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छोटे-छोटे घर हैं, छोटे-छोटे सपने
घर के भीतर रहते हैं यहां सब अपने
न ताला-चाबी, न द्वार, न चोर यहां
फूलों से सज्जित, ये घर सुन्दर कितने
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किसने मेरी तक़दीर लिखी
न जाने कौन था वह
जिसने मेरी तक़दीर लिखी
ढूँढ रही हूँ उसे
जिसने मेरी तस्वीर बनाई।
मिले कभी तो पूछूँगी,
किसी जल्दी में थे क्या
आधा-अधूरा लिखा पन्ना
छोड़कर चल दिये।
आधे काॅलम मुझे खाली मिले।
अब बताओ भला
ऐसे कैसे जीऊँ भरपूर ज़िन्दगी।
मिलो तो कभी,
अपनी तक़दीर देना मेरे हाथ
फिर बताऊँगी तुम्हें
कैसे बीतती है ऐसे
आधी-अधूरी ज़िन्दगी।
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आनन्द के कुछ पल
संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।
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किसे अपना समझें किसे पराया
किसे अपना समझें किसे पराया
मन के द्वार पर पहरे लगाकर बैठे हैं आज।
कोई भाव पढ़ न ले, गांठ बांध कर बैठे हैं आज।
किसे अपना समझें, किसे पराया, समझ नहीं,
अपनों को ही पराया समझ कर बैठे हैं आज।
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आशाओं की चमक
मन के गलियारों में रोशनी भी है और अंधेरा भी
कुछ आवाज़ें रात की हैं और कुछ दिखाती सवेरा भी
कभी सूरज चमकता है और कभी लगता है ग्रहण
आशाओं की चमक से टूटता है निराशाओं का घेरा भी
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प्रकृति मुस्काती है
मधुर शब्द
पहली बरसात की
मीठी फुहारों-से होते हैं
मानों हल्के-फुल्के छींटे,
अंजुरियों में
भरती-झरती बूंदें
चेहरे पर रुकती-बहतीं,
पत्तों को रुक-रुक छूतीं
फूलों पर खेलती,
धरा पर भागती-दौड़ती
यहां-वहां मस्ती से झूमती
प्रकृति मुस्काती है
मन आह्लादित होता है।
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हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि काकभुशुण्डि
काकभुशुण्डि की कथा बहुत रोचक है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार इनका जन्म अयोध्या में शूद्र परिवार में हुआ था। ये अनन्य रामभक्त थे। ज्ञानी ऋषि थे, भगवान शिव का मंत्र प्राप्त कर महाज्ञानी बने किन्तु अभिमानी भी। इस अभिमान में उन्होंने अपने गुरु ब्राह्मण का एवं शिव का भी अपमान किया जिस कारण भगवान शिव ने उन्हें सर्प की अधर्म योनि में जाने के श्राप के साथ उपरान्त एक हज़ार योनियों में जन्म लेने का भी श्राप दिया। काकभुशुण्डि के गुरु ने शिव से उन्हें श्राप से मुक्त करने की प्रार्थना की। किन्तु शिव ने कहा कि वे श्रापमुक्त तो नहीं हो सकते किन्तु उन्हें इन जन्म-मरण में कोई कष्ट नहीं होगा, ज्ञान भी नहीं मिटेगा एवं रामभक्ति भी बनी रहेगी। इस तरह इन्हें अन्तिम जन्म ब्राह्मण का मिला। इस जन्म में वे ज्ञान प्राप्ति के लिए लोमश ऋषि के पास गये किन्तु वहां उनके तर्क-वितर्क से कुपित होकर लोमश ऋषि ने उन्हें चाण्डाल पक्षी कौआ बनने का श्राप दे दिया। बाद में लोमश ऋषि को अपने दिये श्राप पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने कौए को वापिस बुलाकर राम-मंत्र दिया और इच्छा मृत्यु का वरदान भी। श्रीराम का मंत्र मिलने पर कौए को अपने इसी रूप से प्यार हो गया और वह कौए के रूप में ही रहने लगा, तभी से उन्हें काकभुशुण्डि नाम से जाना जाने लगा।
