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पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं
जो दुनिया तो जाने थी पर मन था छुपाए
पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें
न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं
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घुमक्कड़ हो गया है मन
घुमक्कड़ हो गया है मन
बिन पूछे बिन जाने
न जाने
निकल जाता है कहां कहां।
रोकती हूं, समझाती हूं
बिठाती हूं , डराती हूं, सुलाती हूं।
पर सुनता नहीं।
भटकता है, इधर उधर अटकता है।
न जाने किस किस से जाकर लग जाता है।
फिर लौट कर
छोटी छोटी बात पर
अपने से ही उलझता है।
सुलगता है।
ज्वालामुखी सा भभकता है।
फिर लावा बहता है आंखों से।
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अन्तस में हैं सारी बातें
पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं
जो दुनिया तो जाने थी पर मन था छुपाए
पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें
न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं
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बड़ा मुश्किल है Very Difficult
बड़ा मुश्किल है नाम कमाना
मेहनत का फल किसने जाना
बाधाएँ आती हैं आनी ही हैं
किसने राहें रोकी, भूल जाना
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बेकरार दिल
दिल हो रहा बड़ा बेकरार
बारिश हो रही मूसलाधार
भीग लें जी भरकर आज
न रोक पाये हमें तेज़ बौछार
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किस शती में जी रहे हैं हम
एक छात्रा के साथ हुई मेरी बातचीत, आपके समक्ष शब्दशः प्रस्तुत
******************-****************-***
जैसा कि आप जानते हैं मैं एक विद्यालय में कार्यरत हूं। एक छात्रा 12 वीं का प्रमाणपत्र लेने के लिए आई तो मैंने देखा] उसकी फ़ाईल में पासपोर्ट है। मैंने उत्सुकतावश पूछा, उच्च शिक्षा के लिए कहां जा रही हा,े और कौन से क्षेत्र में।
उसका उत्तर थाः चीन, एम. बी. बी. एस, एम. डी और एक और डिग्री बताई उसने, कि दस वर्ष की शैक्षणिक अवधि है। मैं चकित।
चीन? क्यों कोई और देश नहीं मिला, क्योंकि इससे पूर्व मैं नहीं जानती थी कि उच्च शिक्षा के लिए हमारे देश के विद्यार्थी चीन को भी चुन रहे हैं।
चीन ही क्यों? उसका सरल सा उत्तर था कि वहां पढ़ाई बहुत सस्ती है, विश्व के प्रत्येक देश से सस्ती। मात्र तीस लाख में पूरा कोर्स होगा।
मात्र तीस लाख उसने ऐसे कहा जैसे हम बचपन में तीन पैसे फीस दिया करते थे। अच्छा मात्र तीस लाख?
भारत में इसकी फीस कितनी है ?
उसने अर्द्धसरकारी एवं निजी संस्थानों की जो फीस बताई वह सुनकर अभी भी मेरी नींद उड़ी हुई है। उसका कथन था कि पंजाब में साधारण से मैडिकल कालेज की फीस भी लगभग डेढ़ करोड़ तक चली जाती है। मुझे लगा मैं ही अभी अट्ठाहरवीं शताब्दी की प्राणी हूं।
वह स्वयं भी कही आहत थी। उसने आगे जानकारी दी।
दो बहनें। एक का विवाह पिछले ही वर्ष हुआ जो कि आई टी सी में कार्यरत थी, किन्तु ससुराल वालों के कहने पर विवाह-पूर्व ही नौकरी छोड़ दी। किन्तु यह वादा किया कि विवाह के बाद उसी शहर में कोई और नौकरी करना चाहे तो कर लेगी। किन्तु जब उसका बैंक में चयन हो गया तो उसे नौकरी की अनुमति नहीं दी जा रही कि घर में किस बात की कमी है जो नौकरी करनी है। इतना उसके विवाह पर खर्च हुआ फिर भी खुश नहीं हैं।
कितना ?
60 लाख।
तो तुम्हारी शादी के लिए भी है?
हां है।
और तुम डाक्टर बन कर लौटी और तुम्हें भी काम नहीं करने दिया गया तो?
