हम नहीं लकीर के फ़कीर

हमें बचपन से ही

घुट्टी में पिलाई जाती हैं

कुछ बातें,

उन पर

सच-झूठ के मायने नहीं होते।

मायने होते हैं

तो बस इतने

कि बड़े-बुजुर्ग कह गये हैं

तो गलत तो हो ही नहीं सकता।

उनका अनुभूत सत्य रहा होगा

तभी तो सदियों से

कुछ मान्यताएं हैं हमारे जीवन में,

जिनका विरोध करना

संस्कृति-संस्कारों का अपमान

परम्पराओं का उपहास,

और बड़े-बुज़ुर्गों का अपमान।

 

आज की  शिक्षित पीढ़ी

नकारती है इन परम्पराओं-आस्थाओं को।

कहती है

हम नहीं लकीर के फ़कीर।

 

किन्तु

नया कम्प्यूटर लेने पर

उस पर पहले तिलक करती है।

नये आफ़िस के बाहर

नींबू-मिर्च लटकाती है,

नया काम शुरु करने से पहले

उन पण्डित जी से मुहूर्त निकलवाती है

जो संस्कृत-पोथी पढ़ना भूले बैठे हैं,

फिर नारियल फोड़ती है

कार के सामने।

पूजा-पाठ अनिवार्य है,

नये घर में हवन तो करना ही होगा

चाहे सामग्री मिले या न मिले।

बिल्ली रास्ता काट जाये

तो राह बदल लेते हैं

और छींक आने पर

लौट जाते हैं

चाहे गाड़ी छूटे या नौकरी।

हाथों में ग्रहों की चार अंगूठियां,

गले में चांदी

और कलाई में काला-लाल धागा

नज़र न लगे किसी की।

लेकिन हम नहीं लकीर के फ़कीर।

ये तो हमारी परम्पराएं, संस्कृति है

और मान रखना है हमें इन सबका।