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आजकल हम
एक अंगुली से
एक मशीन पर
टीका करते हैं,
किसी की
कुर्सी खिसक जाती है,
किसी की टिक जाती है।
कभी सरकारें गिर जाती हैं,
कभी खड़ी हो जाती हैं।
हम हतप्रभ से
देखते रह जाते हैं,
हमने तो किसी और को
टीका किया था,
अभिषेक
किसी और का चल रहा है।
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कर्मनिष्ठ जीवन तो जीना होगा
ये कैसा रंगरूप अब तुम ओढ़कर चले हो,
क्यों तुम दुनिया से यूं मुंह मोड़कर चले हो,
कर्मनिष्ठ-जीवन में विपदाओं से जूझना होगा,
त्याग के नाम पर कौन से सफ़र पर चले हो।
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आने वाला कल
अपने आज से परेशान हैं हम।
क्या उपलब्धियां हैं
हमारे पास अपने आज की,
जिन पर
गर्वोन्नत हो सकें हम।
और कहें
बदलेगा आने वाला कल।
.
कैसे बदलेगा
आने वाला कल,
.
डरे-डरे-से जीते हैं।
सच बोलने से कतराते हैं।
अन्याय का
विरोध करने से डरते हैं।
भ्रमजाल में जीते हैं -
आने वाला कल अच्छा होगा !
सही-गलत की
पहचान खो बैठे हैं हम,
बनी-बनाई लीक पर
चलने लगे हैं हम।
राहों को परखते नहीं।
बरसात में घर से निकलते नहीं।
बादलों को दोष देते हैं।
सूरज पर आरोप लगाते हैं,
चांद को घटते-बढ़ते देख
नाराज़ होते हैं।
और इस तरह
वास्तविकता से भागने का रास्ता
ढूंढ लेते हैं।
-
तो
कैसे बदलेगा आने वाला कल ?
क्योंकि
आज ही की तो
प्रतिच्छाया होता है
आने वाला कल।
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बंधनों का विरोध कर
जीवन बड़ा सरल सहज अपना-सा हो जाता है
रूढ़ियों के प्रतिकार का जब साहस आ जाता है
डरते रहते हैं हम यूं ही समाज की बातों से
बंधनों का विरोध कर मन तुष्टि पा जाता है
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मेरा घर जलाता कौन है
घर में भी अब नहीं सुरक्षित, विचलित मन को यह बात बताता कौन है,
भीड़-तन्त्र हावी हो रहा, कानून की तो बात यहं अब समझाता कौन है,
कौन है अपना, कौन पराया, कब क्या होगा, कब कौन मिटेगा, पता नहीं
यू तो सब अपने हैं, अपने-से लगते हैं, फिर मेरा घर जलाता कौन है।
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बूंद-बूंद से घट भरता था
जिन ढूंढा तिन पाईया
गहरे पानी पैठ,
बात पुरानी हो गई।
आंख में अब
पानी कहां रहा।
मन की सीप फूट गई।
दिल-सागर-नदिया
उथले-उथले हो गये।
तलछट में क्या ढूंढ रहे।
बूंद-बूंद से घट भरता था।
जब सीपी पर गिरती थी,
तब माणिक-मोती ढलता था।
अब ये कैसा मन है
या तो सब वीराना
सूखा-सूखा-सा रहता है,
और जब मन में
कुछ फंसता है,
तो अतिवृष्टि
सब साथ बहा ले जाती है,
कुछ भी तो नहीं बचता है।
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प्रेम-प्यार की बात न करना
प्रेम-प्यार की बात न करना,
घृणा के बीज हम बो रहे हैं।
.
सम्बन्धों का मान नहीं अब,
दीवारें हम अब चिन रहे हैं।
.
काले-गोरे की बात चल रही,
चेहरों को रंगों से पोत रहे हैं ।
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अमीर-गरीब की बात कर रहे,
पैसे से दुनिया को तोल रहे हैं ।अ
.
कौन है सच्चा, कौन है झूठा,
बिन जाने हम कोस रहे हैं।
.
