कोहरे में छिपी ज़िन्दगी
कोहरे में छिपी ज़िन्दगी भी तो आनन्द देती है
भीतर क्या चल रहा, सब छुपाकर रख देती है
कभी सूरज झांकता है, कभी बूँदे बहकती हैं
मन के भावों को परखने का समय देती हैं।
रोशनियाँ अंधेरों में भटक रही हैं
देखना ज़रा, आज रोशनियाँ अंधेरों में भटक रही हैं
पग-पग पर कंकड़-पत्थर हैं, पैरों में अटक रही हैं
न अंधेरे मिले सही से, न रोशनियों ने राह दिखाई
जीवन की गति इनकी ही पहचान में सटक रही है
मन में अब धीरज कहाँ रह गया
मन में अब धीरज कहाँ रह गया
पल-पल उलझनों में बह गया
मन का मौसम भी तो बदल रहा
पता नहीं कौन क्या-क्या कह गया
स्वार्थ का मुखौटा
किसी को कौन कब यहाँ पहचानता है
स्वार्थ का मुखौटा हर कोई पहनता है
मुँह फ़ेर कर निकल जाते हैं देखते ही
बस अगले-पिछले बदले निकालता है।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का रचनाकार
यह विधाता,
जगत-नियन्ता
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का रचनाकार।
इसकी कुछ बातें मुझे
समझ ही नहीं आतीं।
इतने बड़े ब्रह्माण्ड का निर्माण किया
करोड़ों जीव-जन्तु बनाये
कितना श्रम किया होगा
कितना तो समय लगा होगा
शायद अरबों-खरबों वर्ष।
फिर उनकी देख-भाल
नवीनीकरण, और पता नहीं क्या-क्या।
किन्तु इतनी बड़़ी भूल
कैसे हो सकती है।
विज्ञान कहता है
जब बच्चा जन्म लेता है
तो उसके शरीर में
300 हड्डियाँ होती हैं
जो कालान्तर में 206 में
बदल जाती हैं।
और 300 हड्डियों को
लगाते-लगाते
जिह्वा में हड्डी लगाना ही भूल गये।
.
शायद, इसीलिए
अकेली जिह्वा ही
ज़रा-सा हिलकर
206 हड्डियों वाले
किसी भी ढांचे की
चूर-चूर, चकनाचूर
करने की क्षमता रखती है।
एकान्त काटता है
धरा दरक रही, वृक्ष पल्लवविहीन हो गये
एकान्त काटता है, साथी न कोई रह गये
आँखें शून्य में ताकती, नहीं कोई दूर तक
श्वेताभा में भी नैराश्य मानों सब पराये हो गये
दर्द का अब घूँट पिये
पुण्य करने गये थे, अपनों को साथ आस लिए
हाथ छूटे, साथ छूटे, कितने रहे, कितने जिये
नाम नहीं, पहचान नहीं, लाखों की भीड़ रही
अपनों को कहाँ खोजें, दर्द का अब घूँट पिये
जियें या मरें
किसी के हित में कुछ करें,
अपकार के लिए तैयार रहें
अच्छाईयाँ कोई नहीं देखता
आप चाहें जैसे जियें या मरें।
दयालुता न दिखलाना
दयालुता न दिखलाना
सहयोग का हाथ बढ़ाना
आँख न हो नीची कभी
हाथ से हाथ मिलाना
ऐसा नहीं होता
पता नहीं कौन कह गया
बूंद-बूंद से सागर भरता है।
सुनी-सुनाई पर
सभी कह देते हैं।
कभी देखा भी है सागर
उसकी गहराई
उसकी तलछट
उसके ज्वार-भाटे।
यहाँ तो बूंद-बूंद से
घट नहीं भरता
सागर क्या भरेगा।
कहने वालो
कभी आकर मिलो न
सागर क्या
मेरा घट ही भरकर दिखला दो न।
मंगल गान गा रहे
मंगल गान गा रहे, जीवन में खुशियाँ ला रहे हम
वन्दन सूर्य का कर रहे, जीवन में प्रकाश ला रहे हम
छोटे-छोटे उत्सव, छोटी-छोटी खुशियाँ आती रहें
