नहीं बनना मुझे नारायणी

लालसा है मेरी

एक ऐसे जीवन की

एक ऐसा जीवन जीने की

जहाँ मैं रहूँ

सदा एक आम इंसान।

नहीं चाहिए

कोई पदवी कोई सम्मान

कोई वन्दन कोई अभिनन्दन।

रिश्तों में बाँध-बाँधकर मुझे

सूली पर चढ़ाते रहते हो।

रिश्ते निभाते-निभाते

जीवन बीत जाता है

पर कहाँ कुछ समझ आता है,

जोड़-तोड़-मोड़ में

सब कुछ उलझा-उलझा-सा

रह जाता है।

शताब्दियों से

एकत्र की गई

सम्मानों की, बलिदान की

एहसान की चुनरियाँ

उढ़ा देते हो मुझे।

इतनी आकांक्षाएँ

इतनी आशाएँ

जता देते हो मुझे।

पूरी नहीं कर पाती मैं

कहीं तो हारती मैं

कहीं तो मन मारती मैं।

अपने मन से कभी

कुछ सोच ही नहीं पाती मैं।

दुर्गा, काली, सीता, राधा, चण्डी,

नारायणी, देवी,

चंदा, चांदनी, रूपमती

झांसी की रानी, पद्मावती

और न जाने क्या-क्या

सब बना डालते हो मुझे।

किन्तु कभी एक नारी की तरह

भी जीने दो मुझे।

नहीं जीतना यह संसार मुझे।

दो रोटी खाकर,

धूप सेंकती,

अपने मन से सोती-जागती

एक आम नारी रहने दो मुझे।

नहीं हूँ मैं नारायणी।

नहीं बनना मुझे नारायणी ।