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अपना जीवन है
अपनी इच्छाओं पर जीने का साहस रख

कोई क्या कहता है इससे न मतलब रख

घुट-घुटकर जीना भी कोई जीना है यारो

अपना जीवन है, औरों के आरोप ताक पर रख

यादें बिखर जाती हैं

पन्ने खुल जाते हैं

शब्द मिट जाते हैं

फूल झर जाते हैं

सुगंध उड़ जाती है

यादें बिखर जाती हैं

लुटे भाव रह जाते हैं

ज़िन्दगी के रास्ते

यह निर्विवाद सत्य है

कि ज़िन्दगी

बने-बनाये रास्तों पर नहीं चलती।

कितनी कोशिश करते हैं हम

जीवन में

सीधी राहों पर चलने की।

निश्चित करते हैं कुछ लक्ष्य

निर्धारित करते हैं राहें

पर परख नहीं पाते

जीवन की चालें

और अपनी चाहतें।

ज़िन्दगी

एक बहकी हुई

नदी-सी लगती है,

तटों से टकराती

कभी झूमती, कभी गाती।

राहें बदलती

नवीन राहें बनाती।

किन्तु

बार-बार बदलती हैं राहें

बार-बार बदलती हैं चाहतें

बस,

शायद यही अटूट सत्य है।

 

 

कैसा दुर्भाग्य है मेरा

 

कैसा दुर्भाग्य है मेरा

कि जब तक

मेरे साथ दो बैल

और ग़रीबी की रेखा न हो

मुझे कोई पहचानता ही नहीं।

जब तक

मैं असहाय, शोषित न दिखूँ

मुझे कोई किसान

मानता ही नहीं।

मेरी

इस हरी-भरी दुनियाँ में

एक सुख भरा संसार भी है

लहलहाती कृषि

और भरा-पूरा

परिवार भी है।

गुरूर नहीं है मुझे

पर गर्व करता हूँ

कि अन्न उपजाता हूँ

ग्रीष्म-शिशिर सब झेलता हूँ,

आशाओं में जीता हूँ

आशाएँ बांटता हूँ।

दुख-सुख तो

आने-जाने हैं।

अरबों-खरबों के बड़े-बड़े महल

अक्सर भरभराकर गिर जाते हैं,

तो कृषि की

असामयिक आपदा के लिए

हम सदैव तैयार रहते हैं,

हमारे लिए

दान-दया की बात कौन करता है

हम नहीं जानते।

अपने बल पर जीते हैं

श्रम ही हमारा धर्म है

बस इतना ही हम मानते।

 

मर्यादाओं की बात करें

मर्यादाओं की बात करें, मर्यादा का ज्ञान नहीं

बात करें भगवानों की, धर्म-कर्म का भान नहीं

भाषा सुनकर मानों कानों में गर्म तेल ढलता है

झूठे ठाट-बाट दिखलाते, अपनों का ही मान नहीं

सर्दी  में सूरज

इस सर्दी  में सूरज तुम हमें बहुत याद आते हो

रात जाते ही थे, अब दिन भर भी गायब रहते हो

देखो, यूं न हमें सताओ, काम कोई कर पाते नहीं

कोहरे को भेद बाहर आओ, क्यों हमें तरसाते हो

बनती रहती हैं गांठें बूंद-बूंद

कहां है अपना वश !
कब के रूके
कहां बह निकलेगें
पता नहीं।
चोट कहीं खाई थी,
जख्म कहीं था,
और किसी और के आगे
बिखर गये।

सबने अपना अपना 
अर्थ निकाल लिया।
अब 
क्या समझाएं
किस-किसको 
क्या-क्या बताएं।
तह-दर-तह
बूंद-बूंद
बनती रहती हैं गांठें
काल की गति में
कुछ उलझी, कुछ सुलझी
और कुछ रिसती

बस यूं ही कह बैठी,
जानती हूं वैसे 
तुम्हारी समझ से बाहर है
यह भावुकता !!!