हॅंस-बोलकर, मेल-मिलाप से जीवन में रंग ला रहे हम
कोहरे में दूरियाँ
कोहरे में दूरियाँ दिखती नहीं हैं, नज़दीकियाँ भी तो मिटती नहीं हैं
कब, कहाँ, कौन, कैसे टकरा जाये, दृष्टि भी स्पष्ट टिकती नहीं है
वेग पर नियन्त्रण, भावनाओं पर नज़र रहे, रुक-रुककर चलना ज़रा
यही अवसर मिलता है समझने का, अपनों की पहचान मिटती नहीं है
संस्मरण: धर्मशाला साहित्यिक आयोजन
26 नवम्बर। धर्मशाला। पर्वत की गूंज द्वारा प्रकाशित हिमतरु दशहरा-दीपावली विशेषांक के लोकार्पण का अवसर। इसमें मेरा भी एक आलेख है। रेडियो गुंजन सिद्धवाड़ी धर्मशाला। एक सुखद अनुभव।
पर्वत की गूंज के संस्थापक, संचालक राजेन्द्र पालमपुरी जी का एक संदेश मिला कि धर्मशाला में इस हेतु एक छोटा-सा आयोजन है । यदि मैं आना चाहूं। मेरा विचार था कि आयोजन छोटा या बड़ा नहीं होता, अच्छा होता है और अच्छे लोगों से, अच्छे साहित्यकारों से मिलने के लिए होता है।
इसलिए कार्यक्रम बना लिया। ठहरने की व्यवस्था के लिए पालमपुरी जी से ही अनुरोध किया। कैलाश मनहास जी ने Dadhwal Bnb homestay में रहने की व्यवस्था करवाई। बहुत ही अच्छी।
बहुत सुन्दर, सादगीपूर्ण एवं गरिमामयी आयोजन का हिस्सा बनकर मन को बहुत अच्छा लगा। एक अपनत्व भरा कार्यक्रम। कुछ पहाड़ी कविताएं भी सुनने को मिलीं। पहाड़ी कविताओं को सुनने का अपनी ही आनन्द है। अनेक बाल कवि हिमाचल के विभिन्न भागों से उपस्थित थे और उन्हें भी सम्मानित किया गया। शायद 1990 के बाद हिमाचल में किसी कार्यक्रम में हिस्सा लिया। शिमला मेरे भीतर बसता है और हिमाचल मुझे आकर्षित करता है। इसलिए इस अवसर को तो मैं जाने ही नहीं देना चाहती थी। इस सुन्दर आयोजन के लिए सभी मनीषियों का धन्यवाद एवं आभार।
छन्दमुक्त कविताएॅं
मैं किसी विवादास्पद विषय पर लिखने अथवा प्रतिक्रिया से बचकर चलती हूं। किन्तु कभी-कभी कुछ चुभ भी जाता है। फ़ेसबुक पर हम सब लिखने के लिए स्वतन्त्र हैं। किन्तु इतना भी न लिखें कि सीधे-सीधे अनर्गल आक्षेप हों। कुछ अति के महान लेखक यहां विराजमान हैं। सैंकड़ों मंचों के सदस्य हैं, सैंकड़ों सम्मान प्राप्त हैं। सुना है और उनकी बातों से लगता है कि वे महान छन्द विधाओं में लिखते हैं और उनसे बड़ा कोई नहीं। इस कारण वे सामूहिक रूप से किसी का भी, विशेषकर महिलाओं का अपमान कर सकते हैं। आपकी मित्र-सूची में भी होंगे, पढ़िए उनका लेख और अपने विचार दीजिए। मुझे लगता है इन महोदय को बड़े दिन से कोई सम्मान नहीं मिला अथवा किसी काव्य समारोह का निमन्त्रण तो भड़ास तो कहीं निकालनी ही थी। और ऐसे महान छन्दलेखक की भाषा! वाह!!! वे इतने महान हैं कि वे तय करेंगे कि कौन कवि है और कौन कवि नहीं।
वैसे वाह-वाही पाने और हज़ारों लाईक्स पाने का भी यह एक तरीका आजकल फ़ेसबुक पर चल रहा है कि आप जितना ही अनर्गल लिखेंगे उतने ही लाईक्स मिलेंगे।