पढ़ना-लिखना बात पुरानी
सुनी-सुनाई पर चल रहे हैं।
.
सर्वधर्म समभाव भूल गये,
भेद-भाव हम ढो रहे हैं।
.
अपने-अपने रूप चुन लिए,
किस्से रोज़ नये बुन रहे हैं।
-
राजनीति का ज्ञान नहीं है
चर्चा में हम लगे हुए हैं।
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दो चाय पिला दो
प्रात की नींद से न अच्छा समय कोई
दो चाय पिला दो आपसे अच्छा न कोई
मोबाईल की टन-टन न हमें जगा पाये
कुम्भकरण से कम न जाने हमें कोई
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इक नल लगवा दे भैया
कहां है अब पनघट
कहां है अब कृष्ण कन्हैया
क्यो इन सबमें
अब उलझा है मन दैया
इतना ही है तू
कृष्ण कन्हैया
तो मेरे घर में
इक नल लगवा दे भैया।
युग बदल गया
तू भी अपना यह वेश बदल,
न छेड़ बैठना किसी को
गोपी समझ के
कारागार के द्वार खुले हैं दैया।
गीत-संगीत सब बदल गये
रास-बिहारी खिसक गये
ढोल की ताल अब बहक गई
रास-बिहारी चले गये
किचन में कितना काम पड़ा है मैया
इतना ही है तू
कृष्ण कन्हैया
तो अपनी अंगुली से
मेरे घर के सारे काम
करवा दे रे भैया।
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एक मानवता को बसाने में
ये धुएँ का गुबार
और चमकती रोशनियाँ
पीढ़ियों को लील जाती हैं
अपना-पराया नहीं पहचानतीं
बस विध्वंस को जानती हैं।
किसी गोलमेज़ पर
चर्चा अधूरी रह जाती है
और परिणामस्वरूप
धमाके होने लगते हैं
बम फटने लगते हैं
लोग सड़कों-राहों पर
मरने लगते हैं।
क्यों, कैसे, किसलिए
कुछ नहीं होता।
शताब्दियाँ लग जाती हैं
एक मानवता को बसाने में
और पल लगता है
उसको उजाड़ कर चले जाने में।
फिर मलबों के ढेर में
खोजते हैं
इंसान और इंसानियत,
कुछ रुपये फेंकते हैं
उनके मुँह पर
ज़हरीले आंसुओं से सींचते हैं
उनके घावों को
बदले की आग में झोंकते हैं
उनकी मानसिकता को
और फिर एक
गोलमेज़ सजाने लगते हैं।
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अपनी पहचान की तलाश
नाम ढूँढती हूँ पहचान पूछती हूँ ।
मैं कौन हूँ बस अपनी आवाज ढूँढती हूँ ।
प्रमाणपत्र जाँचती हूँ
पहचान पत्र तलाशती हूँ
जन्मपत्री देखती हूँ
जन्म प्रमाणपत्र मांगती हूँ
बस अपना नाम मांगती हूँ।
परेशान घूमती हूँ
पूछती हूँ सब से
बस अपनी पहचान मांगती हूं।
खिलखिलाते हैं सब
अरे ! ये कमला की छुटकी
कमली हो गई है।
नाम ढूँढती है, पहचान ढूँढती है
अपनी आवाज ढूँढती है।
अरे ! सब जानते हैं
सब पहचानते हैं
नाम जानते हैं।
कमला की बिटिया, वकील की छोरी
विन्नी बिन्नी की बहना,
हेमू की पत्नी, देवकी की बहू,
और मिठू की अम्मा ।
इतने नाम इतनी पहचान।
फिर भी !
परेशान घूमती है, पहचान पूछती है
नाम मांगती है, आवाज़ मांगती है।
मैं पूछती हूं
फिर ये कविता कौन है
कौन है यह कविता ?
बौखलाई, बौराई घूमती हूं
नाम पूछती हूं, अपनी आवाज ढूँढती हूं
अपनी पहचान मांगती हूं
अपना नाम मांगती हूं।