यह भावुकता

कहां है अपना वश !

कब के रूके

कहां बह निकलेगें

पता नहीं।

चोट कहीं खाई थी,

जख्म कहीं था,

और किसी और के आगे

बिखर गये।

 

सबने अपना अपना

अर्थ निकाल लिया।

अब

क्या समझाएं

किस-किसको

क्या-क्या बताएं।

तह-दर-तह

बूंद-बूंद

बनती रहती हैं गांठें

काल की गति में

कुछ उलझी, कुछ सुलझी

और कुछ रिसती

 

बस यूं ही कह बैठी,

जानती हूं वैसे

तुम्हारी समझ से बाहर है

यह भावुकता !!!