नेह के मोती

अपने मन से,

अपने भाव से,

अपने वचनों से,

मज़बूत बांधी थी डोरी,

पिरोये थे

नेह के मोती,

रिश्तों की आस,

भावों का सागर,

अथाह विश्वास।

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किन्तु

समय की धार

बहुत तीखी होती है।

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अकेले

मेरे हाथ में नहीं थी

यह डोर।

हाथों-हाथ

घिसती रही

रगड़ खाती रही

गांठें पड़ती रहीं

और बिखरते रहे मोती।

और जब माला टूटती है

मोती बिखरते हैं

तो कुछ मोती तो

खो ही जाते हैं

कितना भी सम्हाल लें

बस यादें रह जाती हैं।