आजकल मेरी कृतियां

 आजकल

मेरी कृतियां मुझसे ही उलझने लगी हैं।

लौट-लौटकर सवाल पूछने लगी हैं।

दायरे तोड़कर बाहर निकलने लगी हैं।

हाथ से कलम फिसलने लगी है।

मैं बांधती हूं इक आस में,

वे चौखट लांघकर

बाहर का रास्ता देखने में लगी हैं।

आजकल मेरी ही कृतियां,

मुझे एक अधूरापन जताती हैं ।

कभी आकार का उलाहना मिलता है,

कभी रूप-रंग का,

कभी शब्दों का अभाव खलता है।

अक्सर भावों की

उथल-पुथल हो जाया करती है।

भाव और होते हैं,

आकार और ले लेती हैं,

अनचाही-अनजानी-अनपहचानी कृतियां

पटल पर मनमानी करने लगती हैं।

टूटती हैं, बिखरती हैं,

बनती हैं, मिटती हैं,

रंग बदरंग होने लगते हैं।

आजकल मेरी ही  कृतियां

मुझसे ही दूरियां करने में लगी हैं।

मुझे ही उलाहना देने में लगी हैं।