जीवन की गति एक  चक्रव्यूह

जीवन की गति

जब किसी चक्रव्यूह में

अटकती है

तभी

अपने-पराये का एहसास होता है।

रक्त-सम्बन्ध सब गौण हो जाते हैं।

पता भी नहीं लगता

कौन पीठ में खंजर भोंक गया ,

और किस-किस ने सामने से

घेर लिया।

व्यूह और चक्रव्यूह 

के बीच दौड़ती ज़िन्दगी,

अधूरे प्रश्र और अधूरे उत्तर के बीच

धंसकर रह जाती है।

अधसुनी, अनसुनी कहानियां

लौट-लौटकर सचेत करती हैं,

किन्तु हम अपनी रौ में

चेतावनी समझ ही नहीं पाते,

और  अपनी आेर से

एक अधबुनी कहानी छोड़कर

चले जाते हैं।