नदी के उस पार कच्चा रास्ता है

कच्ची राहों पर चलना

भूल रहे हैं हम,

धूप की गर्मी से

नहीं जूझ रहे हैं हम।

पैरों तले बिछते हैं 

मखमली कालीन,

छू न जाये कहीं

धरा का कोई अंश।

उड़ती मिट्टी पर

लगा दी हैं

कई बंदिशें,

सिर पर तान ली हैं,

बड़ी-बड़ी छतरियां

हवा, पानी, रोशनी से

बच कर निकलने लगे हैं हम।

पानी पर बांध लिए हैं

बड़े-बड़े बांध,

गुज़र जायेंगी गाड़ियां,

ज़रूरत पड़े तो

उड़ा लेंगे विमान,

 

पर याद नहीं रखते हम

कि ज़िन्दगी

जब उलट-पलट करती है,

एक साथ बिखरता है सब

टूटता है, चुभता है,

हवा,पानी, मिट्टी

सब एकमेक हो जाते हैं

तब समझ में आता है

यह ज़िन्दगी है एक बहाव

और नदी के उस पार

कच्चा रास्ता है।

नहीं बनना मुझे नारायणी

लालसा है मेरी

एक ऐसे जीवन की

एक ऐसा जीवन जीने की

जहाँ मैं रहूँ

सदा एक आम इंसान।

नहीं चाहिए

कोई पदवी कोई सम्मान

कोई वन्दन कोई अभिनन्दन।

रिश्तों में बाँध-बाँधकर मुझे

सूली पर चढ़ाते रहते हो।

रिश्ते निभाते-निभाते

जीवन बीत जाता है

पर कहाँ कुछ समझ आता है,

जोड़-तोड़-मोड़ में

सब कुछ उलझा-उलझा-सा

रह जाता है।

शताब्दियों से

एकत्र की गई

सम्मानों की, बलिदान की

एहसान की चुनरियाँ

उढ़ा देते हो मुझे।

इतनी आकांक्षाएँ

इतनी आशाएँ

जता देते हो मुझे।

पूरी नहीं कर पाती मैं

कहीं तो हारती मैं

कहीं तो मन मारती मैं।

अपने मन से कभी

कुछ सोच ही नहीं पाती मैं।

दुर्गा, काली, सीता, राधा, चण्डी,

नारायणी, देवी,

चंदा, चांदनी, रूपमती

झांसी की रानी, पद्मावती

और न जाने क्या-क्या

सब बना डालते हो मुझे।

किन्तु कभी एक नारी की तरह

भी जीने दो मुझे।

नहीं जीतना यह संसार मुझे।

दो रोटी खाकर,

धूप सेंकती,

अपने मन से सोती-जागती

एक आम नारी रहने दो मुझे।

नहीं हूँ मैं नारायणी।

नहीं बनना मुझे नारायणी ।

 

प्यार के इज़हार के लिए

आ जा,

आज ज़रा

ताज के साये में

कुछ देर बैठ कर देखें।

क्या एहसास होता है

ज़रा सोच कर देखें।

किसी के प्रेम के प्रतीक को

अपने मन में उतार कर देखें।

क्या सोचकर बनाया होगा

अपनी महबूबा के लिए

इसे किसी ने,

ज़रा हम भी आजमां कर तो देखें।

न ज़मीं पर रहता है

न आसमां पर,

किस के दिल में कौन रहता है

ज़रा जांच कर देखें।

प्यार के इज़हार के लिए

इन पत्थरों की क्या ज़रूरत थी,

बस एक बार

हमारे दिल में उतर कर तो देखें।
एक अनछुए एहसास-सी,

तरल-तरल भाव-सी,

प्रेम की कही-अनकही कहानी

नहीं कह सकता यह ताज जी।

आदर-सूचक शब्द
किसी का नाम लिखते समय हमें कितने आदर-सूचक शब्द आगे-पीछे लगाने चाहिए। आदरणीय, श्री, परम श्रद्धेय, आचार्य, गुरुवर, पूज्य, चरणवन्दनीय, प्रातः स्मरणीय, ऋषिवर, -परमादरणीय जी आदि-इत्यादि।

