते रहो

कितने भी अवरोध बनाते रहो

ठान लिया है

जीवन-पथ पर यूँ ही

आगे बढ़ना है

दुःख-सुख में

साथ निभाना है।

बस

एक प्रतीक-मात्र है

तुम्हें समझाने का।

 

मैं और मेरी बिल्लो रानी

छुप्पा छुप्पी खेल रहे थे

कहां गये सब साथी

हम यहां बैठे रह गये

किसने मारी भांजी

शाम ढली सब घर भागे

तू मत डर बिल्लो रानी

मेरे पीछे आजा

मैं हूं आगे आगे

दूध मलाई रोटी दूंगी

मां मंदिर तो जा ले।

 

कोरोनामय वातावरण में मानसिकता

 

एक बात समझ नहीं पा रही हूं। जब से कोरोना या कोविड -19 आया है, पहले की तरह साधारण बुखार, वायरल, गला खराब, खांसी-जुकाम होना बन्द हो गया है क्या? मौसम बदलने पर, बारिश में भीगने पर, सर्दी लग जाने पर, ज़्यादा धूप में घूमने या लू लग जाने पर, ए सी या कूलर की सीधी हवा लग जाने  से उक्त समस्याएं हो जाती थीं। अब क्या ये सब बन्द हो गई हैं, सीधा कोरोना ही होता है क्या? आजकल  चिकित्सकों की बात से तो ऐसा ही लगता है। घर में किसी को इनमें से कोई समस्या होने पर किसी चिकित्सक को फोन कीजिए कि एक-दो दिन से बुखार है अथवा उक्त सारी समस्याओं में से कोई समस्या है। सीधा दो टूक उत्तर मिलता है कोरोना टैस्ट करवा लीजिए।

नहीं डाक्टर ऐसी बात नहीं है।

डाक्टर कुछ भी सुनने को तैयार नहीं।

नहीं पहले आप कोरोना टैस्ट करवा लीजिए, फिर देखेंगे।

लेकिन डाक्टर, उसमें तो दो दिन लग जायेंगे, बुखार तो तेज़ है।

तो ठीक है ये दो गोली नोट कर लीजिए, 100 बुखार होने तक पहली गोली दे देना दिन में एक बार। 101 से ज़्यादा होने पर पी सी एम दे देना।

मिलते-जुलते उत्तर ही मिलते हैं।

अब मान लीजिए 1 तारीख को बुखार हुआ। हर कोई पहले तो घर में ही रखी पी सी एम या क्रोसीन ले लेता है। दूसरे दिन बुखार न उतरने पर डाक्टर को फोन किया। डाक्टर का उत्तर आपने पढ़ लिया। तीसरे दिन टैस्ट करवाया। पांचवें दिन रिपोर्ट मिली। नैगेटिव।

डाक्टर ने नैगेटिव रिपोर्ट की बात सुनकर कहा, चलो ठीक है, आप बुखार की ये दवाई ले लीजिए।

किन्तु वे पांच दिन कितने भारी थे, उन पांच दिन में बुखार बिगड़कर कोई भी रूप ले लेता है, कोरोना  का नहीं।  क्या उन पांच दिन के लिए साधारण बुखार की या वायरल की दवाई नहीं दी जा सकती थी, मैं तो डाक्टर नहीं हूं। कोई बतायेगा क्या?

हम हार नहीं माना करते

तूफ़ानों से टकराते हैं

पर हम हार नहीं माना करते।

प्रकृति अक्सर अपना

विकराल रूप दिखलाती है

पर हम कहाँ सम्हलकर चलते।

इंसान और प्रकृति के युद्ध

कभी रुके नहीं

हार मान कर

हम पीछे नहीं हटते।

प्रकृति बहुत सीख देती है

पर हम परिवर्तन को

छोड़ नहीं सकते,

जीवन जीना है तो

बदलाव से

हम पीछे नहीं हट सकते।

सुनामी आये, यास आये

या आये ताउते

नये-नये नामों के तूफ़ानों से

अब हम नहीं डरते।

प्रकृति

जितना ही

रौद्र रूप धारण करती है

मानवता उससे लड़ने को

उतने ही

नित नये साधन जुटाती है।

 

तब प्रकृति भी मुस्काती है।

 

