आशाओं-आकांक्षाओं का जाल

यह असमंजस की स्थिति है

कि जब भी मैं

सिर उठाकर

धरती से

आकाश को

निहारती थी

तब चांद-तारे सब

छोटे-छोटे से दिखाई देते थे

कि जब चाहे मुट्ठी में भर लूं।

दमकते सूर्य को

नज़बट्टू बनाकर

द्वार पर टांग लूं।

लेकिन  यहां धरती पर

आशाओं-आकांक्षाओं का जाल

निराकार होते हुए भी

इतना बड़ा है  

कि न मुट्ठी में आता है

न हृदय में समाता है।

चाहतें बड़ी-बड़ी

विशालकाय

आकाश में भी न समायें।

मन, छोटा-सा

ज़रा-ज़रा-सी बात पर

बड़ा-सा ललचाए।

खुली मुट्ठी बन्द नहीं होती

और बन्द हो जाये

तो खुलती नहीं,

दरकता है सब।

छूटता है सब।

टूटता है सब।

आकाश और धरती के बीच का रास्ता

बहुत लम्बा है

और अनजाना भी

और शायद अकेला भी।

 

खुली-बन्द होती मुट्ठियों के बीच

बस

रह जाता है आवागमन।