वे लिखते हैं
“आज अगर यह मुक्त छंद वाली कविता या उल जुलूल बेसिर पैर के गद्य को कविता की श्रेणी से निकाल दिया जाय तो 90 प्रतिशत कवि इस सोशल मीडिया से गायब हो जायेंगे जिनमें 80 प्रतिशत महिला कवियत्री औऱ बाकी के पुरुष कवि कहलाने वाले लोग हैं ।”
छंद मुक्त लेखकों या अगड़म बगड़म गद्य को इधर इधर करके कविता नाम देने वाले स्त्री पुरुषों को तो मैं कवियों की श्रेणी में रखता ही नहीं ।
आप ऐसे समझिये कि जिसको कुछ नहीं आता, वह छंदमुक्त के नाम से लेखन कर कवि बन जाता है ।
जैसे जिसको कुछ नहीं आता या जिसमें कोई गुण नहीं, तो उससे कहा दिया जाता है कि चलो तुम laterine ही साफ कर दो ।“”
मैं मान लेती हूं कि छन्दमुक्त लिखने वाले कवि नहीं हैं तो सबसे पहले तो निराला, अज्ञेय, मुक्तिबोध, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, शिव मंगल सिंह, केदारनाथ सिंह, धूमिल, कुमार विमल, गिरिजाकुमार माथुर आदि अनेक कवियों को हिन्दी साहित्य से बाहर कर देना चाहिए।
महिलाओं के परिधान
हमारे समाज में महिलाओं के परिधान की अनेक तरह से बहुत चर्चा होती है। वय-अनुसार, पारिवारिक पोस्ट के अनुसार, अर्थात अविवाहित युवती, भाभी, ननद, बहन, माँ, दादी आदि के लिए। इसके अतिरिक्त भारत में रीति-परम्पराओं, राज्यानुसार प्रचलित, एवं धार्मिक आख्यानों में भी इतनी विविधता है कि उसके अनुसार भी महिलाओं के वस्त्रों पर दृष्टि रहती है।
और सबसे बड़ी बात यह कि हमारे आधुनिक समाज में महिलाओं के परिधानों के अनुसार ही उनका चरित्र-चित्रण किया जाता है। आधुनिक वस्त्र धारण करने वाली युवती के लिए मान लिया जाता है कि यह बहुत तेज़ होगी, घर-गृहस्थी के योग्य नहीं होगी, पति, सास-ससुर की सेवा करने वाली नहीं होगी। ( किन्तु जब महिलाओं की बात होती है तब सेवा-भाव वाली बात आती ही क्यों है, उसके अपने अस्तित्व की बात क्यों नहीं की जाती। परिवार के सदस्य की बात क्यों नहीं आती?, पुरुषों के सन्दर्भ में तो इस तरह की बात कभी नहीं आती। इस विषय पर चर्चा को विराम देती हूँ, यह भिन्न चर्चा का विषय है।)
किन्तु पुरुषों के परिधान, वस्त्रों पर कभी कोई बात नहीं करता।
क्योंकि महिलाएं खुलेआम टिप्पणी नहीं कर पातीं इस कारण कहती नहीं।
सबसे बुरा लगता है जब पुरुष केवल अन्तर्वस्त्रों में अथवा तौलिए में प्रातःकाल बरामदे में घूमते दिखते हैं। गर्मियों में तो जैसे उनका अधिकार होता है अर्द्धनग्न रहना। मुझे नहीं पता कि उनके घर की महिलाएं उन्हें टोकती हैं अथवा नहीं।
मैं शिमला से हूँ। वहां हमने सदैव ही यही देखा है कि पुरुष भी महिलाओं की भांति स्नानागार से पूरे वस्त्रों में ही तैयार होकर निकलते हैं। किन्तु जब मैं यहां आई तो मुझे बहुत शर्म आती थी कि घर के बच्चे क्या, युवा, अधेड़, बुजुर्ग सब आधे-अधूरे कपड़ों में घूमते हैं। हमें यह अश्लील लगता है। अभिनेत्रियों के वस्त्रों पर भी बहुत कुछ लिखा जाता है किन्तु जब बड़े.बड़े मंचों पर बड़े नामी कलाकार नग्न प्रदर्शन करते हैं तब वह भव्यता होती है। इन नग्नता की तुलना हम किसी कार्य या खेल में पहने जाने वस्त्रों से नहीं कर सकते।
