हाईकु: धारा
धारा निर्बाध
भावों में हलचल
आंखों में पानी
-
अविरल है
धारा की तरलता
भाव क्यों रूखे
-
धारा निश्छल
चंदा की परछाईं
मन बहके
अच्छा लगता है भूलना
ज़िन्दगी
कोई छपी हुई
चित्र-कथा तो नहीं
कि जब चाहा
स्मृतियों के पृष्ठ
उलट-पुलट लिए
और पढ़ते रहे
अगला-पिछला।
समस्या यह
कि जो भूलना चाहते हैं
वह तो
स्मृति-पटल पर
पत्थरों पर कुरेदी गई
लिपि-सा रह जाता है
और जो याद रहना चाहिए
वह रेत पर फैले शब्दों-सा
बिखर-बिखर जाता है।
लेकिन फिर भी
अच्छा लगता है भूलना
ज़िन्दगी मे बहुत कुछ,
चाहे सारी दुनिया कहे
बुढ़ा गये हैं ये
इन्हें
अब कुछ याद नहीं रहता।
खुशियाॅं समेट लें ज़रा
झरझर झरता पानी, चल भीग लें ज़रा
फूलों की मदमाती डालियाॅं देख लें ज़रा
गगन से धरा तक हवाओं को परख लें ज़रा
रंगीन है ये दुनिया, खुशियाॅं समेट लें ज़रा
चिड़िया नारी
चिड़िया नारी तुम मुझको उड़ना सिखलाना
फिर मुझसे लेकर रोटी-दाना-पानी खाना
दोनों मिलकर खायेंगे, खूब मौज उड़ायेंगे
फिर मैं अपने घर, तुम अपने घर जाना
खोजता है मन
रोशनियों के पीछे भागता है मन
छोटी चाहतों को खोजता है मन
अंधेरे की आहटों से डरता है मन
जुगनुओं सी चमक ढूंढता है मन
छोटे-छोटे मतभेदों पर
गाल सुजाये बैठे हैं, मुंह फुलाए बैठै हैं
छोटी-छोटी बातों पर होंठ दबाए बैठे हैं
छोटे-छोटे मतभेदों पर ऐसे कोई करता है
फूली जली रोटी-से आंख चढ़ाए बैठे हैं
भूल हुई कहाॅं थी
रुखसत क्या हुए ज़िन्दगी से, सब भूल-भुलैया हो गई
सीधे चलते-चलते ज़िन्दगी टेढ़े-मेढ़े मोड़ों में खो गई
समझ पाये नहीं, समझा सकते नहीं, भूल हुई कहाॅं थी
बदल गईं हाथों की लकीरें, किस्मत मानों सो गई।
नयानाभिराम रूप रघुराई
राम-लखन संग-संग चले, अयोध्या नगरी मुस्काई
दीपों की आभा से आलोकित सब जन-मन हरषाई
हर मन में उल्लास है, मधुर गान से नभ गूंज रहा
गगन-धरा सब निरख रहे, नयानाभिराम रूप रघुराई
प्रदर्शन का दर्शनn
पर्व अब प्रदर्शन बनकर रह गये हैं
प्रदर्शन का दर्शन बनकर रह गये हैं
उपहारों का लेन-देन प्रथा बन गई
बाज़ारीकरण में रिश्ते कहाॅं रह गये हैं
फ़ागुन की आहट
फ़ागुन की आहट
मानों जीवन में
मधुर सी गुनगुनाहट
हवाओं में फूलों की महक
नव-पल्लव अंकुरित
वृक्षों की शाखाओं से
पंछियों की
मधुर कलरव
पत्तों की मरमर
तृण मानों
ओस की बूंदों से
कर रहे शरारत।
भीगा-भीगा-सा मौसम
कभी धूप कभी छांव
कहता है
ले ले आनन्द
पता नहीं
फिर कब मिलेगा यह जीवन।
खुशियों का आभास देती
हरे-हरे पल्लव कब पीत हुए, कब झर गये
नव-पल्लव अंकुरित हुए, चकित मुझे कर गये
खुशियों का आभास देती खिलीं पुष्पांजलियाॅं
