मन कलपता है
भला-बुरा यहाॅं सब साथ-साथ चलता है
मन बहका है कहाॅं अच्छी बातों में रमता है
इसकी, उसकी, सबकी करते दिन बीते है
अपनी बारी आती है तब मन कलपता है
माॅं की अॅंगूठी
अंगुलियों से ज़्यादा
माॅं के पल्लू में
बंधी देखी है हमने
माॅं की अनमोल छोटी-सी अॅंगूठी।
बस
एक ही अॅंगूठी
तो हुआ करती थी
उसके पास।
किसी सौन्दर्य का प्रतीक नहीं थी
माॅं के लिए वह अॅंगूठी,
स्वर्ण का मोह भी नहीं
किन्तु अनमोल थी उसके लिए।
जब कभी पूछा माॅं से
अॅंगुली से उतारकर
पल्लू में क्यों बाॅंध लेती हो
अपनी अॅंगूठी।
सहज उत्तर होता था उसका
काम करते हुए
खराब हो जाती है,
बर्तन मांजते
बर्तनों की रगड़ से
घिस जाती है,
आटा-मिट्टी, मसाले फॅंस जाते हैं
स्वर्ण की किंकरी गिर जाती है,
ऐसा कहती थी माॅं।
स्वर्ण बहुत मॅंहगा होता है ,
बहुत अनमोल।
हम छू-छूकर देखते थे
और माॅं हॅंस देती थी
लेकिन कभी भी हमारे हाथ नहीं देती थी।
बस रात को सोते समय
पल्लू से खोलकर
पहन लेती थी
और प्रातः उठते ही फिर पल्लू में
चली जाती थी।
अपने मन से करके जी
एक अनुभव है मेरा।
कार्यालयों में
अपनी क्षमता से बढ़कर
काम करने वाले,
अपने-आपको
बड़ा तीसमारखां समझते हैं।
पहले-पहल तो
बड़ा आनन्द मिलता है,
सब चाटुकारिता में लगे रहते हैं
सराहना के पहाड़ खड़े करते हैं,
गुणों की खान बताते हैं
झाड़ पर चढ़ाते हैं
मदद की पुकार लगाते हैं।
अपनी समस्याएॅं बताकर
अपना काम उन पर थोपकर
नट जाते हैं।
मुॅंह पर खूब बड़ाई करते हैं,
पीठ पीछे न जाने कितनी
पदवियों से सुशोभित करते हैं
और जी भर कर उपहास करते हैं।
किन्तु
जब तक उन्हें
अपना शोषण समझ आने लगता है
तीर, कमान से निकल चुका होता है।
काम के साथ
त्रुटियों का पहाड़ भी उनके ही
सर पर खड़ा होता है।
.
हे नारी!
मेरी बात समझ आई
कि नहीं आई।
उतना कर
जितना कर सके।
कर, लेकिन
मर-मरकर न कर।
अपनी सीमाएॅं बाॅंध।
देवी, दुर्गा, सती, न्यारी-प्यारी
के मोह में न पड़
अबला-सबला,
प्रेम-प्यार की बातें न सुन।
महानता के पदकों से
जीवन नहीं चलता।
तेरे चक्रव्यूह में
सात नहीं सैंकड़ों योद्धा हैं
पहले ही सम्हल ले।
गुणों का घड़ा बड़ी जल्दी फूटता है
अवगुणों का भण्डार हर दम भरता है।
और एक बार भर जाये
फिर जीवन-भर नहीं उतरता है।
.
