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कच्ची राहों पर चलना
भूल रहे हैं हम,
धूप की गर्मी से
नहीं जूझ रहे हैं हम।
पैरों तले बिछते हैं
मखमली कालीन,
छू न जाये कहीं
धरा का कोई अंश।
उड़ती मिट्टी पर
लगा दी हैं
कई बंदिशें,
सिर पर तान ली हैं,
बड़ी-बड़ी छतरियां
हवा, पानी, रोशनी से
बच कर निकलने लगे हैं हम।
पानी पर बांध लिए हैं
बड़े-बड़े बांध,
गुज़र जायेंगी गाड़ियां,
ज़रूरत पड़े तो
उड़ा लेंगे विमान,
पर याद नहीं रखते हम
कि ज़िन्दगी
जब उलट-पलट करती है,
एक साथ बिखरता है सब
टूटता है, चुभता है,
हवा,पानी, मिट्टी
सब एकमेक हो जाते हैं
तब समझ में आता है
यह ज़िन्दगी है एक बहाव
और नदी के उस पार
कच्चा रास्ता है।
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चिड़िया फूल रंग और मन
चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक।
राग बजे मधुर-मधुर, मन गया बहक-बहक।
सरगम की तान छिड़ी, साज़ बजे, राग बने।
सतरंगी आभा छाई , ताल बजे ठुमुक-ठुमुक।
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विश्व चाय दिवस
सुबह से भूली-भटकी अभी मंच पर आगमन हुआ तो ज्ञात हुआ कि आज तो अन्तर्राष्ट्रीय चाय दिवस अथवा विश्व चाय दिवस है।
ऐसा कैसे सम्भव है। चाय का और केवल एक दिवस! नहीं, नहीं, यह तो चाय का और चाय के नशेड़ियों का घोर अपमान है।
शिमला में हम परिवार में आठ सदस्य थे, दिन-भर में 80-90 चाय तो बनती ही होगी और वह भी लार्ज पटियाला साईज़, पीतल के बड़े गिलास। मेरी दादी मेरी माँ से कहती थी पानी की टंकी में ही चीनी-पत्ती डाल दे, अपने-आप सब दिन-भर पीते रहेंगे।
दिन भर में पाँच-छः चाय तो अब भी पी ही लेती हूँ। कुछ वर्ष पहले तक दस-बारह हो ही जाती थी। उससे पहले 12-15। गज़ब की पाचन-क्षमता रही है मेरी। प्रातः घर से 7.30 निकल जाती थी किन्तु आम बात थी कि चार से पांच चाय पी लेती थी। काम करते-करते एक कप खाली हुआ, दूसरा तैयार। एक नाश्ते के साथ और दूसरा नाश्ते के बाद। फिर कार्यालय पहुँचकर टेबल पर सबसे पहले चाय। चाय देने वाले को भी पता था कि मैडम को कितनी चाय चाहिए होती है। वैसे भी छोटे-छोटे गिलास में आती चाय वैसे ही मूड खराब कर देती है इस कारण मुझे हर जगह अपना ही कप या गिलास रखना पड़ता था। जब मेरा स्थानान्तरण हुआ तो मज़ाक किया जाता था कि कंटीन तो अब बन्द हो जायेगी, कविता तो जा रही है।
मेरे लिए चाय का अर्थ है शुद्ध चाय। अर्थात पानी, ठीक-सा दूध, चीनी और पत्ती। कुछ लोग चाय के नाम पर काढ़ा पीना पसन्द करते हैं। हाय! अदरक नहीं डाला, छोटी इलायची के बिना तो स्वाद ही नहीं आता, दालचीनी वाली चाय बड़ी स्वाद होती है। दूध वाली गाढ़ी चाय होनी चाहिए। अरे तो दूध ही पी लीजिए, चाय के बहाने दूध क्यों पी रहे हैं, सीधे-सीधे कहिए कि दूध पीना है। कुछ लोग चाय का मसाला बनाकर रखते हैं। अरे ! ऐसी ही चाय पीनी है तो गर्म मसाला ही पी लीजिए, चाय को क्यों बदनाम कर रहे हैं।
लोग कहते हैं चाय से गैस हो जाती है, नींद नहीं आती है अथवा नींद आ जाती है। पता नहीं कैसे हैं यह लोग।
आह! किसी समय, कितनी बार, कहीं भी, बस चाय, चाय और चाय।
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हम धीरे-धीरे मरने लगते हैं We just Start Dying Slowly
जब हम अपने मन से
जीना छोड़ देते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम
अपने मन की सुनना
बन्द कर देते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम अपने नासूर
कुरेद कर
दूसरों के जख़्म भरने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम अपने आंसुओं को
आंखों में सोखकर
दूसरों की मुस्कुराहट पर
खिलखिलाकर हँसते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम अपने सपनों को
भ्रम समझकर
दूसरों के सपने संजोने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम अपने सत्कर्मों को भूलकर
दूसरों के अपराधों का
गुणगान करने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम सवालों से घिरे
उत्तर देने से बचने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम सच्चाईयों से
टकराने की हिम्मत खो बैठते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
जब हम
औरों के झूठ का पुलिंदा लिए
उसे सत्य बनाने के लिए
घूमने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम कांटों में
सुगन्ध ढूंढने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम
दुनियादारी की कोशिश में
परायों को अपना समझने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम
विरोध की ताकत खो बैठते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम औरों के अपराध के लिए
अपने-आपको दोषी मानने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हमारी आँखें