वह निरूत्तर थी।
मैंने उससे खुलकर एक प्रश्न किया कि जब तुम्हारी जाति में इतना दहेज लिया जाता है, तो बाहर विवाह क्यों नहीं हो सकते।
नहीं परिवार के सम्मान की बात है। जाति से बाहर विवाह नहीं कर सकते। प्रेम&विवाह भी नहीं , समाज में परिवार का मान नहीं रहता। परिवार बहिष्कृत हो जाते हैं।
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चोट दिल पर लगती है
चोट दिल पर लगती है
आंसू आंख से बहते हैं
दर्द जिगर में होता है
बात चेहरा बोलता है
आघात कहीं पर होता है
घाव कहीं पर बनता है
जख्म शब्दों के होते हैं
बदला कलम ले लेती है
दूर रहना ज़रा मुझसे
चोट गहरी हो तो
प्रतिघात घातक होता है।
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यह ज़िन्दगी है
यह ज़िन्दगी है,
भीड़ है, रेल-पेल है ।
जाने-अनजाने लोगों के बीच ,
बीतता सफ़र है ।
कभी अपने पराये-से,
और कभी पराये
अपने-से हो जाते हैं।
दुख-सुख के ठहराव ,
कभी छोटे, कभी बड़े पड़ाव,
कभी धूप कभी बरसात ।
बोझे-सी लदी जि़न्दगी,
कभी जगह बन पाती है
कभी नहीं।
कभी छूटता सामान
कभी खुलती गठरियां ।
अन्तहीन पटरियों से सपनों का जाल ।
दूर कहीं दूर पटरियों पर
बेटिकट दौड़ती-सी ज़िन्दगी ।
मिल गई जगह तो ठीक,
नहीं तो खड़े-खड़े ही,
बीतती है ज़िन्दगी ।
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ज़िन्दगी कहीं सस्ती तो नहीं
बहुत कही जाती है एक बात
कि जब
रिश्तों में गांठें पड़ती हैं,
नहीं आसान होता
उन्हें खोलना, सुलझाना।
कुछ न कुछ निशान तो
छोड़ ही जाती हैं।
लेकिन सच कहूं
मुझे अक्सर लगता है,
जीवन में
कुछ बातों में
गांठ बांधना भी
ज़रूरी होता है।
टूटी डोर को भी
हम यूं ही नहीं जाने देते
गांठे मार-मारकर
सम्हालते हैं,
जब तक सम्हल सके।
ज़िन्दगी कहीं
उससे सस्ती तो नहीं,
फिर क्यों नहीं कोशिश करते,
यहां भी कभी-कभार,
या बार-बार।
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हिन्दी के प्रति
शिक्षा
अब ज्ञान के लिये नहीं
लाभ के लिए
अर्जित की जाती है,
और हिन्दी में
न तो ज्ञान दिखाई देता है
और न ही लाभ।
बस बोलचाल की
भाषा बनकर रह गई है,
कहीं अंग्रेज़ी हिन्दी में
और कहीं हिन्दी
अंग्रेज़ी में ढल गई है।
कुछ पुरस्कारों, दिवसों,
कार्यक्रमों की मोहताज
बन कर रह गई है।
बात तो बहुत करते हैं हम
हिन्दी चाहिए, हिन्दी चाहिए
किन्तु
कभी आन्दोलन नहीं करते
दसवीं के बाद
क्यों नहीं
अनिवार्य पढ़ाई जाती है हिन्दी।
प्रदूषित भाषा को
चुपचाप पचा जाते हैं हम।
सरलता के नाम पर
कुछ भी डकार जाते हैं हम।
गूगल अनुवादक लगाकर
हिन्दी लेखक होने का
गर्व पालते हैं हम।
प्रचार करते हैं
वैज्ञानिक भाषा होने का,
किन्तु लेखन और उच्चारण के
बीच के सम्बन्ध को
तोड़ जाते हैं हम।
कंधों पर उठाये घूम रहे हैं
अवधूत की तरह।
दफ़ना देते हैं
अपराधी की तरह।
और बेताल की तरह,
हर बार
वृक्ष पर लटक जाते हैं
कुछ प्रश्न अनुत्तरित।
हर वर्ष, इसी दिन
चादर बिछाकर
जितनी उगाही हो सके
कर लेते हैं
फिर वृक्ष पर टंग जाता है बेताल
अगली उगाही की प्रतीक्षा में।
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हमारे भीतर ही बसता है वह
कहां रूपाकार पहचान पाते हैं हम
कहां समझ पाते हैं
उसका नाम,
नहीं पहचानते,
कब आ जाता है सामने
बेनाम।
उपासना करते रह जाते हैं
मन्दिरों की घंटियां
घनघनाते रह जाते हैं
नवाते हैं सिर
करते हैं दण्डवत प्रणाम।
हर दिन
किसी नये रूप को आकार देते हैं
नये-नये नाम देते हैं,
पुकारते हैं
आह्वान करते हैं,
पर नहीं मिलता,
नहीं देता दिखाई।
पर हम ही
समझ नहीं पाये आज तक
कि वह
सुनता है सबकी,
बिना किसी आडम्बर के।
घूमता है हमारे आस-पास
अनेक रूपों में, चेहरों में
अपने-परायों में।
थाम रखा है हाथ
बस हम ही समझ नहीं पाते
कि कहीं
हमारे भीतर ही बसता है वह।