अपने लिए भी जी
लम्बी तान कर अपने मन से जी
जी भरकर जी,
पीठ पर बोझा लाद-लादकर न जी
मुट्ठियाॅं बाॅंधकर रख
मन से जी, अपने मन से जी
सबकी सुन
लेकिन अपने मन से करके जी।
खुशियों को आवाज़ दे रही
मन के भावों को थाप दे रही
खुशियों को आवाज़ दे रही
ढोल बाजे मन झूम-झूम जाये
कदम बहक रहे, ताल दे रही।
प्रकृति का सौन्दर्य निरख
सांसें
जब रुकती हैं,
मन भीगता है,
कहीं दर्द होता है,
अकेलापन सालता है।
तब प्रकृति
अपने अनुपम रूप में
बुलाती है
समझाती है,
देख, रंगों की महक देख
बदलते रंगों की चहक देख
रंगोें में एकमेक भाव देख
जल की तरलता देख
ठहरे जल में प्रतिबिम्ब देख।
प्रतिबिम्बों में सौन्दर्य देख,
देख
डालियां
कैसे
झुक-झुक मन मदमाती हैं।
सब कहती हैं
समय बदलता है।
धूप है तो बरसात भी।
आंधी है तो पतझड़ भी।
सूखा है तो ताल भी।
मन मत हो उदास
प्रकृति का सौन्दर्य निरख।
आनन्द में रह।
चाहतें भी थोड़ी-सी
गगन की उड़ान है
छोटा-सा मकान है
चाहतें भी छोटी ही
बादलों में स्थान है।
बचपन की बातें
हवा में उड़ते धागों को पकड़ने के लिए भागा करते थे
पकड़-पकड़ कर बोतलों में एकत्र कर लिया करते थे
मन में डर रहता था कि कहीं काले-काले कीट तो नहीं
बाद में इनका गुच्छा बनाकर हवा में उड़ा दिया करते थे।
समाचारों में बहुत शोर हुआ
गली में कुत्ता रोया, समाचारों में बहुत शोर हुआ
बिल्ली ने चूहा खाया, समाचारों में बहुत शोर हुआ
शेर दहाड़ा जंगल में, सुना, न देखा, बस बात हुई
कौए न की काॅं काॅं, समाचारों में बहुत शोर हुआ
कभी झड़ी, कभी धूप
कभी-कभी यूॅं ही सोचने में दिन निकल जाता है
काम बहुत, पर मन नहीं लगता अकेलापन भाता है
ये सूनी-सूनी राहें, झरते पत्ते, कांटों की आहट
कभी झड़ी, कभी धूप, कहाॅं समझ में कुछ आता है
अपने पर विश्वास बनाये रखना
ढाल नहीं, तलवार की धार बनाये रखना
माॅंगना मत सुरक्षा, हाथ में तलवार रखना
आॅंख खुली रहे, भरोसा अपने आप पर हो
हारना नहीं, अपने पर विश्वास बनाये रखना
अच्छे हो तुम
वैसे तो बहुत अच्छे हो तुम
बस बातों के कच्चे हो तुम
काम कोई पूरा करते नहीं
माना बुद्धि में बच्चे हो तुम
प्यार के नाम पर दिखावा
अटूट बन्धन बस स्वार्थ के ही होते हैं इस संसार में
कोई न अपना, कोई न सपना, धोखा है इस संसार में
जिन्हें अपना समझा वे ही छोड़कर चले गये दुःख में
प्यार के नाम पर बस दिखावा ही है इस संसार में
आंसुओं के निशान
आॅंख से बहता पानी
उतना ही खारा होता है
जितना सागर का पानी।
उतनी ही गहराई होती है
जैसी सागर में।
आॅंखों के भीतर भी
उठती हैं उत्ताल तरंगें,
डूबते हैं भाव,
कसकती हैं आशाएॅं, इच्छाएॅं।
कोरों पर जमती है काई,
भीतर ही भीतर
उठते हैं बवंडर,
भंवर में डूब जाते हैं
न जाने कितने सपने।
बस अन्तर इतना ही है
कि सागर का पानी
कभी सूखता नहीं,
चिन्ह रेत पर छोड़ता नहीं,