फूलों की पंखुरियों ने रंग लिखे, मन भर गये
शक्ति-स्वरूपा
दिव्य आलोकित रूप तुम्हारा मन हर्षित करता है
हाथों में त्रिशूल देखकर मन में साहस भरता है
भोली-सी मुस्कान तुम्हारी आशीष की भांति लगती है
शक्ति-स्वरूपा हो तुम, अरि भी तुमसे डरता है।
सुहाना दिन
भोर की रंगीनीयाॅं मदमाती हैं
सूर्य रश्मियाॅं मन भरमाती हैं
सुहाना दिन आया जीवन में
भावों की कलियाॅं शरमाती हैं
कोई नहीं अपना
काफ़िलों में हम चले, लगा कोई सहारा मिला
राहों में कौन छूट गया, कौन अलग हो चला
देखते-देखते ही बिखराव की एक आंधी आई
अपना रहा न कोई पराया, विलग हो ही भला
नई शुरुआत
चल आज एक नई भोर से शुरुआत करें
चाय पीयें, कुछ आनन्द के पल फिर जियें
कल की मधुर स्मृतियाॅं आनन्द देती हैं
प्रकाश की किरणों से जीवन में नवरस भरें
चित्राधारित कथा
आज सबके पास घड़े और बाल्टियां तो थीं किन्तु खाली थीं। धूप और सूखी धरती पर चलते-चलते उनके पांव थक गये थे। गांव में एक ही कुंआ था आम लोगों के लिए और गर्मी आते ही पानी की कमी होने लगती थी और दूसरे कुंए और नहर के पानी पर उनका अधिकार नहीं था। आज कुंए से पानी खिंचा ही नहीं। सभी महिलाएं उदास थीं। कैसे खाना बनायेंगे, बच्चों को क्या खिलाएंगे।
उन्होंने मिलकर तय किया कि वे सरपंच से जाकर मिलेंगी और जब तक उन्हें नहर के पानी और दूसरे कुंए से पानी नहीं लेने दिया जाता वे घर ही नही जायेंगी।
गांव की सभी महिलाएं बच्चों के साथ जाकर सरपंच के घर के सामने बैठ गईं। पंचों ने और गांव के लोगों ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया किन्तु वे न मानीं। वे सब बोलीं कि जब उनके पास कुछ खाने-पीने के लिए ही नहीं है तो वे घर जाकर क्या करेंगीं। जब तक उनको नहर से या दूसरे कुंएं से पानी नहीं लेने दिया जायेगा, वे घर नहीं जायेंगी।
यह समाचार धीरे-धीरे सारे गांव में फैल गया और अन्य घरों की महिलाएं और बच्चे भी वहां आने लगे। भीड़ बढ़ती देख सरपंच ने पुलिस बुलाने का निर्णय लिया। किन्तु इससे पहले कि वे पुलिस बुलाते, सरपंच की पत्नी और बच्चे उनके सामने आ खड़े हुए। पत्नी ने कहा कि आप सोचिए कि अगर हमें एक दिन भी पानी न मिले तो हम क्या करेंगे। और ये लोग तो हर रोज़ कितनी दूर से पानी लाते हैं। मैंने इन महिलाओं और बच्चों को दिन में इतनी धूप और कड़ी गर्मी में दो-दो, तीन-तीन चक्कर लगाते देखा है। कैसे कर लेती हैं ये इतनी मेहनत। फिर घर जाकर घर के सारे काम करती हैं। आप कुछ तो इन पर दया कीजिए और अपना कुंआ इनके लिए खोल दीजिए।
