मान-सम्मान की आस में

मान-सम्मान की आस में सौ-सौ ग्रंथ लिखकर हम बन-बैठे “कविगण”

स्वयं मंच-सज्जा कर, सौ-सौ बार, करवा रहे इनका नित्य-प्रति विमोचन

नेता हो या अभिनेता, ज्ञानी हो या अज्ञानी कोई फ़र्क नहीं पड़ता

छायाचित्र छप जायें, समाचारों में नाम देखने को तरसें हमरे लोचन

प्रकृति है जीवन सौन्दर्य

 

रक्त पीत वर्ण में बासंती बयार फ़लक है।

आकर्षित करता तुम्हारा रूप दृष्टि ललक है।

न जाने कब छा जायें घटाएं, बदले मौसम,

जीवन के सौन्दर्य की यह बस एक झलक है।

प्रेम की एक नवीन धारा

हां, प्रेम सच्चा रहे,

 

हां , प्रेम सच्चा रहे,

हर मुस्कुराहट में

हर आहट में

रूदन में या स्मित में

प्रेम की धारा बही

मन की शुष्क भूमि पर

प्रेम-रस की

एक नवीन छाया पड़ी।

पल-पल मानांे बोलता है

हर पल नवरस घोलता है

एक संगीत गूंजता है

हास की वाणी बोलता है

दूरियां सिमटने लगीं

आहटें मिटने लगीं

सबका मन

प्रेम की बोली बोलता है

दिन-रात का भान न रहा

दिन में भी

चंदा चांदनी बिखेरने लगा

टिमटिमाने लगे तारे

रवि रात में भी घाम देने लगा

इन पलों का एहसास

शब्दातीत होने लगा

बस इतना ही

हां, प्रेम सच्चा रहे

हां, प्रेम सच्चा लगे

 

न छूट रहे लगाव थे

कुछ कहे-अनकहे भाव थे।

कुछ पंख लगे चाव थे।

कुछ शब्दों के साथ थे।

कुछ मिट गये लगाव थे।

कुछ को शब्द मिले थे।

कुछ सूख गये रिसाव थे।

आधी नींद में देखे

कुछ बिखरे-बिखरे ख्वाब थे।

नहीं पलटती अब मैं पन्ने,

नहीं संवारती पृष्ठ।

कहीं धूल जमी,

कहीं स्याही बिखरी।

किसी पुरानी-फ़टी किताब-से,

न छूट रहे लगाव थे।

कितनी मनोहारी है जि़न्‍दगी

प्रतिदित प्रात नये रंग-रूप में खिलती है जि़न्‍दगी

हरी-भरी वाटिका-सी देखो रोज़ महकती है जि़न्‍दगी

कभी फूल खिेले, कभी फूल झरे, रंगों से धरा सजी

ज़रा आंख खोलकर देख, कितनी मनोहारी है जि़न्‍दगी

बहुत आनन्द आता है मुझे

बहुत आनन्द आता है मुझे

जब लोग कहते हैं

सब ऊपर वाले की मर्ज़ी।

बहुत आनन्द आता है मुझे

जब लोग कहते हैं

कर्म कर, फल की चिन्ता मत कर।

बहुत आनन्द आता है मुझे

जब लोग कहते हैं

यह तो मेरे परिश्रम का फल है।

बहुत आनन्द आता है मुझे

जब लोग कर्मों का हिसाब करते हैं

और कहते हैं कि मुझे

कर्मानुसार मान नहीं मिला।

कहते हैं यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई।

कर्मों का लेखा-जोखा

अच्छा-बुरा सब लिखकर भेजा है।

.

आपको नहीं लगता

हम अपनी ही बात में बात

बात में बात कर-करके

और अपनी ही बात

काट-काटकर

अकारण ही

परेशान होते रहते हैं।

-

लेकिन मुझे

बहुत आनन्द आता है।

 

 

नभ से झरते रंगों में

पत्तों पर बूंदें टिकती हैं कोने में रूकती हैं,  फिर गिरती हैं

मानों रूक-रूक कर कुछ सोच रही, फिर आगे बढ़ती हैं

नभ से झरते रंगों की रंगीनियों में सज-धज कर बैठी हैं ज्‍यों

पल-भर में आती हैं, जाती हैं, मैं ढूंढ रही, कहां खो जाती हैं

बालपन की स्मृतियाँ

५०-५५ वर्ष पुरानी स्‍म़ृतियां मानस-पटल पर उभर कर आ गईं।

उसे चोरी कहते ही नहीं जो पकड़ी जाये। हम तो इतने होशियार थे कि कभी चोरी पकड़ी ही नहीं गई।