आजकल कुछ महान लेखन अपने से महान लेखकों के नाम के साथ एकाधिक ऐसे ही सम्बोधन कर रहे हैं।

मुझे लगता है कि किसी के नाम के साथ केवल एक ही आदरसूचक शब्द का प्रयोग होना चाहिए चाहे वह नाम से पहले हो अथवा नाम के बाद।

और यदि किसी के नाम के साथ डा., प्रो. आदि हों तो उससे पूर्व भी किसी सम्मानसूचक शब्द का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।

सम्मानजनक शब्दों के प्रयोग की भी एक सीमा होती है, इतने भी नहीं लिखे जाने चाहिए कि वे हास्यास्पद प्रतीत होने लगें अथवा चाटुकारिता।

आप क्या-क्या लिखते हैं।

  

मुस्कुराते हुए फूल

किसी ने कहा

कुछ कहते हैं मुस्कुराते हुए फूल।

न,न, बहुत कुछ कहते हैं

मुस्कुराते हुए फूल।

अब क्या बताएॅं आपको

दिल छीन कर ले जाते हैं

मुस्कुराते हुए फूल।

हम तो उपवन में

यूॅं ही घूम रहे थे

हमें रोककर बहुत कुछ बोले

मुस्कुराते हुए फूल।

ज़िन्दगी का पूरा दर्शन

समझा जाते हैं

ये मुस्कुराते हुए फूल।

कहते हैं

कांटों से नहीं तुम्हारा पाला पड़ा कभी

डालियों पर ही नहीं

ज़िन्दगी की गलियों में भी

कांटें छुपे रहते हैं फूलों के बीच।

यूॅं तो कहते हैं

हॅंस-बोलकर जिया करो

फूल-फूल की महक पिया करो,

किन्तु अवसर मिलते ही

चुभा जाते हैं कांटे कितने ही फूल।

चेतावनी भी दे जाते हैं

मुस्कुराते हुए फूल।

झरते हुए फूलों की पत्तियाॅं

मुस्कुरा-मुस्कुरा कर

कहती  हैं,

देख लिया हमें

धरा पर मिट रहे हैं,

ध्यान रखना, बहुत धोखा देते हैं

मुस्कुराते हुए फूल।

 

जीवन संवर जायेगा

जब हृदय की वादियों में

ग्रीष्म ऋतु हो

या हो पतझड़,

या उलझे बैठे हों

सूखे, सूनेपन की झाड़ियों में,

तब

प्रकृति के

अपरिमित सौन्दर्य से

आंखें दो-चार करना,

फिर देखना

बसन्त की मादक हवाएँ

सावन की झड़ी

भावों की लड़ी

मन भीग-भीग जायेगा

अनायास

बेमौसम फूल खिलेंगे

बहारें छायेंगी

जीवन संवर जायेगा।

 

धुआँ- धुआँ ज़िन्दगी

कुछ चेतावनियों के साथ

बेहिचक बिकता है

कोई भी, कहीं भी

पी ले

सुट्टा ले

हवा ले और हवाओं में ज़हर घोले

पूर्ण स्वतन्त्र हैं हम।

शानौ-शौकत का प्रतीक बन जाता है।

कहीं गम भुलाने के लिए

तो कहीं सर-दर्द मिटाने के लिए

कभी दोस्ती के लिए

तो कभी

देखकर मन ललचाता है

कुछ आधुनिक दिखने की चाहत

खींच ले जाती है

एकान्त में, छिपकर

फिर दिखाकर

और बाद में अकड़कर।

और जब तक समझ आता है

तब तक

धुआँ- धुआँ हो चुकी होती है ज़िन्दगी।

 