दूसरों की आँखों से
देखने लगती हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हमारे कान
केवल वही सुनने लगते हैं
जो तुम सुनाना चाहते हो
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम केवल
इसलिए खुश रहने लगते हैं
कि कोई रुष्ट न हो जाये
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हमारी तर्कशक्ति
क्षीण होने लगती है
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हमारी विरोध की क्षमता
मरने लगती है
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम
नीम-करेले के रस को
शहद समझकर पीने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम
सपने देखने से डरने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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जब हम
अकारण ही
हँसते- हँसते रोने लगते हैं
और हँसते-हँसते रोने
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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हम बस यूँ ही
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
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बांसुरी अब भावशून्य हो गई
कृष्ण तेरी बांसुरी अब
भावशून्य हो गई।
राधा तेरे नृत्य की गति भी
कहीं खो गई।
छोड़ अब ये रास लीला,
प्रेम मनुहार की बातें।
चक्र उठा,
कंस, दु:शासन,दुर्योधनों की
भीड़ भारी हो गई।
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रोशनी की परछाईयां भी राह दिखा जाती हैं
अजीब है इंसान का मन।
कभी गहरे सागर पार उतरता है।
कभी
आकाश की उंचाईयों को
नापता है।
ज़िन्दगी में अक्सर
रोशनी की परछाईयां भी
राह दिखा जाती हैं।
ज़रूरी नहीं
कि सीधे-सीधे
किरणों से टकराओ।
फिर सूरज डूबता है,
या चांद चमकता है,
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
ज़िन्दगी में,
कोई एक पल
तो ऐसा होता है,
जब सागर-तल
और गगन की उंचाईयों का
अन्तर मिट जाता है।
बस!
उस पल को पकड़ना,
और मुट्ठी में बांधना ही
ज़रा कठिन होता है।
*-*-*-*-*-*-*-*-*-
कविता सूद 1.10.2020
चित्र आधारित रचना
यह अनुपम सौन्दर्य
आकर्षित करता है,
एक लम्बी उड़ान के लिए।
रंगों में बहकता है
किसी के प्यार के लिए।
इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है
सौन्दर्य के आख्यान के लिए।
तरू की विशालता
संवरती है बहार के लिए।
दूर-दूर तम फैला शून्य
समझाता है एक संवाद के लिए।
परिदृश्य से झांकती रोशनी
विश्वास देती है एक आस के लिए।
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मन चंचल करती तन्हाईयां
जीवन की धार में
कुछ चमकते पल हैं
कुछ झिलमिलाती रोशनियां
कुछ अवलम्ब हैं
तो कुछ
एकाकीपन की झलकियां
स्मृतियों को संजोये
मन लेता अंगड़ाईयां
मन को विह्वल करती
बहती हैं पुरवाईयां
कुछ ठिठके-ठिठके से पल हैं
कुछ मन चंचल करती तन्हाईयां
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रिश्तों के तो माने हैं
पेड़ सूखे तो क्या
सावन रूठे तो क्या
पत्ते झरे तो क्या
कांटे चुभे तो क्या।
हम भूले नहीं
अपना बसेरा।
लौट लौट कर आयेंगे
बसेरा यहीं बसायेंगे
तुम्हें न छोड़कर जायेंगे।
दु:ख सुख तो आने जाने हैं।
पर रिश्तों के तो माने हैं।
जब तक हैं
तब तक तो
इन्हें निभायेंगे।
बसेरा यहीं बसायेंगे।
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विनम्रता कहां तक
आंधी आई घटा छाई विनम्र घास झुकी, मुस्काई
वृक्षों ने आंधी से लड़ने की आकांक्षा जतलाई
झुकी घास सदा ही तो पैरों तले रौंदी जाती रही
धराशायी वृक्षों ने अपनी जड़ों से फिर एक उंचाई पाई
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स्वर्गिक सौन्दर्य रूप
रूईं के फ़ाहे गिरते थे हम हाथों से सहलाते थे।
वो हाड़ कंपाती सर्दी में बर्फ़ की कुल्फ़ी खाते थे।
रंग-बिरंगी दुनिया श्वेत चादर में छिप जाती थी,
स्वर्गिक सौन्दर्य-रूप, मन आनन्दित कर जाते थे।
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उड़ती चिड़िया के पर गिन लिया करते हैं
सुना है कुछ लोग
उड़ती चिड़िया के
पर गिन लिया करते हैं।
कौन हैं वे लोग
जो उड़ती चिड़िया के
पर गिन लिया करते हैं।
क्या वे
कोई और काम भी करते हैं,
अथवा बस,
उड़ती चिड़िया के
पर ही गिनते रहते हैं।
कौन उड़ा रहा है चिड़िया ?
कितनी चिड़िया उड़ रही हैं ?
जिनके पर गिने जा रहे हैं ?
पहले पकड़ते हैं,
पिंजरे में
पालन-पोषण करते हैं।
लाड़-प्यार जताते हैं।
कुछ पर काट देते हैं,
कि चिड़िया उड़ न जाये।
फिर एक दिन उकता जाते हैं,
और छोड़ देते हैं उसे
आधी-अधूरी उड़ानों के लिए।
फिर अपना अनुभव बखानते हैं,
हम तो उड़ती चिड़िया के
पर गिन लेते हैं।
सच में ही
बहुत गुणी हैं ये लोग।