पुरुष की वस्त्रहीनता उसका सौन्दर्य है और स्त्री के देह-प्रदर्शनीय वस्त्र अश्लीलता।
सबसे बड़ी बात जो मुझे अचम्भित भी करती है और हमारे समाज की मानसिकता को भी प्रदर्शित करती है वह यह कि हमारे प्रायः सभी प्राचीन पात्रों के चित्रों में उपरि वस्त्र धारण नहीं दिखाये जाते। फिर वह चित्रकारी हो अथवा अभिनय। किसने देखा है वह काल कि ये लोग उपरि वस्त्र पहनते थे अथवा नहीं। क्यों यह अश्लीलता नहीं दिखती और कभी भी क्यों इस पर आपत्ति नहीं होती। निश्चित रूप से उस युग को तो किसी ने नहीं देखा, यह हमारी ही मानसिकता का प्रतिफल है। किसने देखा है कि पौराणिक, अथवा अनदेखे काल के लोग कैसे वस़्त्र पहनते थे, क्या पहनते थे। यह उस कलाकार की अथवा भक्त की मानसिकता है जो अपने आराध्य की सुन्दर, सुघड़ देहयष्टि दिखाना चाहता है।
महिलाएं पुरुषों के पहनावे से आहत होती हैं। प्रकृति ने पुरुष को छूट दी है, यह हमारी सोच है। मुझे आश्चर्य तब होता है जब हम महिलाएं भी उसी बनी.बनाई लीक पर चलती हैं।
एक अन्य तथ्य यह कि जब भी भारतीय संस्कृति, परम्पराओं, रीति-रिवाज़ों के अनुसार पहनावे की बात उठती है तब केवल महिलाओं के सन्दर्भ में ही चर्चा होती है, पुरुषों के पहरावे पर कोई बात नहीं की जाती।
इतना और कहना चाहूंगी कि कमी पुरुषों की मानसिकता में नहीं महिलाओं की मानसिकता में है जो पुरुष नग्नता का विरोध नहीं करतीं।
महिलाओं का सम्मान
जब मैं महिलाओं के सम्मान में कोई आलेख अथवा रचना पढ़ती हूं तो मेरा मन गद्गद् हो उठता है। कितना बता नहीं सकती। हमारा समाज महिलाओं के संस्कारों, संस्कृति, उनकी सुरक्षा, पवित्रता और ऐसे ही कितने शब्द जो मुझे अभी स्मरण नहीं आ रहे, मेरा शब्दकोष संकुचित हो गया है, मेरे स्मृति-कक्ष में उभर आते हैं और मैं आनन्दित होने लगती हूं।
आप जानना चाहेंगे और न भी जानना चाहें तो भी मैं बताना चाहूंगी कि आज मेरा मन इतना आनन्दित क्यों है।
आज एक परम मित्र लेखक महोदय का ऐसा ही एक आलेख अथवा एक संक्षिप्त टिप्पणी पढ़ने के लिए मिली जो महिलाओं के बारे में बहुत विचारात्मक एवं उनके प्रति चिन्ता करते हुए लिखी गई थी। अब मैं तो मैं हूं, सीधी बात तो समझ ही नहीं आती।
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उनका कथन है
नदियों अथवा पवित्र कुंड़ या सरोवरों पर स्नान के समय अपने परिवार की महिलाओं को पूरे वस्त्र के साथ स्नान करने हेतु कहें। महिलाएं स्वयं इस बात का संज्ञान लें और कम वस्त्र नहींए पूरे वस्त्र के साथ स्नान करें। अब सरकार या सामाजिक संस्थाओं द्वारा वस्त्र बदलने के लिए लगभग हर जगह सुविधाएं दी गई हैं। उनका उपयोग करें।
