चिड़िया ने कहानी सुनाई

 

 अरे,

एक–एक कर बोलो।

थक-हार कर आई हूं,

दाना-पानी लाई हूं,

कहां-कहां से आई हूं।

 

तुमको रोज़ कहानी चाहिए।

दुनिया की रवानी चाहिए।

अब तुमको क्या बतलाउं मैं

सुन्दर है यह दुनिया

बस लोग बहुत हैं।

रहने को हैं घर बनाते

जैसे हम अपना नीड़ सजाते।

उनके भी बच्चे हैं

छोटे-छोटे

वे भी यूं ही चिन्ता करते,

जब भी घर से बाहर जाते।

प्रेम, नेह , ममता लुटाते।

वे भी अपना कर्त्तव्य निभाते।

 

रूको, रूको, बतलाती हूं

अन्तर क्या है।

आशाओं, अभिलाषाओं का अन्त नहीं है।

जीने का कोई ढंग नहीं है।

भागम-भाग पड़ी है।

और चाहिए, और चाहिए।

बस यूं ही मार-काट पड़ी है।

घर-संसार भरा-पूरा है,

तो भी लूट-खसोट पड़ी है।

उड़ते हैं, चलते हैं, गिरते हैं,

मरते हैं

पता नहीं क्या क्या करते है।

 

चाहतें हैं कि बढ़ती जातीं।

बच्चों पर भी डाली जातीं।

बचपन मानों बोझ बना

मां-पिता की इच्छाओं का संसार घना।

अब क्या –क्या बतलाउं मैं।

आज बस इतना ही,

दाना लो और पिओ 

जी भरकर विश्राम करो।

बस इतना ही जानो कि

इन तिनकों, पत्तों में,

रूखे-सूखे चुग्गे में,

बूंद-बूंद पानी में,

अपनी इस छोटी सी कहानी में,

जीवन में आनन्द भरा है।

 

उड़ना तुमको सिखलाती हूं।

बस इतना ही बतलाती हूं।

पंख पसारे

उड़ जाना तुम,

अपनी दुनिया में रहना तुम।

अपना कर्त्तव्य निभाना तुम।

अगली पीढ़ी को

अपने पंखों पर उड़ना सिखलाना तुम।