सरपंच की मानों आंखें खुल गईं , इस तरह तो उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था। उन्होंने तत्काल अपने कुंए से सारे गांव को पानी भरने की अनुमति दे दी और साथ ही पंचों के साथ मिलकर निर्णय लिया कि वे अपने गांव की पानी की समस्या को सदा के लिए हल करने के लिए नीतियां बनायेंगें।
नये साल में
नये साल में कुछ नई बात करें
पिछला भूल, नये पथ पर बढ़ें
जीवन खुशियों का सागर है
मोती चुन लें, कंकड़ छोड़ चलें
ज़िन्दगी की लम्बी राहों में
साथ कोई
उम्र-भर देता नहीं है
जानते हैं हम, फिर भी
मन को मनाते नहीं हैं।
मुड़-मुड़कर देखते रहते हैं
जाने वालों को हम
भुला पाते नहीं हैं।
ज़िन्दगी की लम्बी राहों में
न जाने कितने छूट गये
कितने हमें भूल गये
याद अब कर पाते नहीं हैं।
फिर भी इक टीस-सी अक्सर
दिल में उभरती रहती है
जिसे हम नकार पाते नहीं हैं।
जीवन के राज़
जिन्हें हम जीवन में
राज़ बनाये रखना चाहते हैं
वे ही सबसे ज़्यादा
चर्चित विषय रहते हैं।
मेरा सुख-दुख
मेरी पसन्द-नापसन्द
मेरी चिन्ताएॅं, मेरी अर्हताएॅं,
मेरी विवशताएॅं,
कहाॅं रह पाती हैं मेरी।
न जाने कैसे
मेरे अन्तर्मन से निकलकर
सारे जहाॅं में
चर्चा का विषय बन जाते हैं।
डरती नहीं
पर विश्वस्त भी नहीं रह पाती,
इस कारण
अपनी बात
अपने-आप से ही
नहीं कर पाती।
आसमान में छेद
पता नहीं कौन शायर कह गया
आसमां में छेद क्यों नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछाला होता यारो ।
पता नहीं किस युग का था वह शायर।
उछालकर देखा था क्या उसने कभी पत्थर।
बड़ा काम तो हम ज़िन्दगी में
कभी कर नहीं पाये
सोचा, चलो आज कुछ नया करते हैं
उस शायर की इच्छा पूरी करते हैं।
एक क्यों,
तबीयत से कई पत्थर उछालते हैं,
आसमान में एक नहीं
अनेक छेद करते हैं।
पर शायद
युग बदल गया था
या हमें
पत्थर उछालने का
तरीका पता नहीं था
हमने तो अभी बस
एक ही पत्थर उठाया था
उछालने की नौबत भी नहीं आई थी
सैंकड़ों पत्थर लौट आये हमारे पास।
लगता है
उस शायर का शेर
सबने पसन्द कर लिया है
और हमारी तरह
सभी पत्थर उछालने में लगे हैं
और हम तो
अपना ही सिर फोड़ने में लगे हैं।
चेहरे बदल लें
चलो आज चेहरे बदल लें।
बहुत दिन बीत गये।
लोग अब
हमारी
असलियत
पहचानने लगे हैं
हमें
बहुत अच्छे से
जानने लगे हैं।
खरपतवार
वही फ़सल काटते हैं
जो हम बोते हैं,
ऐसा नहीं होता यारो।
जीवन में
खरपतवार का भी
कोई महत्व है
या नहीं।
अपनी-अपनी कयामत
किसी दिन।
आसमान टूट पड़े
धरती हिल जाये
सागर उफ़न पड़े
दुनिया डूबने लगे
शायद
इसे ही कहते हैं न कयामत।
नहीं रे !!