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दुर्भाग्यवश ही कह सकती हूं, मैं कुछ समय पूर्व ही दो बार हरिद्वार गई। दोनों ही बार एक तो शनिवार अथवा रविवार था और साथ ही एक बार अमावस्या थी और दूसरी बार गंगा-दशहरा। अर्थात भीड़ ही भीड़, लाखों लोग। पहली बार हमने अपने गंतव्य से बहुत दूर गाड़ी पार्क कर दी जिस कारण हमें हर की पौड़ी पर पैदल ही बहुत चलना पड़ा। मुख्य स्थल जहां स्नान की व्यवस्था है, वहां हमारा जाना हुआ। हम लोग वहां लगभग एक घंटा अथवा उससे भी अधिक समय रहे। मैंने किसी भी महिला को निर्वस्त्र अथवा कम वस्त्रों में स्नान करते नहीं देखा। सभी महिलाएं पूरे वस्त्रों में गिन कर कुछ डुबकियां लगातीं थीं और बाहर आ जाती थीं, प्रायः साड़ी पहने महिलाएं केवल साड़ी फैलाकर, झाड़कर हवा ले रही थीं न कि वस्त्र उतार रही थीं अथवा खुले में बदल रही थीं। अथवा वे अपनी गाड़ी में आकर वस़्त्र परिवर्तन कर रही थीं। पूरी हर की पौड़ी तक जो न जाने कितने मीलों तक फैली है मुझे केवल दो स्थान दिखे महिलाओं के लिए कपड़े बदलने के लिए।
सम्भव है मेरे भीतर भारतीय संस्कृति, परम्पराओं की समझ का अभाव हो, किन्तु गंगा में स्नान विशेषकर, महिलाओं का , मुझे कभी भी समझ नहीं आया। गंगा किनारे अस्थियां प्रवाहित हो रही थीं, लोग पिंड-दान करवा रहे थे, पूजा-सामग्री जल में तिरोहित हो रही थी, और न जाने क्या-क्या। मटमैला जल था, उसमें स्नान प्रक्रिया चल रही थी।
लौटती हूं मुख्य विषय पर।
किन्तु पुरुष, पूर्ण नग्न होकर ही जल में उतर रहे थे और बाहर आकर साथी से तौलिया मांगकर फैलाकर लपेट रहे थे। वे जल में निरन्तर किलोल कर रहे थे। मैं क्षमा प्रार्थी हूं कि ऐसी भाषा लिख रही हूं किन्तु यही शाश्वत सत्य है कि पुरुष कभी भी सामाजिक, पारिवारिक अथवा कहीं भी कोई संकोच नहीं करते। इसमें कोई संदेह नहीं कि महिलाएं आधुनिक वेशभूषा पहनने लगी हैं, देह प्रदर्शनीय वस्त्र। किन्तु अकारण ही केवल लिखने के लिए लिख देना कदापि शोभा नहीं देता।
समझौता
हेलो बच्चों ! कैसे हो ?
हम ठीक हैं आंटी, आप कैसी हैं?
अक्सर यह वार्तालाप मेरे और उन दोनों बच्चों के बीच होता रहता था। अमित और अर्पित दोनों चचेरे भाई थे। एक ही स्कूल में पढ़ते थे। पड़ोस में ही रहते थे, और बाहर मैदान में खेलते, साईकल पर घूमते मुझे अक्सर मिल जाया करते थे।
कुछ दिन बाद मेरा ध्यान गया कि आजकल दोनों ही दिखाई नहीं दे रहे हैं और एक-दो बार दिखाई दिये तो अलग-अलग।
उस दिन अर्पित मिल गया। मैंने जानना चाहा कि आजकल साथ क्यों नहीं दिखाई दे रहे। तो उसने बताया कि दोनों परिवारों में ज़मीन को लेकर झगड़ा हो गया है, शायद केस भी किया है आपस में पापा ने, हमें भी मिलने और आपस में खेलने से मना कर दिया है। साथ नहीं जाने देते।
