ककहरा जान लेने से ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं

इस चित्र को देखकर सोचा था,

 

आज मैं भी

कोई अच्छी-सी रचना रचूंगी।

मां-बेटी की बात करूंगी।

लड़कियों की शिक्षा,

प्रगति को लेकर बड़ी-बड़ी

बात करूंगी।

पर क्या करूं अपनी इस सोच का,

अपनी इस नज़र का,

मुझे न तो मां दिखाई दी इस चित्र में,

किसी बेटी के लिए आधुनिकता-शिक्षा के

सपने बुनती हुई ,

और न बेटी एवरेस्ट पर चढ़ती हुई।

मुझे दिखाई दे रही है,

एक तख्ती परे सरकती हुई,

कुछ गुम हुए, धुंधलाते अक्षरों के साथ,

और एक छोटी-सी बालिका।

यहां कहां बेटी पढ़ाने की बात है।

कहां कुछ सिखाने की बात है।

नहीं है कोई सपना।

नहीं है कोई आस।

जीवन की दोहरी चालों में उलझे,

तख्ती, चाक और लिखावट

तो बस दिखावे की बात है।

एक ओर  तो पढ़ ले,पढ़ ले,

का राग गा रहे हैं,

दूसरी ओर

इस छोटी सी बालिका को

सजा-धजाकर बिठा रहे हैं।

कोई मां नहीं बुनती

ऐसे हवाई सपने

अपनी बेटियों के लिए।

जानती है गहरे से,

ककहरा जान लेने से

ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं,

भाव और परम्पराएं नहीं उलट जातीं।

.

आज ही देख रही है ,

उसमें अपना प्रतिरूप।

.

सच कड़वा होता है

किन्तु यही सच है।