शब्द बदल देने से
भाव बदल जाते हैं।
नाम-मात्र से
युद्धों के
परिणाम बदल जाते हैं।
बात कुंजर की थी,
नर कहा गया,
महाभारत का युद्ध पलट गया।
नाम वही है,
पर आधी बात सुनने से
कभी-कभी
अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
गज-गामिनी,
मदमस्त चाल कहने से
कभी-कभी
व्यंग्य-कटाक्ष हो जाता है।
इसलिए
जब भी शब्द चुनो
सोच-समझकर चुनना,
कहने से पहले दो बार सोचना,
क्योंकि
मद-मस्त चलने वाला
जब भड़कता है
तब
शहर किसने देखे,
जंगल के जंगल
उजड़ जाते हैं।
शुक्र मनाईये,
ये शहर की ओर नहीं देखते,
नहीं तो हम-आप
अभयारण्य में होते।
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अब तो कुछ बोलना सीख
आग दिल में जलाकर रख
अच्छे बुरे का भाव परख कर रख।
न सुन किसी की बात को
अपने मन से जाँच-परख कर रख।
कब समझ पायेंगें हम!!
किसी और के घर में लगी
आग की चिंगारी
जब हवा लेती है
तो हमारे घर भी जलाकर जाती है।
तब
दिलों के भाव जलते हैं
अपनों के अरमान झुलसते हैं
पहचान मिटती है,
जिन्दगियां बिखरती हैं
धरा बिलखती है।
गगन सवाल पूछता है।
इसीलिए कहती हूँ
न मौन रह
अब तो कुछ बोलना सीख।
अपने हाथ आग में डालना सीख
आग परख। हाथ जला।
कुछ साहस कर, अपने मन से चल।
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चिड़िया नारी
चिड़िया नारी तुम मुझको उड़ना सिखलाना
फिर मुझसे लेकर रोटी-दाना-पानी खाना
दोनों मिलकर खायेंगे, खूब मौज उड़ायेंगे
फिर मैं अपने घर, तुम अपने घर जाना
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अन्तस में हैं सारी बातें
पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं
जो दुनिया तो जाने थी पर मन था छुपाए
पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें
न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं
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मन से अब भी बच्चे हैं
हाव-भाव भी अच्छे हैं
मन के भी हम सच्चे हैं
सूरत पर तो जाना मत
मन से अब भी बच्चे हैं
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ढोल की थाप पर
संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।
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वक्त की रफ्तार देख कर
वक्त की रफ्तार देख कर
मैंने कहा, ठहर ज़रा,
साथ चलना है मुझे तुम्हारे।
वक्त, ऐसा ठहरा
कि चलना ही भूल गया।
आज इस मोड़ पर समझ आया,
वक्त किसी के साथ नहीं चलता।
वक्त ने बहुत आवाज़ें दी थीं,
बहुत बार चेताया था मुझे,
द्वार खटखटाया था मेरा,
किन्तु न जाने
किस गुरूर में था मेरा मन,
हवा का झोंका समझ कर
उपेक्षा करती रही।
वक्त के साथ नहीं चल पाते हम।
बस हर वक्त
किसी न किसी वक्त को कोसते हैं।
एक भी
ईमानदार कोशिश नहीं करते,
अपने वक्त को,
अपने सही वक्त को पहचानने की ।
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निंदक नियरे राखिये
निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय
बिन पानी साबुन बिना निर्मल होत सुभाय ..