मिलते हैं माणिक-मोती
सुच्चे सीपी-शंख।
लेकिन आॅंख का पानी
जब-जब सूखता है
तब-तब भीतर तक
सागर भर-भर जाता है,
लेकिन
फिर भी
देता है शुष्कता का एहसास
और अपने पीछे छोड़ जाता है
अनदेखे जीवन भर के निशान।
फटी चादर
एक बड़ी पुरानी कहावत है
जितनी चादर हो
उतने ही पैर पसारने चाहिए।
नई बात यह कि
अपने पैरों को देखो
बड़े हो गये हों
तो नई चादर लेने की औक़ात बनाओ।
कब तक
पुरानी चादर
और पुराने मुहावरों को
जीते रहोगे।
ज़िन्दगी ऐसे नहीं चलती।
लेकिन उस दिन का क्या करें
जब चादर
न छोटी थी, न बड़ी
पता नहीं
कहाॅं-कहाॅं से फ़टी थी।
अपने लिए,
हम अपने-आप,
चादर कहाॅं खरीद पाते हैं
या तो पूर्वजों से मिलती है
उस पर पैर पसारते रहते हैं
अथवा हमारी अगली पीढ़ी
हमें चादर उढ़ा जाती है
जो हमारी पहुॅंच से
बहुत बाहर होती है।
फिर चादर में
पैर आते हैं या नहीं
छोटी है या बड़ी
फटी है या रेशमी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता यारो।
बस एक चादर होती है।
गुलाब में कांटे भी होते हैं
तुम्हारे लिए
ये गुलाब के सुन्दर फूल हैं,
तुम्हें इनमें प्रेम दिखता है,
मेरे लिए हैं ये
मेरे परिश्रम की गोल रोटी,
मेरी आत्मनिर्भरता की कसौटी।
बेचने निकली हूॅं
दया मत दिखलाना
लेने हों तो हाथ बढ़ाना,
नहीं तो दूर रहना
ध्यान रहे,
गुलाब में कांटे भी होते हैं
और वे गुलाब की तरह
मुरझा नहीं जाते।
अपनी राहें आप बनाता चल
संसार विवादों से रहित नहीं है,
उसको हाशिए पर रखता चल।
अपनी चाल पर बस ध्यान दे
औरों को अॅंगूठा दिखाता चल।
कोई क्या बोल रहा न ध्यान दे
अपने मन की सुन, गाता चल।
तेरे पैरों के नीचे की ज़मीन
खींचने को तैयार बैठे हैं लोग
न परवाह कर,
धरा ही क्या
गगन पर भी छाता चल।
आॅंधी हो या तूफ़ान
अपनी राहें आप बनाता चल।
भारत की है हिन्दी बोली
अच्छा लगता है मुझे
हिन्दी में बात करना।
अच्छा लगता है मुझे
किसी को हिन्दी में
बात करते हुए सुनना।
अच्छा लगता है मुझे
जब कोई बताता है
कि हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है,
जहाॅं जो कहा जाता है
वही लिखा जाता है
और वही सुना जाता है।
अच्छा लगता है मुझे
जब कोई कहता है
विश्व में
सर्वाधिक बोली-समझी जाने वाली
भाषाओं में एक है
हमारी हिन्दी भाषा।
किन्तु उस समय
मेरा मन
उदास हो जाता है
जब कोई कहता है
हिन्दी एक कठिन भाषा है
इसे सरल होना चाहिए,
अकारण ही
अन्य भाषाओं के
निरर्थक शब्दों का समावेश
चुभता है मुझे।
अपने शब्दों को
कठिन बताकर
विदेशी नवीन शब्दों को
ग्रहण कर लेते हैं हम
किन्तु हिन्दी के जाने-पहचाने शब्द
छोड़ जाते हैं हम।
रोमन में लिखते
हिन्दी वर्णमाला को भूल रहे हैं हम।
मानक वर्णमाला कहीं खो गई है
42, 48, 52 के चक्कर में फ़ंसे हुए हैं हम।
वैज्ञानिक भाषा की बात करें
बच्चों को कैसे समझाएॅं हम।
उच्चारण, लेखन का सम्बन्ध टूट गया