नया सूर्य उदित होगा ही

 

आजकल रोशनियां

डराने लगी हैं,

अंधेरे गहराने लगे हैं।

विपदाओं की कड़ी

लम्बी हो रही है।

इंसान से इंसान

डरने लगा है।

ख़ौफ़ भीतर तक

पसरने लगा है।

राहें पथरीली होने लगी हैं,

पहचान मिटने लगी है।

ज़िन्दगी

बेनाम दिखने लगी है।

 

पर कब चला है इस तरह जीवन।

कब तक चलेगा इस तरह जीवन।

 

जानते हैं हम,

बादल घिरते हैं

तो बरस कर छंटते भी हैं।

बिजली चमकती है

तो रोशनी भी देती है।

 

अंधेरों को

परखने का समय आ गया है।

ख़ौफ़ के साये को

तोड़ने का समय आ गया है।

जीवन बस डर से नहीं चलता,

आशाओं को फिर से

सहेजने का समय आ गया है।

नया सूर्य उदित होने को है,

हाथ बढ़ाओ ज़रा,

हाथ से हाथ मिलाओ ज़रा,

सबको अपना बनाने का

समय आ गया है।

नया सूर्य उदित होगा ही,

अपने लिए तो सब जीते हैं,

औरों के दुख को

अपना बनाने का समय आ गया है।

अतिथि तुम तिथि देकर आना

शीत बहुत है, अतिथि तुम तिथि देकर आना

रेवड़ी, मूगफ़ली, गचक अच्‍छे से लेकर आना

लोहड़ी आने वाली है, खिचड़ी भी पकनी है

पकाकर हम ही खिलाएंगे, जल्‍दी-जल्‍दी जाना

न छूट रहे लगाव थे

कुछ कहे-अनकहे भाव थे।

कुछ पंख लगे चाव थे।

कुछ शब्दों के साथ थे।

कुछ मिट गये लगाव थे।

कुछ को शब्द मिले थे।

कुछ सूख गये रिसाव थे।

आधी नींद में देखे

कुछ बिखरे-बिखरे ख्वाब थे।

नहीं पलटती अब मैं पन्ने,

नहीं संवारती पृष्ठ।

कहीं धूल जमी,

कहीं स्याही बिखरी।

किसी पुरानी-फ़टी किताब-से,

न छूट रहे लगाव थे।

पूजा में हाथ जुड़ते नहीं

पूजा में हाथ जुड़ते नहीं,

आराधना में सिर झुकते नहीं

मंदिरों में जुटी भीड़ में

भक्ति भाव दिखते नहीं

पंक्तियां तोड़-तोड़कर

दर्शन कर रहे,

वी आई पी पास बनवा कर

आगे बढ़ रहे

पण्डित चढ़ावे की थाली देखकर

प्रसाद बांट रहे,

फिल्मी गीतों की धुनों पर

भजन बज रहे,

प्रायोजित हो गई हैं 

प्रदर्शन और सजावट

बन गई है पूजा और भक्ति,

शब्दों से लड़ते हैं हम

इंसानियत को भूलकर

जी रहे

सच्चाई की राह पर हम चलते नहीं

इंसानियत की पूजा हम करते नहीं

पत्थरों को जोड़-जोड़कर

कुछ पत्थरों के लिए लड़ मरते हैं

पर किसी डूबते को

तिनका का सहारा

हम दे सकते नहीं

शिक्षा के नाम पर पाखण्ड

बांटने से कतराते नहीं

लेकिन शिक्षा के नाम पर

हम आगे आते नहीं

कैसे बढ़ेगा देश आगे

जब तक

पिछले कुछ किस्से भूलकर

हम आगे आते नहीं

ज़िन्दगी भी सिंकती है

रोटियों के साथ

ज़िन्दगी भी सिंकती है।

कौन जाने

जब रोटियां जलती हैं

तब जिन्दगी के घाव

और कौन-कौन-सी

पीड़ाएं रिसती हैं।

पता नहीं

रोज़ कितनी रोटियां सिंकती हैं

कितनी की भूख लगती है

और कितनी भूख मिटती है।

इस एक रोटी के लिए

दिन-भर

कितनी मेहनत करनी पड़ती है

तब जाकर कहीं बाहर आग जलती है

और भीतर की आग

सुलगती हुई आग

न कभी बुझती है

कभी भड़कती है।

 