अर्थात, बड़ों के झगड़ों में बच्चों का बालपन भी छिन रहा था। वे भी अब आपस में बात नहीं करते थे और खेलते भी नहीं थे। स्कूल भी अलग-अलग जाने लगे थे। मुझे जब भी मिलते उदास लगते।
एक दिन स्कूल से लौटते हुए मुझे दोनों मिल गये। रुककर मुझसे बात करने लगे कि आंटी आप ही समझाओ न हमारे मम्मी-पापा को। मैंने उन्हें समझाया कि यह उनका पारिवारिक मामला है और कोई बाहर का इस बारे में उनसे बात नहीं कर सकता। किन्तु मेरे दिमाग में एक योजना आई और मैंने दोनों बच्चों से कहा कि मैं तुम्हें एक योजना बताती हूॅं हो सकता है मामला सुलझ जाये। बच्चे मान गये।
मेरी योजना के अनुसार अब दोनों अपने-अपने घर में अपने माता-पिता के साथ जायदाद और मुकदमे की बात करने लगते। बार-बार पूछते कि पापा, बताओ इस लड़ाई में हमें कितने पैसे मिलेंगे। आप मुझे कार लेकर दोगे क्या। मेरा भी अपना मकान बन जायेगा क्या, मैं भी अर्पित को अपने घर में नहीं घुसने दूंगा। यही बातें अमित भी अपने घर में कहता। माता-पिता उन्हें डांटते कि बच्चो यह बड़ों की बातें हैं तुम इन मामलों में मत बोला करो। बच्चों का उत्तर होता कि पापा बात तो पूरे घर की ही होती है, हम छोटे हैं तो क्या हुआ, घर तो हमारा भी है और हम आपके बच्चे हैं तो हमें तो आज से ही यह सब समझ जाना चाहिए। कल को मेरा भाई भी तो मुझसे लड़ सकता है। तो आज से ही आप मुझे सब सिखाओ।। दोनों घरों में रोज़ शाम को बच्चे खूब हल्ला करते और माता-पिता को खूब परेशान। न पढ़ाई न खेल और न ही कोई काम। बस यही बातें पूछते और करते रहते। स्कूल में भी वे अपने दोस्तों के साथ बैठकर जायदाद, पैसे और मुकदमों की बातें करते रहते। जल्दी ही स्कूल से दोनों ही घरों में बच्चों की शिकायतें आने लगीं।
परिणाम वही हुआ जो होना था। दोनों ही परिवारों की समझ में आने लगा कि हमारी धन की लालसा हमारी अगली पीढ़ी को भी बरबाद कर देगी, जो बात बैठकर सुलझाई जा सकती है उसे कोर्ट-कचहरी में न खींचा जाये, साथ ही धन और समय की बरबादी।
दोनों ही परिवार साथ आये, धन का लालच छोड़ा और बड़ों की सलाह से समझौता करके एक हो गये।
छोटी-छोटी रोशनियाँ मिलती रहें
तिमिर में कभी जुगनुओं की रोशनियों का आनन्द लिया करते थे
पता नहीं कहाँ चले गये, टिमटिम करते आनन्द दिया करते थे
छोटी-छोटी रोशनियाँ मिलती रहें, जीवन की धार चली रहती है
गहन अंधेरे में भी मन से रोशनियों का आनन्द लिया करते थे
भ्रम-जाल
पता नहीं किस
भ्रम में रहते हैं हम
कि बदल रहा है
बहुत कुछ,
या आने वाला कल
बदलकर आयेगा
और अब
बहुत कुछ
अच्छा ही अच्छा लायेगा।
लेकिन कुछ नहीं बदलता।
बस तरीके बदलते हैं
ढर्रे बदलते हैं
रास्ते अलग-से लगते हैं
लेकिन
आज का दौर
हो या कल का
सब एक-सा ही होता है,
शेष तो भ्रम-जाल होता है।
नया-पुराना
कुछ अलग-सा ही होता है
दिसम्बर।
पहले तो
बहुत प्रतीक्षा करवाता है
और आते ही
चलने की बात
