धुआँ- धुआँ ज़िन्दगी

कुछ चेतावनियों के साथ

बेहिचक बिकता है

कोई भी, कहीं भी

पी ले

सुट्टा ले

हवा ले और हवाओं में ज़हर घोले

पूर्ण स्वतन्त्र हैं हम।

शानौ-शौकत का प्रतीक बन जाता है।

कहीं गम भुलाने के लिए

तो कहीं सर-दर्द मिटाने के लिए

कभी दोस्ती के लिए

तो कभी

देखकर मन ललचाता है

कुछ आधुनिक दिखने की चाहत

खींच ले जाती है

एकान्त में, छिपकर

फिर दिखाकर

और बाद में अकड़कर।

और जब तक समझ आता है

तब तक

धुआँ- धुआँ हो चुकी होती है ज़िन्दगी।