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कच्ची राहों पर चलना
भूल रहे हैं हम,
धूप की गर्मी से
नहीं जूझ रहे हैं हम।
पैरों तले बिछते हैं
मखमली कालीन,
छू न जाये कहीं
धरा का कोई अंश।
उड़ती मिट्टी पर
लगा दी हैं
कई बंदिशें,
सिर पर तान ली हैं,
बड़ी-बड़ी छतरियां
हवा, पानी, रोशनी से
बच कर निकलने लगे हैं हम।
पानी पर बांध लिए हैं
बड़े-बड़े बांध,
गुज़र जायेंगी गाड़ियां,
ज़रूरत पड़े तो
उड़ा लेंगे विमान,
पर याद नहीं रखते हम
कि ज़िन्दगी
जब उलट-पलट करती है,
एक साथ बिखरता है सब
टूटता है, चुभता है,
हवा,पानी, मिट्टी
सब एकमेक हो जाते हैं
तब समझ में आता है
यह ज़िन्दगी है एक बहाव
और नदी के उस पार
कच्चा रास्ता है।
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चल आज लड़की-लड़की खेलें
चल आज लड़की-लड़की खेलें।
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साल में
तीन सौ पैंसठ दिन।
कुछ तुम्हारे नाम
कुछ हमारे नाम
कुछ इसके नाम
कुछ उसके नाम।
रोज़ सोचना पड़ता है
आज का दिन
किसके नाम?
कुछ झुनझुने लेकर
घूमते हैं हम।
आम से खास बनाने की
चाह लिए
जूझते हैं हम।
समस्याओं से भागते
कुछ नारे
गूंथते हैं हम।
कभी सरकार को कोसते
कभी हालात पर बोलते
नित नये नारे
जोड़ते हैं हम।
हालात को समझते नहीं
खोखले नारों से हटते नहीं
वास्तविकता के धरातल पर
चलते नहीं
सच्चाई को परखते नहीं
ज़िन्दगी को समझते नहीं
उधेड़-बुन में लगे हैं
मन से जुड़ते नहीं
जो करना चाहिए
वह करते नहीं
बस बेचारगी का मज़ा लेते हैं
फिर आनन्द से
अगले दिन पर लिखने के लिए
मचलते हैं।
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परिवर्तन नित्य है
सन्मार्ग पर चलने के लिए रोशनी की बस एक किरण ही काफ़ी है
इरादे नेक हों, तो, राही दो हों न हों, बढ़ते रहें, इतना ही काफ़ी है
सूर्य अस्त होगा, रात आयेगी, तम भी फैलेगा, संगी साथ छोड़ देंगे,
तब भी राह उन्मुक्त है, परिवर्तन नित्य है, इतना जानना ही काफ़ी है
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बजता था डमरू
कहलाते शिव भोले-भाले थे पर गरल उन्होंने पिया था
विषधर उनके आभूषण थे त्रिशूल हाथ में लिया था
भूत-प्रेत संग नरमुण्डों की माला पहने, बजता था डमरू
त्रिनेत्र खोल तीनों लोकों के दुष्टों का संहार उन्होंने किया था
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रोशनियां अब उधार की बात हो गई हैं
रोशनियां
अब उधार की बात हो गई हैं।
कौन किसकी छीन रहा
यह तहकीकात की बात हो गई है।
गगन पर हो
या हो धरा पर
किसने किसका रूप लिया
यह पहचानने की बात हो गई है।
प्रकाश और तम के बीच
जैसे एक
प्रतियोगिता की बात हो गई है।
कौन किस पर कर रहा अधिकार
यह समझने-समझाने की बात हो गई है।
कौन लघु और कौन गुरू
नज़र-नज़र की बात हो गई है।
कौन जीता, कौन हारा
यह विवाद की बात हो गई है।
कौन पहले आया, कौन बाद में
किसने किसको हटाया
यह तकरार की बात हो गई है।
अब आप से क्या छुपाना
अपनी हद से बाहर की बात हो गई है।
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स्वाधीनता हमारे लिए स्वच्छन्दता बन गई
एक स्वाधीनता हमने
अंग्रेज़ो से पाई थी,
उसका रंग लाल था।
पढ़ते हैं कहानियों में,
सुनते हैं गीतों में,
वीरों की कथाएं, शौर्य की गाथाएं।
किसी समूह,
जाति, धर्म से नहीं जुड़े थे,
बेनाम थे वे सब।
बस एक नाम जानते थे
एक आस पालते थे,
आज़ादी आज़ादी और आज़ादी।
तिरंगे के मान के साथ
स्वाधीनता पाई हमने
गौरवशाली हुआ यह देश।
मुक्ति मिली हमें वर्षों की
पराधीनता से।
हम इतने अधीर थे
मानों किसी अबोध बालक के हाथ
जिन्न लग गया हो।
समझ ही नहीं पाये,