स्वर्गिक सौन्दर्य रूप

रूईं के फ़ाहे गिरते थे  हम हाथों से सहलाते थे।

वो हाड़ कंपाती सर्दी में बर्फ़ की कुल्फ़ी खाते थे।

रंग-बिरंगी दुनिया श्वेत चादर में छिप जाती थी,

स्वर्गिक सौन्दर्य-रूप, मन आनन्दित कर जाते थे।

आशा अब नहीं रहती​​​​​​​

औरों की क्या बात करें, अब तो अपनी खोज-खबर नहीं रहती,

इतनी उम्र बीत गई, क्या कर गई, क्या करना है सोचती रहती,

किसने साथ दिया था जीवन में, कौन छोड़ गया था मझधार में

रिश्ते बिगड़े,आघात हुए, पर लौटेंगे शायद, आशा अब नहीं रहती

ढोल बजा

चुनावों का अब बिगुल बजा

किसका-किसका ढोल बजा

किसको चुन लें, किसको छोड़ें

हर बार यही कहानी है

कभी ज़्यादा कभी कम पानी है

दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है

आंखों पर पट्टी बंधी है

बस बातें करके सो जायेंगे

और सुबह फिर वही राग गायेंगे।

 

 

मानसून की आहट
मानसून की आहट डराने लगी है

गलियों में तालाब दिखाने लगी है

मेंढक टर्राते हैं रात भर नींद कहाँ

मच्छरों की भिन-भिन सताने लगी है।

भीड़ पर भीड़-तंत्र
एक लाठी के सहारे

चलते

छोटे कद के

एक आम आदमी ने

कभी बांध ली थी

सारी दुनिया

अपने पीछे

बिना पुकार के भी

उसके साथ

चले थे

लाखों -लाखों लोग

सम्मिलित थे

उसकी तपस्या में

निःस्वार्थ, निःशंक।

वह हमें दे गया

एक स्वर्णिम इतिहास।

 

आज वह न रहा

किन्तु

उसकी मूर्तियाँ

हैं  हमारे पास

लाखों-लाखों।

कुछ लोग भी हैं

उन मूर्तियों के साथ

किन्तु उसके

विचारों की भीड़

उससे छिटक कर

आज की भीड़ में

कहीं खो गई है।

दीवारों पर

अलंकृत पोस्टरों में

लटक रही है

पुस्तकों के भीतर कहीं

दब गई है।

आज

उस भीड़ पर

भीड़-तंत्र हावी हो गया है।

.

अरे हाँ !

आज उस मूर्ति पर

माल्यार्पण अवश्य करना।

 

बंजारों पर चित्राधारित रचना

किसी चित्रकार की

तूलिका से बिखरे

यह शोख रंग

चित्रित कर पाते हैं

बस, एक ठहरी-सी हंसी,

थोड़ी दिखती-सी खुशी

कुछ आराम

कुछ श्रृंगार, सौन्‍दर्य का आकर्षण

अधखिली रोशनी में

दमकता जीवन।

किन्‍तु, कहां देख पाती है

इससे आगे

बन्‍द आंखों में गहराती चिन्‍ताएं

भविष्‍य का धुंधलापन

अधखिली रोशनी में जीवन तलाशता

संघर्ष की रोटी

राहों में बिखरा जीव

हर दिन

किसी नये ठौर की तलाश में

यूं ही बीतता है जीवन ।

  

छोड़ी हमने मोह-माया

नहीं करने हमें

किसी के सपने साकार।

न देखें हमारी आयु छोटी

न समझे कोई हमारे भाव।

मां कहती

पढ़ ले, पढ़ ले।

काम  कर ले ।

पिता कहते

बढ़ ले बढ़ ले।

सब लगाये बैठे

बड़ी-बड़ी आस।

ले लिया हमने

इस दुनिया से सन्यास।

छोड़ी हमने मोह-माया

हो गई हमारी कृश-काया।

हिमालय पर हम जायेंगे।

वहीं पर धूनी रमायेंगे।

आश्रम वहीं बनायेंगे।

आसन वहीं जमायेंगे।

चेले-चपाटे बनायेंगे।

सेवा खूब करायेंगे।

खीर-पूरी खाएंगें।

लौटकर घर न आयेंगे।

नाम हमारा अमर होगा,

धाम हमारा अमर होगा,

ज्ञान हमारा अमर होगा।