सबकी ज़िन्दगी की
अपनी-अपनी कयामत भी होती है।
न आसमान गिरता है
न धरा फ़टती है
न सागर सूखता है
फिर भी
आ जाती है कयामत।
कोई एक बात,
कोई एक शब्द, एक चुटकी,
एक कसक,
कोई नाराज़गी,
कुछ दूरियाॅं
कोई मन-मुटाव,
आॅंख-भर का इशारा
और हो जाती है कयामत।
नहले पे दहला
तू
नहले पे दहला
लगाना सीख ले
नहीं तो
गुलाम
बनकर
रह जायेगा
ज़िन्दगी जीने के तरीके
ज़िन्दगी जीने के
तरीके
यूॅं तो मुझे
ज़िन्दगी जीने के
तरीके बहुत आते हैं
किन्तु क्या करुॅं मैं
उदाहरण और उलाहने
बहुत सताते हैं।
दिल या दिमाग
मित्र कहते हैं,
बात पसन्द न आये
तो एक कान से सुनो,
दूसरे से निकाल दो।
किन्तु मैं क्या करूॅं।
मेरे दोनों कानों के बीच
रास्ता नहीं है।
या तो
दिल को जाकर लगती है
या दिमाग भन्नाती है।
झूठ-सच Lia
झूठ-सच के अर्थ बदल गये
फूलों से ज़्यादा कांटे बसर गये
जीवन पथ
जीवन पथ की क्या बात करें
कुछ कंकड़, कुछ पत्थर,
कुछ फूल बिछे, कुछ कांटे उलझे।
पग-पग पर थी बाधाएॅं
पग-पग पर द्वार उन्मुक्त मिले।
वादों की, बातों की धूम रही,
कुछ निभ गये, कुछ छूट गये।
अपनों की अपनों से बात हुई
कभी मन मिला, कभी बिखर गये।
जीवन तो चलता ही रहता है
कभी रुकते-रुकते, कभी भाग लिये।
कब कौन मिला, कितने छूट गये
याद नहीं अब, कितना तो भूल गये।
कितने कागज़ रंगीन हुए
कितनों पर स्याही बिखर गई,
कभी कुछ भी न लिख पाने की पीर हुई।
उलझी, बिखरी, खट्टी-मीठी
जैसी भी हैं
सब अपनी हैं,
टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर गईं।
कहते हैं
हाथों की रेखाओं में
भाग्य लिखा रहता है
मुट्ठियां खोलीं
तो उलझी-उलझी सी महसूस हुईं।
कितने दिन बाकी हैं,
कितने बीत गये
सोच-सोचकर नहीं सोचती,
पर मन पर हावी हो गये।
निडर होकर उड़े हैं
बादलों के रंगों से मन में उमंग लेकर चले हैं
चंदा को पकड़कर उड़ान भरकर हम चले हैं
तम-प्रकाश में उंचाईयों से नहीं डरते हम
झिलमिलाती रोशनियों में निडर होकर उड़े हैं
भ्रष्टाचारी सांसद विधायक के चुने जाने पर पार्टी जिम्मेदार हैं या आम आदमी
चुनाव में जो भी लोग खड़े होते हैं, उनका चयन पार्टी ही करती है न कि आम आदमी। सबसे बड़ी बात यह कि जिस व्यक्ति को पार्टी प्रत्याशी के रूप में चुनती है, उसके बारे में कभी भी कोई जानकारी नहीं दी जाती, और आम आदमी भी केवल पार्टी का नाम देखकर ही वोट दे देता है न कि व्यक्ति-विशेष की जानकारी लेना चाहता है कि वह कैसा है। किन्तु, इसमें कोई संदेह नहीं कि पार्टी तो अपने प्रत्येक उम्मीदवार के बारे में जानती ही है। पार्टी एवं आम आदमी के अतिरिक्त चुनाव आयोग की भी भूमिका रहती है, जहाॅं दूध का दूध एवं पानी का पानी सम्भव है किन्तु होता नहीं।
वास्तव में पार्टियों के अपने स्वार्थ रहते हैं और आम आदमी दिशाहीन एवं असंलिप्त। अतः पार्टी का दायित्व प्रथम है। और आम आदमी का दोष यह कि वह अपने ही अधिकारों के प्रति सचेत नहीं है कि जब उसके पास वोट मांगने के लिए प्रत्याशी आता है तो वे उससे उसकी आधिकारिक पूरा जानकारी लें। आम आदमी ऐसी किसी भी समस्या से बचकर निकलना चाहता है। उसे किसी झंझट में नहीं पड़ना। किन्तु सर्वाधिक दायित्व चुनाव आयोग का है जिसके पास प्रत्येक प्रत्याशी का पूरा विवरण जाता है और वहां से उसे चुनाव में खड़े होने के अधिकार मिलते हैं। वास्तविकता यह कि 140 करोड़ जनसंख्या वाले देश में जहाॅं आज भी धनबल पर वोट लिये जाते हैं, मतदान केन्द्र लूटे जाते हैं, अशिक्षा चरम पर है, वहाॅं आम आदमी के हाथ में कुछ नहीं है। अतः मेरी समझ में दायित्व पार्टियों का एवं चुनाव आयोग का है कि भ्रष्टाचारी व्यक्तियों को टिकट ही न मिले।