आह! डाकिया!

आह! डाकिया!

खबरें संसार भर की।

डाक तरह-तरह की।

छोटी बात तो

पोस्टकार्ड भेजते थे,

औरों के अन्तर्देशीय पत्रों को

झांक-झांककर देखते थे।

और बन्द लिफ़ाफ़े को

चोरी से पढ़ने के लिए

थूक लगाकर

गीला कर खोलते थे।

जब चोरी की चिट्ठी आनी हो

तो द्वार पर खड़े होकर

चुपचाप डाकिए के हाथ से

पत्र ले लिया करते थे,

इससे पहले कि वह

दरार से चिट्ठी घर में फ़ेंके।

फ़टा पोस्टकार्ड

काली लकीर

किसी अनहोनी से डराते थे

और तार की बात से तो

सब कांपते थे।

सालों-साल सम्हालते थे

संजोते थे स्मृतियों को

अंगुलियों से छूकर

सरासराते थे पत्र

अपनों की लिखावट

आंखों को तरल कर जाती थी

होठों पर मुस्कान खिल आती थी

और चेहरा गुलाल हो जाया करता था

इस सबको छुपाने के लिए

किसी पुस्तक के पन्नों में

गुम हो जाया करते थे।