 

वक्त के मरहम

कहने भर की ही बात है

कि वक्त के मरहम से

हर  जख़्म भर जाया करता है।

 

ज़िन्दगी की हर चोट की

अपनी-अपनी पीड़ा होती है

जो केवल वही समझ पाता है

जिसने चोट खाई हो।

किन्तु, चोट

जितनी गहरी हो

वक्त भी

उतना ही बेरहम हो जाता है।

और हम इंसानों की फ़ितरत !

 

कुरेद-कुरेद कर

जख़्मों को ताज़ा बनाये रखते हैं।

 

पीड़ा का अपना ही

आनन्द होता है।

 

एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने

उपवन में कुछ पत्ते संग टहनी, कुछ फूल झरे थे।

मैं चुन लाई, देखो कितने सुन्दर हैं ये, गिरे पड़े थे।

न डाली पर जायेंगे न गुलदान में अब ये सजेंगे।

एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने, सब देख रहे थे।

 

शक्ति-स्वरूपा

दिव्य आलोकित रूप तुम्हारा मन हर्षित करता है

हाथों में त्रिशूल देखकर मन में साहस भरता है

भोली-सी मुस्कान तुम्हारी आशीष की भांति लगती है

शक्ति-स्वरूपा हो तुम, अरि भी तुमसे डरता है।

जब तक जीवन है मस्ती से जिये जाते हैं

कितना अद्भुत है यह गंगा में पाप धोने, डुबकी लगाने जाते हैं।

कितना अद्भुत है यह मृत्योपरान्त वहीं राख बनकर बह जाते हैं।

कितने सत्कर्म किये, कितने दुष्कर्म, कहां कर पाता गणना कोई।

पाप-पुण्य की चिन्ता छोड़, जब तक जीवन है, मस्ती से जिये जाते हैं।

मतदान
मतदान करने चले, नाम प्रत्याशी का ज्ञात नहीं।

किसको चुनना, क्यों चुनना, चर्चा की तो बात नहीं।

कोई आये, कोई जाये, हमें तो बस रोना ही आता है

अधिकारों का उपयोग करें, इतनी हममें सामर्थ्य नहीं।

शुभकामना संदेश
एक समय था

जब हम

हाथों से कार्ड बनाया करते थे

रंगों और मन की

रंगीनियों से सजाया करते थे।

अच्छी-अच्छी शब्दावली चुनकर

मन के भाव बनाया करते थे।

लिफ़ाफ़ों पर

सुन्दर लिखावट से

पता लिखवाया करते थे।

और प्रतीक्षा भी रहती थी

ऐसे ही कार्ड की

मिलेंगे किसी के मन के भावों से

सजे शुभकामना संदेश।

फिर धन्यवाद का पत्र लिखवाया करते थे।

.

समय बदला

बना-बनाया कार्ड आया

मन के रंग

बनाये-बनाये शब्दों के संग

बाज़ार में मिलने लगे

और हम अपने भावों को

छपे कार्ड पर ही समझने लगे।

.