उक्त दोहे की सप्रसंग व्याख्या
******************
यह बात सम्भवत: पन्द्रहवीं-सोहलवीं शती की है जब हमें निन्दक की तलाश हुआ करती थी। उस काल में निन्दक की नियुक्ति के क्या नियम थे नहीं ज्ञात। कहा जाता है कि राजा लोग अपने दरबार में निन्दक नियुक्त करते होंगे। आम जनता कहां निन्दक रख पाती होगी।
विचारणीय यह कि उस काल में वर्तमान की भांति रोज़गार कार्यालय नहीं हुआ करते थे। समाचार पत्र, दूरभाष, मोबाईल भी नहीं थे कि विज्ञापन दिया, अथवा एक नम्बर घुमाया और साक्षात्कार के लिये बुला लिया। फिर कैसे निन्दक नियरे रखते होंगे, कैसे ढूंढते होंगे एक अच्छा निन्दक, यही अनुसंधान का विषय है। कोई डिग्री, कोर्स का भी युग नहीं था फिर निन्दक के लिए क्या और कैसे मानदण्ड निर्धारित किये जाते होंगे। लिखित परीक्षा होती होगी अथवा केवल साक्षात्कार ही लिया जाता होगा। चिन्तित हूं, सोच-सोचकर इस सबके बारे में जबसे उक्त दोहा पढ़ा है।
किन्तु यह बात तथ्यपूर्वक कही जा सकती है कि यह दोहा मध्यकाल का नहीं है। कपोल-कल्पित कथाओं के अनुसार इस दोहे को मध्यकाल के भक्ति काल के किन्हीं कबीर दास द्वारा रचित दोहा बताया गया है। वैज्ञानिक एवं गहन अनुसंधान द्वारा यह तथ्य प्रमाणित है कि भक्ति काल में साबुन का आविष्कार नहीं हुआ था। और यदि था तो कौन सा साबुन बिना पानी के प्रयोग किया जाता होगा।
अब इसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखते हैं।
आधुनिक काल में इस पद की कोई आवश्यकता ही नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक सजग निन्दक है, जिसे पानी, साबुन की भी आवश्यकता नहीं है। एक ढूंढो, हज़ार मिलते हैं।
इसी अवसर पर हम अपने भीतर झांकते हैं।
निष्कर्ष :
इस कारण यह दोहा प्राचीन एवं अवार्चीन दोनों ही कालों में अर्थहीन, महत्वहीन है।
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हाथ पर रखें लौ को
रोशनी के लिए दीप प्रज्वलित करते हैं
फिर दीप तले अंधेरे की बात करते हैं
तो हिम्मत करें, हाथ पर रखें लौ को
जो जग से तम मिटाने की बात करते है
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सीता की व्यथा
कौन समझ पाया है
सीता के दर्द को।
उर्मिला का दर्द
तो कवियों ने जी लिया
किन्तु सिया का दर्द
बस सिया ने ही जाना।
धरा से जन्मी
धरा में समाई सीता।
क्या नियति रही मेरी
ज़रूर सोचा करती होगी सीता ।
.
किसे मिला था श्राप,
और किसे मिला था वरदान,
माध्यम कौन बना,
किसके हाथों
किसकी मुक्ति तय की थी विधाता ने
और किसे बनाया था माध्यम
ज़रूर सोचा करती होगी सीता ।
.
क्या रावण के वध का
और कोई मार्ग नहीं मिला
विधाता को
जो उसे ही बलि बनाया।
एक महारानी की
स्वर्ण हिरण की लालसा
क्या इतना बड़ा अपराध था
जो उसके चरित्र को खा गया।
सब लक्ष्मण रेखा-उल्लंघन
की ही बात करते हैं,
सीता का भाव किसने जाना।
लक्ष्मण रेखा के आदेश से बड़ा था
द्वार पर आये साधु का सम्मान
यह किसी ने न समझा।
साधु के सम्मान की भावना
उसके जीवन का
कलंक कैसे बनकर रह गया,
ज़रूर सोचा करती होगी सीता ।
.
रावण कौन था, क्यों श्रापित था
क्या जानती थी सीता।
शायद नहीं जानती थी सीता।
सीता बस इतना जानती थी
कि वह
अशोक वाटिका में सुरक्षित थी
रावण की सेनानियों के बीच।
कभी अशोक वाटिका से
बचा लिया गया मुझे
मेरे राम द्वारा
तो क्या मेरा भविष्य इतना अनिश्चित होगा,
क्या कभी सोचा करती थी सीता
शायद नहीं सोचा करती थी इतना सीता।
-
क्या सोचा करती थी सीता
कि एक महापण्डित
महाज्ञानी के कारावास में रहने पर
उसे देनी होगी
अग्नि-परीक्षा अपने चरित्र की।
शायद नहीं सोचा करती थी सीता।
क्योंकि यह परीक्षा
केवल उसकी नहीं थी
थी उसकी भी
जिससे ज्ञान लिया था लक्ष्मण ने
मृत्यु के द्वार पर खड़े महा-महा ज्ञानी से।
विधाता ने क्यों रचा यह खेल
क्यों उसे ही माध्यम बनाया
कभी न समझ पाई होगी सीता।
न जाने किन जन्मों के
वरदान, श्राप और अभिशाप से
लिखी गई थी उसकी कथा
कहाॅं समझ पाई होगी सीता।
कथा बताती है
कि राजा ने अकाल में चलाया था हल
और पाया था एक घट
जिसमें कन्या थी
और वह थी सीता।
घट में रखकर
धरती के भीतर
कौन छोड़ गया था उसे
क्या परित्यक्त बालिका थी वह,
सोचती तो ज़रूर होगी सीता
किन्तु कभी समझ न पाई होगी सीता।
.
अग्नि में समाकर
अग्नि से निकलकर
पवित्र होकर भी
कहाॅं बन पाई
राजमहलों की राजरानी सीता।
अपना अपराध
कहाॅं समझ पाई होगी सीता।
.