सस्‍ते का युग था। बाज़ार से छोटा-मोटा सामान हम बहनें ही लाया करती थीं। एक से पांच रूपये तक में न जाने कितना सामान आ जाता था। दस-बीस पैसे तो अक्‍सर मैं छुपा ही लिया करती थी। अब छुपायें तो छुपायें कहां। प्रवेश द्वार के बाद बरामदा था और उसमें पुस्‍तकों की अलमारियां थीं, वहां मैंने एक पुस्‍तक उपर के खाने में निर्धारित कर ली थी जिसके उपर मैं वह पैसे रख देती थी, और स्‍कूल जाते समय चुपके निकाल लेती थी। आप सोचेंगे, उन पांच-दस पैसों का क्‍या करते होंगे, दस पैसे के बीस गोलगप्‍पे आते थे और पांच पैसे का चूरण, गोलियां, अथवा दो-तीन नाशपाती, खट्टा (गलगल) आदि।

स्‍कूल तो पैदल ही आते-जाते थे, एक घंटे का रास्‍ता था। अब घर से स्‍कूल तो कोई पहुंचने से रहा। वह युग पी.टी.एम. वाला युग भी नहीं था कि कोई सच-झूठ का पता लगा पाता।  स्‍कूल से फूलों के पौधे बहुत चुराया करती थी। घर के बाहर बड़ा सा मैदान था, उसमें क्‍यारियां बनाकर लगाते थे। मां पूछती थी कहां से लाये, कह देते थे स्‍कूल से माली  से ले लिए। और राह-भर में पेड़ों से तोड़-तोड़कर अलूचे, पलम, कैंथ खुरमानी तो बहुत खाये हैं, उस खट्टे-मीठे स्‍वाद का तो कहना ही क्‍या।

आज नहीं सोच पाते कि उस समय जो किया वह सही था अथवा गलत, किन्‍तु जो था यही सत्‍य था, आज प्रकट कर अच्‍छा लगा।

 

रिश्तों के तो माने हैं

पेड़ सूखे तो क्या

सावन रूठे तो क्या

पत्ते झरे तो क्या

कांटे चुभे तो क्या।

हम भूले नहीं

अपना बसेरा।

लौट लौट कर आयेंगे

बसेरा यहीं बसायेंगे

तुम्हें न छोड़कर जायेंगे।

दु:ख सुख तो आने जाने हैं।

पर रिश्तों के तो माने हैं।

जब तक हैं

तब तक तो

इन्हें निभायेंगे।

बसेरा यहीं बसायेंगे।

कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है

आंखें बोलती हैं

कहां पढ़ पाते हैं हम

कुछ किस्से  खोलती हैं

कहां समझ पाते हैं हम

किसी की मानवता जागी

किसी की ममता उठ बैठी

पल भर के लिए

मन हुआ द्रवित

भूख से बिलखते बच्चे

बेसहारा अनाथ

चल आज इनको रोटी डालें

दो कपड़े पुराने साथ।

फिर भूल गये हम

इनका कोई सपना होगा

या इनका कोई अपना होगा,

कहां रहे, क्या कह रहे

क्यों ऐसे हाल में है

हमारी एक पीढ़ी

कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है

किस पर डालें दोष

किस पर जड़ दें आरोप

इस चर्चा में दिन बीत गया !!

 

सांझ हुई

अपनी आंखों के सपने जागे

मित्रों की महफ़िल जमी

कुछ गीत बजे, कुछ जाम भरे

सौ-सौ पकवान सजे

जूठन से पंडाल भरा

अनायास मन भर आया

दया-भाव मन पर छाया

उन आंखों का सपना भागा आया

जूठन के ढेर बनाये

उन आंखों में सपने जगाये

भर-भर उनको खूब खिलाये

एक सुन्दर-सा चित्र बनाया

फे़सबुक पर खूब सजाया

चर्चा का माहौल बनाया

अगले चुनाव में खड़े हो रहे हम

आप सबको अभी से करते हैं नमन

एक नाम और एक रूप हो

एक नाम और एक रूप हो

मन्दिर-मन्दिर घूम रही मैं।

भगवानों को ढूंढ रही मैं।

इसको, उसको, पूछ रही मैं।

कहां-कहां नहीं घूम रही मैं।

तू पालक, तू जगत-नियन्ता

तेरा राज्य ढूंढ रही मैं।

तू ही कर्ता, तू ही नियामक,

उलट-फेर न समझ रही मैं।

नामों की सूची है लम्बी,

किसको पूछूं, किसको पकड़ूं

दिन-भर कितना सोच रही मैं।

रूप हैं इतने, भाव हैं इतने,

किसको पूजूं, परख रही मैं।

सुनती हूं मैं, तू सुनता सबकी,

मेरी भी इक ले सुन,

एक नाम और एक रूप हो,

सबके मन में एक भाव हो,

दुनिया सारी तुझको पूजे,

न हो झगड़ा, न हो दंगा,

अपनी छोटी बुद्धि से

बस इतना ही सोच रही मैं।

 

