कैसा बिखराव है यह

 

मन घुटता है ,बेवजह।

कुछ भीतर रिसता है,बेवजह।

उधेड़ नहीं पाती

पुरानी तरपाई।

स्‍वयं ही टूटकर

बिखरती है ।

समेटती लगती हूं

पुराने धागों को,

जो किसी काम के नहीं।

कितनी भी सलवटें निकाल लूं

किन्‍तु ,तहों के निशान

अक्‍सर जाते नहीं।

क्‍यों होता है मेरे साथ ऐसा,

कहना कुछ और चाहती हूं

कह कुछ और जाती हूं।

बात आज की है,

और कल की बात कहकर

कहानी को पलट जाती हूं,

कि कहीं कोई

समझ न ले मेरे मन को,

मेरे आज को

या मेरे बीते कल को ।

शायद इसीलिए

उलट-पलट जाती हूं।

कहना कुछ और चाहती हूं,

कह कुछ और जाती हूं।

यह सिलसिला

‘गर ज़िन्दगी भर  चलेगा,

तो कहां तक, और कब तक ।