बाहर निकलना चाहती हूं

निकाल फेंकना चाहती हूं मन की फांस को।

बाहर निकलना चाहती हूं

स्मृतियों के जाल से, जंजाल से

जो जीने नहीं देतीं मुझे अपने आज में।

पर ये कैसी दुविधा है

कि लौट लौटकर झांकती हूं

मन की दरारों में, किवाड़ों में।

जहां अतीत के घाव रिसते हैं

जिनसे बचना चाहती हूं मैं।

एक अदृश्य अभेद्य संसार है मेरे भीतर

जिसे बार बार छू लेती हूं

अनजाने में ही।

खंगालने लगती हूं अतीत की गठरियां

हाथ रक्त रंजित हो जाते हैं

स्मृतियों के दंश देह को निष्प्राण कर देते हैं

फिर एक मकड़जाल

मेरे मन मस्तिष्क को कुंठित कर देता है

और मैं उलझनों में उलझी

न वर्तमान में जी पाती हूं

और  न अतीत को नकार पाती हूं।।।।।।।