 

नियति

जन्म होता है

मरने के लिए।

लड़कियां भी

जन्म लेती हैं

मरने के लिए।

अर्थात्

जन्म लेकर

मरना है

हर लड़की को।

फिर, जब

मरना तय है

तो क्या फ़र्क पड़ता है

कि वह

किस तरह मरे।

कल की मरती

आज मरे।

कल का क्लेश

आज कटे।

जलकर मरे

या डूबकर मरे।

या पैदा होने से

पहले ही मरे।

जब जन्म होता ही

मरने के लिए है

तो जल्दी जल्दी मरे।

ले जीवन का आनन्द

सपनों की सीढ़ी तानी

चलें गगन की ओर

लहराती बदरियां

सागर की लहरियां

चंदा की चांदनी

करती उच्छृंखल मन।

लरजती डालियों से

झांकती हैं रोशनियां

कहती हैं

ले जीवन का आनन्द।

 

देखो किसके कितने ठाठ

एक-दो-तीन-चार

पांच-छः-सात-आठ

देखो किसके कितने ठाठ

इसको रोटी, उसको दूध

किसी को पानी

किसी को भूख

किसकी कितनी हिम्मत

देखें आज

देखो तुम सब

हमरे ठाठ

किके्रट टीम तो बनी नहीं

किस खेल में होते आठ

अपनी टीम बनाएंगे

मौज खूब उड़ायेंगे

सस्ते में सब निपटायेंगे

पढ़ना-लिखना हुआ है मंहगा

बना ले घर में ही टीम

पढ़ोगे-लिखोगे होंगे खराब

खेलोगे-कूदोगे बनोगे नवाब

 

शक्ल हमारी अच्छी है

शक्ल हमारी अच्छी है, बस अपनी नज़र बदल लो तुम।

अक्ल हमारी अच्छी है, बस अपनी समझ बदल लो तुम।

जानते हो, पर न जाने क्यों न मानते हो, हम अच्छे हैं,

मित्रता हमारी अच्छी है, बस अपनी अकड़ बदल लो तुम।

 

जीवन और परिवर्तन

परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, जिस पर मनुष्य का नियन्त्रण नहीं।  मानव कितना ही शक्तिशाली हो जाये, प्रकृति में नित्य प्रति आने वाले परिवर्तन पर नियन्त्रण नहीं कर सकता। शीत को ग्रीष्म में और ग्रीष्म को शिशिर में नहीं बदल सकता।

वास्तव में परिवर्तन विकास, चेतना, चिन्तन का प्रतीक है। परिवर्तन हमारी इच्छाओं, कामनाओं, लालसाओं का दूसरा नाम है।  जिस दिन परिवर्तन रुक जायेगा, उस दिन मानवता भी ठहर जायेगी। हम कह सकते हैं कि परिवर्तन विकास का ही दूसरा नाम है।

एक परिवर्तन सहज-स्वाभाविक है और दूसरा परिवर्तन सप्रयास। परिवर्तन प्रायः आवश्यकता आधारित होता है और अब आवश्यकताएँ लगभग पूर्ण होने लगती हैं तब लालसा एवं प्रदर्शन के कारण भी हम जीवन में परिवर्तन करने लगते हैं।

मनुष्य की चेतना उसकी सर्वोत्तम उपलब्धि तथा अन्य सभी गुणों का आधार है। यह व्यक्ति मानस की प्रमुख विषेशता होने के साथ.साथ निरन्तर परिवर्तनशील हैए अतः विकासोन्मुख हैए स्थिर या जड़ नहीं। यही उसे पाशव स्तर से उठाकर मानव स्तर तक ले आती है।