और अब

भाव नहीं

शब्द रह गये

बने-बनाये चित्र

और नाम रह गये।

न कलम है, न कार्ड है

न पत्र है, न तार है

न टिकट है न भार है

न व्यय है

न समय की मार है

पल भर का काम है

सैंकड़ों का आभार है

ज़रा-सी अंगुली चलाईये

एक नहीं,

बीसियों

शुभकामना संदेश पाईये

औपचारिकताएँ निभाईये

काॅपी-पेस्ट कीजिए

एक से संदेश भेजिए

और एक से संदेश पाईये

 

निःस्वार्थ था उनका बलिदान

 

ये वे नाम हैं

जिन्हें हम स्मरण करते हैं

बस किसी एक दिन,

उनकी वीरता, साहस,

देश भक्ति और बलिदान।

विदेशी आक्रांताओं से मुक्ति,

स्वाधीन, महान भारत का सपना

हमें देकर गये।

निःस्वार्थ था उनका बलिदान

वे केवल जानते थे

हमारा भारत महान

और हर नागरिक समान।

**          **          **          **

देशभक्ति क्या होती है

क्या होता है बलिदान,

काश! हम समझ पाते।

तो आज

न बहता सड़कों पर रक्त

न पूछते हम जाति

न करते किसी धर्म-अधर्म की बात

न पत्थर चिनते,

न दीवारें बनाते,

बस इंसानियत को जीते

और इंसानियत को समझते।

किसी ने कहा था

अच्छा हुआ

आज गांधी ज़िन्दा नहीं हैं

नहीं तो वे

सच को इस तरह सड़कों पर

मरता देख बहुत रोते।

अच्छा हुआ

इनमें से कोई आज ज़िन्दा नहीं है,

वे हमारी सोच देख

सच में ही मर जाते।

**          **          **          **

ऐसा क्या हुआ

कि हम

इन्हें अपने भीतर

ज़िन्दा नहीं रख पाये।

कशमकश में बीतता है जीवन

सुख-दुख तो जीवन की बाती है

कभी जलती, कभी बुझती जाती है

यूँ ही कशमकश में बीतता है जीवन

मन की भटकन कहाँ सम्हल पाती है।

 

बांसुरी छोड़ो आंखें खोलो

बांसुरी छोड़ो, आंखें खोलो,

ज़रा मेरी सुनो।

कितने ही युगों में

नये से नये अवतार लेकर

तुमने

दुष्टों का संहार किया,

विश्व का कल्याण किया।

और अब इस युग में

राधा-संग

आंख मूंदकर निश्चिंत बैठे हो,

मानों सतयुग हो, द्वापर युग हो

या हो राम-राज्य।

-

अथवा मैं यह मान लूं,

कि तुम

साहस छोड़ बैठे हो,

आंख खोलने का।

क्योंकि तुम्हारे प्रत्येक युग के दुष्ट

रूप बदलकर,

इस युग में संगठित होकर,

तुमसे पहले ही अवतरित हो चुके हैं,

नाम-ग्राम-पहचान सब बदल चुके हैं,

निडर।

क्योंकि वे जानते हैं,

तुम्हारे आयुध पुराने हो चुके हैं,

तुम्हारी सारी नीतियां,

बीते युगों की बात हो चुकी हैं,

और कोई अर्जुन, भीम नहीं हैं यहां।

अत: ज़रा संम्हलकर उठना।

वे राह देख रहे हैं तुम्हारी

दो-दो हाथ करने के लिए।

 

 

सूर्य देव तुम कहाँ हो

ओ बादलो गगन से घेरा हटाओ

शीतल पवन तुम दूर भाग जाओ

कोहरे से दृष्टि-भ्रम होने लगा है

सूर्य देव तुम कहाँ हो आ जाओ

जब भी दूध देखा

सुना ही है

कि भारत में कभी

दूध-घी की

नदियाँ बहा करती थीं।

हमने तो नहीं देखीं।

बहती होंगी किसी युग में।

हमने तो

दूध को सदा

टीन के पीपों से ही

बहते देखा है।

हम तो समझ ही नहीं पाये

कि दूध के लिए

दुधारु पशुओं का नाम

क्यों लिया जाता है।

कैसे उनका दूध समा जाता है

बन्द पीपों में

थैलियों में और बोतलों में।

हमने तो जब भी दूध देखा

सदा पीपों में, थैलियों में

बन्द बोतलों में ही देखा।