करने लगता है।
कहता है
पुराना जायेगा तभी तो
कुछ नया आयेगा।
और जब नया आयेगा
तो कुछ पुराना जायेगा।
लेकिन
नये और पुराने के
बीच की दूरियॉं
पाटने में ही
ज़िन्दगी निकल जाती है
और हम नासमझ
बस हिसाब लगाते रह जाते हैं।
चलिए, आज
नये-पुराने को छोड़
बस आज की ही बात करते हैं
और आनन्द मनाते हैं।
उदास है मौसम y
कई दिनों से
उदास-सा है मौसम।
न हॅंसता है,
न मुस्कुराता है,
मानों रोशनी से कतराता है।
बस गहरी चादर ओढ़े
जैसे मुॅंह छुपाकर बैठा है।
दिन-रात का एहसास
कहीं खो गया है,
कभी ओस-से आँसू
ढलकते हैं
कभी कोहरे में सिसकता है
और कभी आँसुओं से
सराबोर हो जाता है।
ये हल्की बारिश
ये कंपकंपाती हवाएं
ये बिखरे ओस-कण
लगता है
अब दर्द हुआ है जनवरी को
दिसम्बर के जाने का।
अतीत का मोह
अतीत की तहों में
रही होंगी कभी
कुछ खूबसूरत इमारतें
गगनचुम्बी मीनारें
स्वर्ण-रजत से मढ़े सिंहासन
धवल-जल-प्रवाह
मरमरी संगमरमर पर
संगीत की सुमधुर लहरियाँ ।
हमारी आंखों पर चढ़ा होता है
उस अनदेखे सौन्दर्य का
ऐसा परदा
कि हम वर्तमान में
जीना ही भूल जाते हैं।
और उस अतीत के मोह में
वर्तमान कहीं भूत में चला जाता है
और सब गड्मगड् हो जाता है।
भूत और वर्तमान के बीच उलझे
लौट-लौटकर देखते हैं
परखते हैं
और उस अतीत को ही
संजोने के प्रयास में लगे रहते हैं।
अतीत
चाहे कितना भी सुनहरा हो
काल के गाल में
रिसता तो है ही
और हम
अतीत के मोह से चिपके
विरासतें सम्हालते रह जाते हैं
और वर्तमान गह्वर में
डूबता चला जाता है।
खुदाईयों से मिलते हैं
काल-कलवित कंकाल,
हज़ारों-लाखों वर्ष पुरानी वस्तुएँ
उन्हें रूपाकार देने में
सुरक्षित रखने में
लगाते हैं अरबों-खरबों लगाते हैं
और वर्तमान के लिए
अगली पीढ़ी का
मुहँ ताकने लगते हैं।
आधुनिकता की दौड़
आधुनिकता की दौड़ में
कौन कहाॅं तक जा पहुॅंचा
नहीं जान पाते हैं हम।
धरा बची नहीं
गगन छूते भवन
आॅंख देख पाती नहीं।
हवाओं में ज़िन्दगी नहीं
मौत आने लगी है
न जाने कैसे जीने लगे हैं हम।
धुॅंआ -धुॅंआ हो रही ज़िन्दगी
न जाने किन खयालों में
खोने लगे हैं हम।
दरकते पर्वतों को
चीर-चीर
राहें बना रहे
और उन्हीं राहों पर
ज़िन्दगियाॅं गॅंवा रहे हैं हम।
कचरे के पर्वतों पर जी रहे,
जल-प्लावन
और सूखे की मार
झेल रही
सदानीरा नदियाॅं
कचरे का अम्बार बना रहे हैं हम।
चेहरों पर आवरण किये
अपने-आपसे ही मुॅंह छुपा रहे हैं हम।
कैसी है ये ज़िन्दगी
बहुत लम्बी है ज़िन्दगी।
पल-पल का
हिसाब नहीं रखना चाहती।
किन्तु चाहने से
क्या होता है।
जिन पलों को
भूलना चाहती हूॅं
वे मन-मस्तिष्क पर
गहरे से
मानों गढ़ जाते हैं
और जो पल
जीवन में भले-से थे
वे कहाॅं याद आते हैं।
कैसी है ये ज़िन्दगी।
शून्य दिखलाई देता है
न जाने कैसी सोच हो गई
अपने भी अब
अपनों-से न लगते हैं।
नींद नहीं आती रातों को
सोच-सोचकर
मन भटके है।
ऐसी क्या बात हो गई,