इसी कारण सृष्टि के आरम्भ होते ही परिवर्तन, विकास और चिन्तन की प्रक्रिया आरम्भ हुई, इसी कारण आज मानव आधुनिकता के इस द्वार पर खड़ा है। जंगल में रहते हुए मानव ने अपने हित में, अपनी सुरक्षा और जीवन-यापन के लिए प्रकृति के साथ मिलकर परिवर्तन की प्रक्रिया आरम्भ की होगी। गुफ़ाओं को घर बनाया होगा, उन्हें सुरक्षित किया होगा, जीवन-यापन के लिए, भोज्य सामग्री की तलाश की होगी। प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए सुरक्षा साधनों का विकास किया होगा। परिवर्तन और विकास की यह प्रक्रिया इतनी लम्बी रही होगी कि हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। एकल मानव संगठित हुआ, समूह बने होंगें, और अन्ततः परिवर्तन और विकास की आँधी ने उसे आज आधुनिकता के चरम तक पहुँचा दिया है।

जीवन के इस परिवर्तन को यदि हम सहज-स्वाभाविक रूप में स्वीकार कर लेते हैं तो जीवन सहज हो जाता है। क्योंकि जब भौतिक परिवर्तन होता है तब विचारों, भावों, रीति-परम्पराओं, रहन-सहन, शिक्षा, संस्कारों, व्यवहार, सामाजिकता, पारिवारिक संगठन, परिवेश, वेश-भूषा सबमें परिवर्तन अवश्यम् भावी है। भौतिक परिवर्तन एवं विकास के साथ बहुत कुछ पुराना छूटना स्वाभाविक है और नये को स्वीकार करना जीवनगत आवश्यकता।

इस वास्तविकता को, इस परिवर्तन को, हम जितनी सहजता से स्वीकार कर लें, जीवन की प्रक्रिया भी उतनी ही सरल-सहज होने लगती है।

किन्तु समस्या यह कि हम भौतिक परिवर्तन को तो स्वीकार कर रहे हैं किन्तु कहीं-कहीं पुरातनता का लबादा ओढ़ने में, प्रदर्शन करने में हमें आनन्द मिलता है। हम भौतिक परिवर्तन एवं वैचारिक परिवर्तन में तालमेल नहीं बिठाना चाहते।

हमारे आधुनिक समाज की यही समस्या है कि हम आधुनिक तो होना चाहते हैं, सब सुविधाएँ भी चाहिए किन्तु न जाने कहाँ-कहाँ पुरातनता ढूँढते हैं और अपने सुखमय वर्तमान को कोसते रहते हैं। आवश्यकता है, भौतिक परिर्वतन अर्थात भौतिक विकास एवं वैचारिक परिवर्तन अर्थात विचारधारा में एक परिपक्व समझ की। 

परिवर्तन सकारात्मक भी होते हैं और विरोधाभासी भी। नकारात्मक परिवर्तन हमारे विचारों में होते हैं जिस कारण अनेक बार विकासात्मक परिवर्तन बाधित होता है।

 ​​​​​​​वर्तमान में परिवर्तन में जिस विषय पर सर्वाधिक चर्चा की जाती है वह है हमारे विचारों, भावों, संस्कारों, रीति-रिवाज़ों, व्यवहार आदि में परिवर्तन की। निःसंदेह हमारी प्राचीन संस्कृति, रीति, परम्पराएँ, व्रतोपवास, पूजा-विधि, उपचार-पद्धति आदि उत्कृष्ट रहे हैं किन्तु वर्तमान जीवन पद्धति में प्राचीन काल की भाँति इनका अनुपालन सम्भव ही नहीं है। विशेषकर नई पीढ़ी आधुनिकता की सीढ़ियाँ चढ़ती प्राचीनता के प्रति आग्रही नहीं हो पा रही है। हम बच्चों को प्रत्येक क्षेत्र में आधुनिकतम् सुविधाएँ प्रदान करना चाहते हैं, विलासितापूर्ण जीवन देना चाहते हैं, जीवन की प्रत्येक सुख-सुविधा प्रदान करना चाहते हैं फिर वह शिक्षा हो, रहन-सहन हो, पहनावा हो अथवा अन्य कोई भी सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक अथवा भौतिक आवश्यकता। किन्तु हम इस बात पर कदापि विचार नहीं करते कि जब भौतिक सुख-साधन बदलते हैं तब मानसिक विचारधाराएँ स्वयंमेव ही बदल जाती हैं। इस परिवर्तन में कुछ भी ठीक अथवा गलत नहीं होता, यह स्वाभाविक होता है। परिवर्तन के इस दोहरे रूप को समझना और स्वीकार करना ही जीवन की सफ़लता है।

  

 