कब स्वाधीनता हमारे लिए
स्वच्छन्दता बन गई।
पहले देश टूटा था,
अब सोच बिखरने लगी।
स्वतन्त्रता, आज़ादी और
स्वाधीनता के अर्थ बदल गये।
मुक्ति और स्वायत्तता की कामना लिए
कुछ शब्दों के चक्रव्यूह में फ़ंसे हम,
नवीन अर्थ मढ़ रहे हैं।
भेड़-चाल चल रहे हैं।
आधी-अधूरी जानकारियों के साथ
रोज़ मर रहे हैं और मार रहे हैं।
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वे, जो हर युग में आते थे
वेश और भेष बदल कर,
लगता है वे भी
हार मान बैठ हैं।
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जिन्दगी के अफ़साने
लहरों पर डूबेंगे उतरेंगे, फिर घाट पर मिलेंगे
झंझावात है, भंवर है सब पार कर चलेंगे
मत सोच मन कि साथ दे रहा है कोई या नहीं
बस चलाचल,जिन्दगी के अफ़साने यूं ही बनेंगे
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अस्त होते सूर्य को नमन करें
हार के बाद भी जीत मिलती है
चलो आज हम अस्त होते सूर्य को नमन करें
घूमकर आयेगा, तब रोशनी देगा ही, मनन करें
हार के बाद भी जीत मिलती है यह जान लें,
न डर, बस लक्ष्य साध कर, मन से यत्न करें
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पार जरूर उतरना है
चल रे मन !
आज नैया की सैर कराउं !
पतवारों का क्या करना है।
खेवट को क्या रखना है।
बस अपने मन से तरना है।
डूबेंगें, उतरेंगे।
सीपी शंखों को ढूढेंगे।
मोती माणिक का क्या करना है।
उपर नीचे डोलेगी।
हिचकोले ले लेकर बोलेगी।
चल चल सागर के मध्य चलें।
लहरों संग संग तैर चलें।
पानी में छाया को छूलेंगे।
अपनी शक्लें ढूंढेंगे।
बस इतना ही तो करना है
पार जरूर उतरना है।
चल रे मन !
आज नैया की सैर कराउं !
यह अथाह शांत जलराशि
गगन की व्यापकता
ठहरी-ठहरी सी हवा,
निश्चल, निश्छल-सा समां
दूर कहीं घूमतीं
हल्की हल्की सी बदरिया।
तैरने लगती हूं, डूबने लगती हूं
फिर तरती हूं, दूर तक जाती हूं
फिर लौट लौट आती हूं।
इस सूनेपन में, इक अपनापन है।
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धुआँ- धुआँ ज़िन्दगी
कुछ चेतावनियों के साथ
बेहिचक बिकता है
कोई भी, कहीं भी
पी ले
सुट्टा ले
हवा ले और हवाओं में ज़हर घोले
पूर्ण स्वतन्त्र हैं हम।
शानौ-शौकत का प्रतीक बन जाता है।
कहीं गम भुलाने के लिए
तो कहीं सर-दर्द मिटाने के लिए
कभी दोस्ती के लिए
तो कभी
देखकर मन ललचाता है
कुछ आधुनिक दिखने की चाहत
खींच ले जाती है
एकान्त में, छिपकर
फिर दिखाकर
और बाद में अकड़कर।
और जब तक समझ आता है
तब तक
धुआँ- धुआँ हो चुकी होती है ज़िन्दगी।
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गुरु शिष्य परम्परा
समय के साथ गुरु और शिष्य दोनों की धारणा बदली है और हम इस बदली हुई धारणा एवं व्यवस्था में ही जी रहे हैं। परन्तु पता नहीं क्यों हमें पिष्ट-पेषण में आनन्द मिलता है। आज के गुरुओं की बुराई, शिष्यों के प्रति अनादर भाव हमारी प्रकृति बन गया है। प्राचीन गुरु शिष्य परम्परा निःसंदेह अति उत्तम थी किन्तु काल परिवर्तन के साथ वर्तमान में वह सम्भव ही नहीं है। जो आज है हम उस पर विचार नहीं करते कि उसे और अच्छा कैसे बनाया जा सकता है, प्राचीनता के निरर्थक मोह में वर्तमान को कोसना हमारी आदत बन चुका है। हमारे प्राचीन साहित्य से अच्छा कुछ नहीं, किन्तु वर्तमान में मिल रही शिक्षा का भी अपना महत्व है उसे हम नकार नहीं सकते। समयानुसार आज के गुरु भी समर्पित हैं और शिष्य भी, भेद तो प्राचीन काल में भी रहा है।
तो चलिए आज से वर्तमान में जीने का , उसे समझने का, उसे और बेहतर बनाने का प्रयास करें और पिछले को स्मरण अवश्य रखें, उसका पूरा सम्मान करें किन्तु वर्तमान के सम्मान के साथ।