अब भीड़ भरे रिश्तों में
शून्य दिखलाई देता है
अवसर पर कोई नहीं मिलता,
सब भागे-दौड़े दिखते हैं।
चल आज काम बदल लें
चल आज काम बदल लें
मैं चलाऊॅं हल, खोदूंगी खेत
तुम घर चलाना।
राशन-पानी भर लाना
भोजन ताज़ा है बनाना
माता-पिता की सेवा करना
घर अच्छे-से बुहारना।
बर्तन-भांडे सब मांज कर लगाना।
फ़सल की रखवाली मैं कर लूंगी
तुम ज़रा झाड़ू-पोचा लगाना।
सब्ज़ी-भाजी अच्छे-से ले आना।
दूध-दहीं भी लेकर आना।
बच्चों की दूध-मलाई-रोटी
माता-पिता और भाई-बहन का खाना
सब अलग-अलग-से है बनाना।
बच्चों के कपड़े अच्छे से प्रैस हों,
जूते पालिश, बैग में पुस्तकें
और होम-वर्क सब है करवाना।
न करना देरी
स्कूल समय से जायें
टिफ़िन अच्छे-से बनाना।
नाश्ता, दोपहरी रोटी,
संध्या का जल-पान
और रात की रोटी
सब ताज़ा, अलग-अलग
और सबकी पसन्द का है बनाना।
मां की रोटी में नमक कम रहे
पिता की थाली में मीठा
भाई को देना घी की रोटी
बहन मांगेगी पिज़्जा बर्गर
सब कुछ है लाना।
कपड़ों का भी ध्यान रहे
धोकर धूप में है सुखाना।
और हां,
मेरी रोटी दोपहरी में दे जाना
ज़रा ध्यान रहे,
रोटी, साग, सब्ज़ी, लस्सी, पानी,
अचार-मिर्ची सब रहे।
कुछ लेबर के लिए भी लेते आना।
बैल की कमान थामी है मैंने
चूड़ी, कंगन, माला, हार
सब रख आई हूं
ज़रूरत पड़े तो पहन जाना।
नया- पुराना
कुछ अलग-सा ही होता है
दिसम्बर।
पहले तो
बहुत प्रतीक्षा करवाता है
और आते ही
चलने की बात
करने लगता है।
कहता है
पुराना जायेगा तभी तो
कुछ नया आयेगा।
और जब नया आयेगा
तो कुछ पुराना जायेगा।
लेकिन
नये और पुराने के
बीच की दूरियां
पाटने में ही
ज़िन्दगी निकल जाती है
और हम नासमझ
बस हिसाब लगाते रह जाते हैं।
ज़िन्दगी है कि रेत-घड़ी
काल-चक्र की गति
कौन समझ पाया है
.
हम हाथों पर
घड़ियाँ बांधकर,
दीवार पर घड़ियां टांगकर
समझते हैं
समय हमारे अनुसार चलेगा।
ये घड़ियां
समय तो बताती है
किन्तु हमारा समय कहां बता पाती हैं।
हमारी ही तरह
घड़ियों का भी समय
बदलने लगता है
कोई धीमी चलने लगती है
किसी की सूई टूट जाती है
किसी के सैल चुक जाते हैं
तो कोई गिरकर टूट जाती है।
और घड़ियां नहीं बतातीं
कि दिख रहा समय
दिन का है
अथवा रात का।
यह समझने के लिए
तो हमें
सूरज-चांद
अंधेरे और रोशनी से टकराना पड़ता है।
-
और ज़िन्दगी है कि
रेत-घड़ी की तरह
रिसती रहती है।
मन के रंग
डालियों से छिटक-कर
बिखर गये हैं
धरा पर ये पुष्प
शायद मेरे ही लिए।
सोचती हूॅं
हाथों में समेट लूॅं
चाहतों में भर लूॅं
रंगों से
जीवन को महका लूॅं
इससे पहले
कि ये रंग बदल लें
क्यों न मैं इनके साथ
अपने मन के रंग बना लूॅं।
पीड़ा का मर्म
कौन समझ सकता है
पीड़ा के मर्म को
मुस्कानों, हॅंसी
और ठहाकों के पीछे छिपी।
देखने वाले कहते हैं
इतनी ज़ोर से हॅंसती है
आॅंखों से आॅंसू
बह जाते हैं इसके।
-
काश!
ऐसे हम भी होते।
-
मैं कहती हूॅं
अच्छा है
आप ऐसे नहीं हैं।