बूंद-बूंद से घट भरता था

जिन ढूंढा तिन पाईया

गहरे पानी पैठ,

बात पुरानी हो गई।

आंख में अब

पानी कहां रहा।

मन की सीप फूट गई।

दिल-सागर-नदिया

उथले-उथले हो गये।

तलछट में क्या ढूंढ रहे।

बूंद-बूंद से घट भरता था।

जब सीपी पर गिरती थी,

तब माणिक-मोती ढलता था।

अब ये कैसा मन है

या तो सब वीराना

सूखा-सूखा-सा रहता है,

और जब मन में

कुछ फंसता है,

तो अतिवृष्टि

सब साथ बहा ले जाती है,

कुछ भी तो नहीं बचता है।