भीड़ का हिस्सा बन

अकेलेपन की समस्या से हम अक्सर परेशान रहते हैं

किन्तु भीड़ का हिस्सा बनने से भी तो कतराते हैं

कभी अपनी पहचान खोकर सबके बीच समाकर देखिए

किस तरह चारों ओर अपने ही अपने नज़र आते हैं

कौन हैं अपने कौन पराये

कुछ मुखौटै चढ़े हैं, कुछ नकली बने हैं

किसे अपना मानें, कौन पराये बने हैं

मीठी-मीठी बातों पर मत जाना यारो

मानों खेत में खड़े बिजूका से सजे हैं

आनन्द है प्यार में और हार में

जीवन की नैया बार-बार अटकती है मझधार में

पुकारती हूं नाम तुम्हारा बहती जाती हूं जलधार में

कभी मिलते,कभी बिछड़ते,कभी रूठते,कभी भूलते

यही तो आनन्द है हर बार प्यार में और हार में

 

गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी

पिछले बहत्तर साल से

देश में

योजनाओं की भरमार है

धन अपार है।

मन्दिर-मस्जिद की लड़ाई में

धन की भरमार है।

चुनावों में अरबों-खरबों लुट गये

वादों की, इरादों की ,

किस्से-कहानियों की दरकार है।

खेलों के मैदान पर

अरबों-खरबों का खिलवाड़ है।

रोज़ पढ़ती हूं अखबार

देर-देर तक सुनती हूं समाचार।

गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी

सुनते-सुनते सालों निकल गये।

सुना है देश

विकासशील से विकसित देश

बनने जा रहा है।

किन्तु अब भी

गरीब और गरीबी के नाम पर

खूब बिकते हैं वादे।

वातानूकूलित भवनों में

बन्द बोतलों का पानी पीकर

काजू-मूंगफ़ली टूंगकर

गरीबी की बात करते हैं।

किसकी गरीबी,

किसके लिए योजनाएं

और किसे घर

आज तक पता नहीं लग पाया।

किसके खुले खाते

और किसे मिली सहायता

आज तक कोई बता नहीं पाया।

फिर  वे

अपनी गरीबी का प्रचार करते हैं।

हम उनकी फ़कीरी से प्रभावित

बस उनकी ही बात करते हैं।

और इस चित्र को देखकर

आहें भरते हैं।

क्योंकि न वे कुछ करते हैं।

और न हम कुछ करते हैं।

 

हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है

हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है 

हिन्दी मेरा मान है,

मेरा भारत महान है।

घूमता जहान है।

किसकी भाषा,

कौन सी भाषा,

किसको कितना ज्ञान है।

जबसे जागे

तब से सुनते,

हिन्दी को अपनाना है।

समझ नहीं पाई आज तक

कहां से इसको लाना है।

जब है ही अपनी

तो फिर से क्यों अपनाना है।

कहां गई थी चली

कि इसको

फिर से अपना मनवाना है।

’’’’’’’’’.’’’’’’

कुछ बातें

समय के साथ

समझ से बाहर हो जाती हैं,

उनमें हिन्दी भी एक है।

काश! कविताएं लिखने से,

एक दिन मना लेने से,

महत्व बताने से,

किसी का कोई भला हो पाता।

मिल जाती किसी को सत्ता,

खोया हुआ सिंहासन,

जिसकी नींव

पिछले 72 वर्षों से

कुरेद रहे हैं।

अपनी ही

भाषाओं और बोलियों के बीच

सत्ता युद्ध करवा रहे हैं।

कबूतर के आंख बंद करने मात्र से

बिल्ली नहीं भाग जाती।

काश!

यह बात हमारी समझ में आ जाती,

चलने दो यारो

जैसा चल रहा है।

हां, हर वर्ष

दो-चार कविताएं लिखने का मौका

ज़रूर हथिया ले लेना

और कोई पुरस्कार मिले

इसका भी जुगाड़ बना लेना।

फिर कहना

हिन्दी मेरा मान है,

मेरा भारत महान है।

न आंख मूंद समर्थन कर

न आंख मूंद समर्थन कर किसी का, बुद्धि के दरवाज़े खोल,

अंध-भक्ति से हटकर, सोच-समझकर, मोल-तोलकर बोल,

कभी-कभी सूरज को भी दीपक की रोशनी दिखानी पड़ती है,

चेत ले आज, नहीं तो सोचेगा क्यों नहीं मैंने बोले निडर सच्चे बोल

 

स्वनियन्त्रण से ही मिटेगा भ्रष्टाचार

नित परखें हम आचार-विचार

औरों की सोच पर करते प्रहार

अपने भाव परखते नहीं हम कभी

स्वनियन्त्रण से ही मिटेगा भ्रष्टाचार