मां के आंचल की छांव

प्रकृति का नियम है

विशाल वट वृक्ष तले

नहीं पनपते छोटे पेड़ पौधे।

नहीं पुष्पित पल्लवित होतीं यूं ही लताएं।

और यदि कुछ पनप भी जाये

तो उसे नाम नहीं मिलता।

पहचान नहीं मिलती।

बस, वट वृक्ष की विशालता के सामने

खो जाते हैं सब।

लेकिन, एक सा वट वृक्ष भी है

जिसका अपना कोई नाम नहीं होता

कोई पहचान नहीं होती।

बस एक दीर्घ आंचल होता है

जिसके साये तले, पलती बढ़ती है

एक पूरी की पूरी पीढ़ी,

एक पूरा का पूरा युग।

अपनी जड़ों से पोषण करती है उनका।

नये पौधों का रोपण करती है

अपने आपको खोकर।

उन्हें नाम देती है, पहचान देती है

आंचल की छांव देती है।

पूरी ज़मीन और पूरा आकाश देती है।

युग बदलते हैं, पर नहीं बदलती

नहीं छूटती आंचल की छांव।