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कृष्ण की पुकार
न कर वन्दन मेंरा
न कर चन्दन मेरा
अपने भीतर खोज
देख क्रंदन मेरा।
हर युग में
हर मानव के भीतर जन्मा हूं।
न महाभारत रचा
न गीता पढ़ी मैंने
सब तेरे ही भीतर हैं
तू ही रचता है।
ग्वाल-बाल, गैया-मैया, रास-रचैया
तेरी अभिलाषाएं
नाम मेरे मढ़ता है।
बस राह दिखाई थी मैंने
न आयुध बांटे
न चक्रव्यूह रचे मैंने
लाक्षाग्रह, चीर-वीर,
भीष्म-प्रतिज्ञाएं
सब तू ही करता है
और अपराध छुपाने को अपना
नाम मेरा रटता है।
पर इस धोखे में मत रहना
तेरी यह चतुराई
कभी तुझे बचा पायेगी।
कुरूक्षेत्र अभी लाशों से पटा पड़ा है
देख ज़रा जाकर
तू भी वहीं कहीं पड़ा है।
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डर-डर कर जी रहे हैं
खुले आसमान के नीचे
विघ्न-बाधाओं को लांघकर
समुद्र मापकर
आकाश और धरा को नापकर,
हवाओं को बांधकर,
मानव समझ बैठा था
स्वयं को विधाता, सर्वशक्तिमान।
और आज
अपनी ही करनी से,
अपनी ही कथनी से,
अपने ही कर्मों से,
अपने लिए, आप ही,
तैयार कर लिया है कारागार।
सीमाओं में रहना सीख रहा है,
अपनापन अपनाना सीख रहा है।
उच्च विचार पता नहीं,
पर सादा जीवन जी रहा है।
इच्छाओं पर प्रतिबन्ध लगा है।
आशाओं पर तुषारापात हुआ है।
चाबी अपने पास है
पर खोलने से डरा हुआ है।
दूरियों में जी रहा है
नज़दीकियों से भाग रहा है।
हर पल मर-मर कर जी रहा है,
हर पल डर-डर कर जी रहा है।
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ध्वनियां विचलित करती हैं मुझे
कुछ ध्वनियां
विचलित करती हैं मुझे
मानों
कोई पुकार है
कहीं दूर से
अपना है या अजनबी
नहीं समझ पाती मैं।
कोई इस पार है
या उस पार
नहीं परख पाती मैं।
शब्दरहित ये आवाजे़ं
भीतर जाकर
कहीं ठहर-सी जाती हैं
कोई अनहोनी है,
या किसी अच्छे पल की आहट
नहीं बता पाती मैं।
कुछ ध्वनियां
मेरे भीतर भी बिखरती हैं
और बाहर की ध्वनियों से बंधकर
एक नया संसार रचती हैं
अच्छा या बुरा
दुख या सुख
समय बतायेगा।
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हाईकु: धारा
धारा निर्बाध
भावों में हलचल
आंखों में पानी
-
अविरल है
धारा की तरलता
भाव क्यों रूखे
-
धारा निश्छल
चंदा की परछाईं
मन बहके
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पलायन का स्वर भाता नहीं
अरे! क्यों छोड़ो भी
कोई बात हुई, कि छोड़ो भी
यह पलायन का स्वर मुझे भाता नहीं।
मुझे इस तरह से बात करना आता नहीं।
कोई छेड़ गया, कोई बोल गया
कोई छू गया।
किसी की वाणाी से अपशब्द झरे,
कोई मेरा अधिकार मार गया,
किसी के शब्द-वाण झरे,
ढूंढकर मुहावरे पढ़े।
हरदम छोटेपन का एहसास कराते
कहीं दो वर्ष की बच्ची
अथवा अस्सी की वृद्धा
नहीं छोड़ी जी,
और आप कहते हैं
छोड़ो जी।
छोटी-छोटी बातों को
हम कह देते हैं छोड़ो जी
कब बन जाता
इस राई का पहाड़
यह भी तो देखो जी।
छोड़ो जी कहकर
हम देते हिम्मत उन लोगों को
जो नहीं मानते
कि गलत राहें छोड़ो जी।
इसलिए मैं तो मानूं
कि क्यों छोड़ो जी।
न जी न,
न छोड़ो जी।
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पीड़ा का मर्म
कौन समझ सकता है
पीड़ा के मर्म को
मुस्कानों, हॅंसी
और ठहाकों के पीछे छिपी।
देखने वाले कहते हैं
इतनी ज़ोर से हॅंसती है
आॅंखों से आॅंसू
बह जाते हैं इसके।
-
काश!
ऐसे हम भी होते।
-
मैं कहती हूॅं
अच्छा है
आप ऐसे नहीं हैं।
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जब लहराता है तिरंगा
एक भाव है ध्वजा,
देश के प्रति साख है ध्वजा।
प्रतीक है,
आन का, बान का, शान का।
.
तीन रंगों से सजा,
नारंगी, श्वेत, हरा
देते हमें जीवन के शुद्ध भाव,
शक्ति, साहस की प्रेरणा,
सत्य-शांति का प्रतीक,
धर्म चक्र से चिन्हित,
प्रकृति, वृद्धि एवं शुभता
की प्रेरणा।
भाव है अपनत्व का।
शीश सदा झुकता है
शीष सदा मान से उठता है,
जब लहराता है तिरंगा।
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तू अपने मन की कर
चाहे कितना काम करें, कोर-कसर तो रहती है
दुनिया का काम है कहना, कहती ही रहती है
तू अपने मन की कर, तू अपने मन से कर
कोई क्या कहता है, चिन्ता जाती रहती है।
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हम खुश हैं जग खुश है
इस भीड़ भरे संसार में मुश्किल से मिलती है तन्हाई सखा
आ, ज़रा दो बातें कर लें,कल क्या हो,जाने कौन सखा
ये उजली धूप,समां सुहाना,हवा बासंती,हरा भरा उपवन
हम खुश हैं, जग खुश है, जीवन में और क्या चाहिए सखा
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दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी
शून्य से शतक तक की दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी
इससे आगे और क्या इस सोच में बह रही है जिन्दगी
और–और मिलने की चाह में डर डर कर जीते हैं हम
एक से निन्यानवे तक भी आनन्द ले, कह रही है जिन्दगी