वेद और पुराणों के अनुसार काकभुशुण्डि न 11 बार रामायण और 16 बार महाभारत देखीं वह कल्प अर्थात जब तक यह संसार रहेगा वे उसके अन्त तक अपने शाश्वत रूप में जीवित रहेंगे। यह अमरता राम ने ही प्रदान की कि काल भी काकभुशुण्डि को नहीं मार सकता और वे इस कल्प के अन्त तक जीवित रहेंगे। इस शाश्वत आनन्द को काकभुशुण्डि समय यात्रा अर्थात Time Travel कहा जाता है।
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खोज रहा हूं उस नेता को
खोज रहा हूं उस नेता को
हर पांच साल में आता है
एक रोटी का टुकड़ा
एक घर की चाबी लाता है
कुछ नये सपने दिखलाता,
पैसे देने की बातें करता
देश-विदेश घूमकर आता
वेश बदल-बदलकर आता
बड़ी-बड़ी गाड़ी में आता
खूब भीड़ साथ में लाता
रोज़गार का वादा करता
अरबों-खरबों की बातें करता
नारों-हथियारों की बातें करता
जात-पात, धर्म, आरक्षण
का मतलब बतलाता
वोटों का मतलब समझाता
कारड बनवाने की बातें करता
हाथ में परचा थमा कर जाता
बच्चों के गाल बजाकर जाता
बस मैं-मैं-मैं-मैं करता
अच्छी-अच्छी बातें करता
थाली में रोटी आयेगी
लड़की देखो स्कूल जायेगी।
कभी-कभी कहता है
रोटी खाउंगा, पानी पीउंगा।
खाली थाली बजा रहे हैं
ढोल पीटकर बता रहे हैं
पिछले पांच साल से बैठे हैं
अगले पांच साल की आस में।
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उम्र का एक पल और पूरी ज़िन्दगी
पता ही नहीं लगा
उम्र कैसे बीत गई
अरे ! पैंसठ की हो गई मैं।
अच्छा !!
कैसे बीत गये ये पैंसठ वर्ष,
मानों कल की ही घटना हो।
स्मृतियों की छोटी-सी गठरी है
जानती हूं
यदि खोलूंगी, खंगालूंगी
इस तरह बिखरेगी
कि समझने-समेटने में
अगले पैंसठ वर्ष लग जायेंगे।
और यह भी नहीं जानती
हाथ आयेगी रिक्तता
या कोई रस।
और कभी-कभी
ऐसा क्यों होता है
कि उम्र का एक पल
पूरी ज़िन्दगी पर
भारी हो जाता है
और हम
दिन, महीने, साल,
गिनते रह जाते हैं
लगता है मानों
शताब्दियां बीत गईं
और हम
अपने-आपको वहीं खड़ा पाते हैं।
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नारी स्वाधीनता की बात
मैं अक्सर
नारी स्वाधीनता की
बहुत बात करती हूँ।
रूढ़ियों के विरुद्ध
बहुत आलेख लिखती हूँ।
पर अक्सर
यह भी सोचती हूँ
कि समाज और जीवन की
सच्चाई से
हम मुँह तो मोड़ नहीं सकते।
जीवन तो जीवन है
उसकी धार के विपरीत
तो जा नहीं सकते।
वैवाहिक संस्था को हम
नकार तो नहीं सकते।
मानती हूँ मैं
कि नारी-हित में
शिक्षा से बड़ी कोई बात नहीं।
किन्तु परिवार को हम
बेड़ियाँ क्यों मानने लगे हैं
रिश्तों में हम
जकड़न क्यों महसूस करने लगे हैं।
पर्व-त्यौहार
क्यों हमें चुभने लगे हैं,
रीति-रिवाज़ों से क्यों हम
कतराने लगे हैं।
परिवार और शिक्षा
कोई समानान्तर रेखाएँ नहीं।
जीवन का आधार हैं ये
भरा-पूरा संसार हैं ये।
रूढ़ियों को हटायें
हाथ थाम आगे बढ़ाएँ।
जीवन को सरल-सुगम बनाएँ।
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मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई
ज़िन्दगियाँ पानी-पानी हो रहीं
जंग खातीं काली-काली हो रहीं
मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई
चाहें थालियाँ खाली-खाली हो रहीं।