लक्ष्मण के साथ
महलों से निकलकर
अयोध्या की सीमा पर छोड़ दी गई
नितान्त अकेली, विस्थापित
उदर में लिए राज-अंश
पद-विच्युत,
क्या कुछ समझ पाई होगी सीता
कहाॅं कुछ समझ पाई होगी सीता।
.
कैसे पहुॅंची होगी किसी सन्त के आश्रम
कैसे हुई होगी देखभाल
महलों से निष्कासित
राजकुमारों को वन में जन्म देकर
वनवासिनी का जीवन जीते
मैं बनी ही क्यों कभी रानी
ज़रूर सोचती होगी सीता
किन्तु कभी कुछ समझ न पाई होगी सीता।
.
कितने वर्ष रही सन्तों के आश्रम में
क्या जीवन रहा होगा
क्या स्मृतियाॅं रही होंगी विगत की
शायद सब सोचती होगी सीता
क्यों हुआ मेरे ही साथ ऐसा
कहाॅं समझ पाई होगी सीता।
.
तेरह वर्ष वन में काटे
एक काटा
अशोक वाटिका में,
चाहकर भी स्मृतियों में
नहीं आ पाते थे
राजमहल में काटे सुखद दिन
कितने दिन थे, कितना वर्ष
कहाॅं रह पाईं होंगी
उसके मन में मधुर स्मृतियाॅं।
.
कहते हैं
उसके पति एकपत्नीव्रता रहे,
मर्यादा पुरुषोत्तम थे वे,
किन्तु
इससे उसे क्या मिला भला जीवन में
उसके बिना भी तो
उनका जीवन निर्बाध चला
फिर वह आई ही क्यों थी उस जीवन में
ज़रूर सोचती होगी सीता।
.
चक्रवर्ती सम्राट बनने में भी
नहीं बाधा आई उसकी अनुपस्थिति।
जहाॅं मूर्ति से
एक राजा
चक्रवर्ती राजा बन सकता था
तो आवश्यकता ही कहाॅं थी महारानी की
और क्यों थी ,
ज़रूर सोचा करती होगी सीता।
.
ज़रूर सोचा करती होगी सीता
अपने इस दुर्भाग्य पर
उसके पुत्र रामकथा तो जानते थे
किन्तु नहीं जानते थे
कथा के पीछे की कथा।
वे जानते थे
तो केवल राजा राम का प्रताप
न्याय, पितृ-भक्त, वचनों के पालक
एवं मर्यादाओं की बात।
.
वे नहीं जानते थे
किसी महारानी सीता को
चरित्र-लांछित सीता को,
अग्नि-परीक्षा देकर भी
राजमहलों से
विस्थापित हुई सीता को।
नितान्त अकेली वन में छोड़ दी गई
किसी सीता को।
इतनी बड़ी कथा को
कैसे समझा सकती थी
अपने पुत्रों को सीता
नहीं समझा सकती थी सीता।
-
अश्वमेध का अश्व जिसे
राजाओं के पास,
राज्यों में घूमना था
वाल्मीकि आश्रम कैसे पहुॅंच गया
और उसके पुत्रों ने
उस अश्व को रोककर
युद्ध क्यों किया।
क्यों विजित हुए वे
तीनों भाईयों से,
कि राम को आना पड़ा ।
.
जीवन के पिछले सारे अध्याय
बन्द कर चुकी थी सीता।
वह न अतीत में थी
न वर्तमान में
न भविष्य को लेकर
आशान्वित रही होगी
वनदेवी के रूप में
जीवन व्यतीत करती हुई सीता।
और इस नवीन अध्याय की तो
कल्पना भी नहीं की होगी
न समझ सकी होगी इसे सीता।
.
कैसे समझ सकती थी सीता
कि यह उसके जीवन के पटाक्षेप का
अध्याय लिखा जा रहा था
कहाॅं समझ सकती थी सीता।
जीवन की इस एक नई आंधी के बारे में
कभी सोच भी नहीं सकती थी सीता।
.
पवित्रता तो अभी भी दांव पर थी।
चाहे कारागार में रही
अथवा वनवासिनी
प्रमाण तो चहिए ही था।
कैसे प्रमाणित कर सकती थी सीता।
धरा से निकली, धरा में समा गई सीता।
.
इससे तो
अशोक वाटिका में ही रह जाती
तो अपमानित तो न होती सीता
इतना तो ज़रूर सोचती होगी सीता
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राजनीति अब बदल गई
राजनीति अब बदल गई, मानों दंगल हो रहे
देश-प्रेम की बात कहां, सब अपने सपने बो रहे
इसको काटो, उसको बांटों, बस सत्ता हथियानी है
धमा- चौकड़ी मची है मानों हथेली सरसों बो रहे