कुछ भी लिखते
कुछ भी बोल रहे हम।
चन्द्रबिन्दु गायब हो गये
अनुस्वर न जाने कहॉं खो गये
उच्चारण को भ्रष्ट किया,
सरलता के नाम पर
शुद्ध शब्दों से भाग रहें हम।
शिक्षा से दूर हो गई,
माध्यम भी न रह गई,
ऑनलाईन अंग्रेज़ी के माध्यम से
हिन्दी लिख-पढ़ सीख रहे हम।
अंग्रेज़ी में हिन्दी लिखकर
उनसे हिन्दी मॉंग रहे हम।
अनुवाद की भाषा बनकर रह गई,
इंग्लिश-विंग्लिश लिखकर
गूगल से कहते हिन्दी दे दो,
हिन्दी दे दो।
न जाने किस विवशता में
हिन्दी के बारे में न सोच रहे हैं हम।
चलो, आज
हिन्दी के लिए एक आन्दोलन करें
शिक्षा का माध्यम बने हिन्दी
जन-जन की भाषा बने हिन्दी
हर मन की भाषा बने हिन्दी
अपनी पहचान बने हिन्दी।
लेकिन फिर भी
हिन्दी सबसे प्यारी बोली।
हिन्दी सबसे न्यारी बोली।
भारत की है हिन्दी बोली।
चौखट पर सपने
पलकों की चौखट पर सपने
इक आहट से जग जाते हैं।
बन्द कर देने पर भी
निरन्तर द्वार खटखटाते हैं।
आॅंखों में नींद नहीं रहती
फिर भी सपने छूट नहीं पाते हैं।
कुछ देखे, कुछ अनदेखे सपने
भीतर ही भीतर कुलबुलाते हैं।
नहीं चाहती कोई समझ पाये
मेरे सपनों की माया
पर आॅंखें मूॅंद लेने पर भी
कोरों पर नम-से उभर आते हैं।
सावन में माॅं के ऑंगन में
सावन में मॉं के ऑंगन में
नेह बरसता था
भीग-भीग जाते थे हम।
बूॅंदों को हाथों में थामे
खेल-खेल में
मॉं का ऑंचल
भिगो जाते थे हम।
मॉं पल्लू छिटकाकर
झाड़ देती थीं बूॅंदों को
मॉं की मीठी-सी झिड़की से
सराबोर हो जाते थे हम।
तारों पर लटकी बूॅंदों को
चाट-चाट पी जाते थे हम।
भीगी चिड़ियॉं
पानी से चोंच लड़ातीं,
पंख छिटक-छिटक कर
बूॅंदें बिखेरतीं
उनकी इस हरकत से
हॅंस-हॅंस
लोट-पोट हो जाते थे हम।
चिड़ियों के पीछे-पीछे भागें,
उन्हें सतायें
न दाना खाने दें,
न पानी पीने दें,
मॉं से डॉंट खाकर
सारा घर गीला कर
छुप जाते थे हम।
मॉं पकड़-पकड़कर बाल सुखाती
उसकी गोदी में
सिर रखकर सो जाते थे हम।
ज़िन्दगी बोझ नहीं लगती
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
ज़िन्दगी को बोझ नहीं मानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने साथ
अपने-आप जीना जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने लिए जीना जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपनी बात
अपने-आपसे कहना जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
औरों से अपेक्षाएॅं नहीं करते जाते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
एक के बदले चार की
चाहत नहीं रखते हैं
प्यार की कीमत नहीं मॉंगते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
औरों को उतना ही समझते हैं
जितना हम चाहते हैं
कि वे हमें समझें।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने-आप पर हॅंसना जानते हैं।
