कभी गोल हुआ करता था पैसा

कभी गोल हुआ करता था पैसा

इसलिए कहा जाता था

टिकता नहीं किसी के पास।

पता नहीं

कब लुढ़क जाये,

और हाथ ही न आये।

फिर खन-खन भी करता था पैसा।

भरी और भारी रहती थीं

जेबें और पोटलियां।

बचपन में हम

पैसों का ढेर देखा करते थे,

और अलग-अलग पैसों की

ढेरियां बनाया करते थे।

घर से एक पैसा मिलता था

स्कूल जाते समय।

जिस दिन पांच या दस पैसे मिलते थे,

हमारे अंदाज़ शाही हुआ करते थे।

लेकिन अब कहां रह गये वे दिन,

जब पैसों से आदमी

शाह हुआ करता था।

अब तो कागज़ से सरक कर

एक कार्ड में पसर कर

रह गया है पैसा।

वह आनन्द कहां

जो रेज़गारी गिनने में आता था।

तुम क्या समझोगे बाबू!!!