ज़िन्दगी तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने-आप पर
हॅंसना और रोना नहीं जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
रो-रोकर अपने-आपको
अपनी ज़िन्दगी को
कोसते नहीं रहते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
औरों की ज़िन्दगी देख-देखकर
ईर्ष्या से मर नहीं जाते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
मन में स्वीरोक्ति का भाव नहीं लाते हैं।
पहाड़ों की टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डिया
पहाड़ों की टेढ़ी-मेढ़ी
संकरी पगडण्डियाॅं
जीवन में उतर आईं,
सीधे-सादे रास्ते
अनायास ही
मनचले हो गये।
कूदते-फाॅंदते
जीवन में आते रहे
उतार-चढ़ाव
और हम
आगे बढ़ते रहे।
फ़िसलन बहुत हो जाती है
जब बरसता है पानी
गिरती है बर्फ़
रुई के फ़ाहों-सी,
आॅंखों को
एक अलग तरह की
राहत मिलती है।
जीवन में
टेढ़ेपन का
अपना ही आनन्द होता है।
बोलना भूलने लगते हैं
चुप रहने की
अक्सर
बहुत कीमत चुकानी पड़ती है
जब हम
अपने ही हक़ में
बोलना भूलने लगते हैं।
केवल
औरों की बात
सुनने लगते हैं।
धीरे-धीरे हमारी सोच
हमारी समझ कुंद होने लगती है
और जिह्वा पर
काई लग जाती है
हम औरों के ढंग से जीने लगते हैं
या सच कहूॅं
तो मरने लगते हैं।
खाली हाथ
मन करता है
रोज़ कुछ नया लिखूॅं
किन्तु न मन सम्हलता है
न अॅंगुलियाॅं साथ देती हैं
विचारों का झंझावात उमड़ता है
मन में कसक रहती है
लौट-लौटकर
वही पुरानी बातें
दोहराती हैं।
नये विचारों के लिए
जूझती हूॅं
अपने-आपसे बहसती हूॅं
तर्क-वितर्क करती हूॅं
नया-पुराना सब खंगालती हूॅं
और खाली हाथ लौट आती हूॅं।
थक गई हूॅं मैं अब
थक गई हूॅं मैं अब
झूठे रिश्ते निभाते-निभाते।
थक गई हूॅं मैं अब
ज़िन्दगी का सच छुपाते-छुपाते।
थक गई हूॅं मैं अब
झूठ को सच बनाते-बनाते।
थक गई हूॅं मैं अब
किस्से कहानियाॅं सुनाते-सुनाते।
थक गई हूॅं मैं अब
आॅंसुओं को छुपाते-छुपाते।
थक गई हूॅं मैं अब
बिन बात ठहाके लगाते-लगाते।
थक गई हूॅं मैं अब
नाराज़ लोगों को मनाते-मनाते।
थक गई हूॅं मैं अब
चेहरे पर चेहरा लगाते-लगाते।
कुछ तो बदल गया है
आजकल
लिखते-लिखते
अक्सर हाथ रुक जाते हैं,
भाव बहक जाते हैं।
शब्द वही हैं
भाषा वही है
पर पता नहीं क्यों
अर्थ बदल जाते हैं।
मीठा बोलते-बोलते
वाणी में न जाने कैसे
कटुता आ जाती है
और शब्द
कहीं दूर भाग जाते हैं।
मैं बदल गई हूॅं या तुम
या यह दुनिया
समझ नहीं पाई,
सब बदले-बदले-से लगते हैं।
प्यार कहो
तो तिरस्कार का एहसास होता है।
अपनापन जताओ तो
दूरियों का भाव आता है,
सम्मान की बात सुनकर
अपमान का एहसास
क्यों आता है।
शब्द वही हैं, भाषा वही है
पर कुछ तो बदल गया है।
स्वर्ण मृग नहीं होते
काश! स्वर्ण मृग नहीं होते।
न होती सीता की कथाएॅं
न होती रावण की चर्चा।
काश! स्वर्ण मृग नहीं होते।
तुम शायद कहोगे
आज तो नहीं हैं स्वर्ण मृग।
हैं न,
मृग मरीचिकाएॅं तो हैं,
मृग तृष्णाएॅं तो हैं।
न कोई राम है, न रावण।
स्वयॅं ही वन-कानन हैं,
स्वयं ही राम-रावण
और लक्ष्मण रेखा से जूझती
सीता भी स्वयं ही हैं।
वनवास
केवल तब नहीं होता
जब वन में रहते हैं।
मन में भी वन होते हैं सघन,
अग्नि परीक्षा
केवल अग्नि में
समा जाने से नहीं होती,
अपने भीतर भी होती रहती है।
अपनी ही परीक्षाएॅं लेते हैं
अपनी ही खींची हुई लक्ष्मण रेखा
लांघते हैं
और अपने भीतर ही
अपहृत हो जाते हैं।
इस व्यथा को
मैं स्वयं नहीं समझ सकी
तो आपको क्या समझाउॅं।
प्रतीक्षा में
बाट में
बैठी हूॅं तुम्हारी
उस दिन से ही
जिस दिन
छोड़ गये थे तुम मुझे
चुनरिया, चूड़ा
पहनाकर
मेंहदी, बिंदिया लगाये थे।
बिरहन का यह चोला पहनाकर
घट भरकर लाये थे।
तुम मुझे इस रूप में देखकर
बहुत मन भाये थे।
फिर शहर चले गये तुम।
लौटने का वादा करके
मन सावन था
पतझड़ हो गया।
तुम न आये।
जियरा न लागे तुम बिन
यूॅं ही बैठी तुम्हारी बिरहन
तुम्हारी प्रतीक्षा में
कभी तो लौटकर आओगे तुम।
रोटियाॅं यूॅं ही नहीं सिंकती
रोटियाॅं यूॅं ही नहीं सिंकती
कहीं आग सुलगती है
कहीं लकड़ी भभकती है
और कहीं
भीतर ही भीतर
लौ जलती है।
जब जलती आग
राख हो जाये
तो दूध,
जो सदा उफ़नकर
फैलने की आदत रखता है
वह भी
सिमट-सिमट जाता है,
सबका स्वभाव बदल जाता है।
आग
भीतर जले है या बाहर
सुलगती भी है
और राख बनकर
राख भी कर जाती है।
विघ्नहर्ता गणेश
लाखों नहीं
करोड़ों की संख्या में
विराजते हैं आप
हर वर्ष हमारे घरों में
आदरणीय गणेश जी।
दस दिन बाद
आपका विसर्जन कर
पुकारते हैं
अगले वर्ष जल्दी आना।
विसर्जित भी करते हैं
और चाहते हैं
कि आप पुनः-पुनः
हमारे घर पधारें
हर वर्ष पधारें।
गणेश जी के मूर्त रूप को तो
तिरोहित कर देते हैं
किन्तु उनका अमूर्त रूप
क्या रख पाते हैं हम
अपने भीतर,
अथवा केवल
पूजा-अर्चना में ही
याद आती है उनकी।
मूर्तियाॅं तिरोहित करें
किन्तु विघ्नहर्ता गणेश जी को
अपने भीतर ही रखें।
दूध-घी की नदियाॅं
कहते हैं
भारत में कभी
दूध-घी की
नदियाॅं बहती थीं
और किसी युग में
दूध-दहीं की
मटकियाॅं फोड़ने की
परम्परा थी
और उस युग की महिलाएॅं
इसका खूब आनन्द लिया करती थीं।
ये सब
शायद मेरे जन्म से
पहले की बातें रही होगी।
क्योंकि हमने तो
दूध को
जब भी देखा
प्लास्टिक की थैलियों में देखा।
इतना ज़रूर है
कि जब कभी थैली फ़टी है
तो दूध की नदियाॅं और
माॅं की डांट साथ बही है।
वैसे सुना है
दूध बड़ा उपयोगी पेय है
बहुत कुछ देता है
बस, ज़रा ध्यान से
उसे मथना पड़ता है
फिर बहुत कुछ निकलकर आता है।
वैसे दूध के
और भी
बड़े उपयोग हुआ करते हैं
इंसान को मिले न मिले,
हम सांपों को दूध पिलाते हैं
यह और बात है
कि पता नहीं लगता
कि वे कब
आस्तीन के साॅंप बन जाते हैं
और हम
कुछ भी समझ नहीं पाते हैं।